ऐसा गुस्सा आता कि एक की चार खरी-खोटी सुना दे। लेकिन किसी तरह
अपने
को सम्हाल लेता।
उस दिन गोपाल दो बजे के पहले ही यह कहकर चला गया कि उसे कोई 'कॉलशीट' है। केवल माधवी रह गयी। उसने मुत्तुकुमरन् को टोकते हुए कहा, "आप फ़िजूल के बखेड़ों में क्यों पड़ते हैं ? आपने नाटक लिख दिया। वे जैसे चाहें, खेलें। इसमें आपका क्या आता-जाता है ?"
"मैं नाटककार हूँ ! इसे क्या आसानी से भूला जा सकता है?"
"मैं भूलने को नहीं कह रही ! पूछती हूँ कि व्यर्थ का हठ क्यों ठानते हैं ?"
"नहीं ! हठ से ही आजकल भले-बुरे की रक्षा की जा सकती है !"
"आजकल भले-बुरे की रक्षा कौन करना चाहता है ? सब पैसा ही बनाना चाहते हैं।"
"हाँ, पैसे की बात गोपाल पर लागू हो सकती है ! अच्छा, छोड़ो ! शाम को दूसरों के लिए रिहर्सल की बात कह गया न? वे दूसरे कौन हैं ? कब आयेंगे ? कैसे आयेंगे? इसका तो कोई पता-ठिकाना नहीं चलता !"
"सबका इन्तज़ाम किया होगा। 'दैन' जाकर उन्हें बटोर लायेगी। नाटकों में 'साइड रोल' की भूमिका करने के लिए यहाँ कितने ही घराने पड़े हैं, जो बड़ा कष्टकर जीवन बिता रहे हैं । ऐसे पात्रों का यहाँ कोई अकाल नहीं है।"
"हो सकता है कि अकाल न पर अकालग्रस्त लोगों से कला-भावना की रक्षा हो सकती है कहीं ?"
"कला की साधना के लिए कोई शहर नहीं आता । पेट पालने के लिए ही सब शहर आते हैं और आये भी हैं।"
"तभी शहरों में कला की हालत खस्ता है !"
इसका माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन जैसा कि उसने बताया था, थोड़ी देर में दस-पन्द्रह स्त्री-पुरुषों से खचाखच भरी एक 'वैन' आयी; जिसमें से सभी हाट-बाजार का-सा शोरगुल मचाते हुए उतरे। मुत्तुकुमरन और माधवी को सामने देखते ही उनकी बोलती बन्द हो गयी । उन्हें आउट हाउस के बरामदे में ले जाकर यह फैसला करने में आधे घण्टे से भी अधिक का समय लग गया कि किसे किस पात्र की भूमिका दी जाए।
एक युवक जो दूत की भूमिका करने के लिए चुना गया था; मुत्तुकुमरन ने यह संवाद देकर पढ़ने को कहा, "हमारे महाराज तलवार लेकर घुमायें तो सारे दुश्मन जमीन चूमेंगे।' तो उसने पढ़ा, "हमारे महाराज तलवार लेकर घूम आयें तो सारे '. दुश्मन जमीन झूमेंगे।"
"अरे भाई ! 'घूम आना' नहीं, 'घुमाना', 'झूमना' नहीं 'चूमना' ।"- मुत्तुकुमरन् ने 'घुमाने' और 'चूमने पर जितना ज़ोर दिया, उतना ही उसने 'धूम हो