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68/यह गली बिकाऊ नहीं
 

तो यहाँ और भी असमंजस में पड़ गया था। इस दमघोंटू बातावरण से छूटने के विचार से माधवी ने बात बदलकर पूछा, "कल हम दोनों का रिहर्सल तो सवेरे ही है न ? दिन तो बहुत कम बचे हैं !"

"किसके लिए दिन बहुत कम हैं ?

"नाटक के मंचन के लिए ! मंत्री ने तो तारीख़ दे दी है न?"

"नाटक के मंचन से बढ़कर मंत्री के 'डेट' पर ही यहाँ सबका ध्यान केन्द्रित रहता है !"

"कसूर हो तो माफ़ कीजिए ! मैंने उस अर्थ में नहीं कहा।"

"चाहे किसी माने में भी कहो ! लगता है कि आजकल कोई कला कला के लिए नहीं बल्कि मन्त्री महोदय की अध्यक्षता और अखबारों में खबर छपने के लिए ही है।"

"एक और बात' 'बड़ी विनम्रता से कहना चाहती हूँ। आप बुरा न मानें तो कहूं।

"बात न बताकर इस तरह कहती रहोगी तो मैं कैसे जवाब दूं?"

"आपको गुस्सा नहीं करना चाहिए, सब्र से सुनना चाहिए । मुझे संकोच हो रहा है कि मैं अपनी वह बात कैसे शुरू करूँ ? अच्छा हुआ कि आज पहले दिन के रिहर्सल में वैसे कुछ नहीं हुआ !"

"कुछ नहीं हुआ का मतलब ?"

"कुछ नहीं ! रिहर्सल के समय गोपाल साहब मेरा तन स्पर्श करें या मुझे छेड़ें तो मैं न तो उसका विरोध कर सकती हूँ और न ही मुंह फेर सकती हूँ। आपको इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। मैं एक अबला हूं । आपको यह नहीं समझना चाहिए कि अपने स्पर्श करनेवालों को मैं भी छूना चाहती हूँ।”

यह कहते हुए माधवी की आवाज़ ऐसी रुंध गयी, मानो रो पड़ेगी । उसके सजल नेत्र गिड़गिड़ाते-से लगे। उसने उसे घूरकर देखा। उसकी विनती में सतर्कता और स्वरक्षा की भावना नज़र आयी। उसकी इस सतर्कता ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह उसपर अपना दिल न्योछावर कर चुकी है और उसके प्यार के बंधन में बंध चुकी है। उसकी बातों में बच्चों की निरीहता और स्त्रियोचित भोलापन देखकर वह खुश हुआ। उसे गौरव-सा महसूस हुआ । उसके जी में आया कि उसे आड़े हाथों ले, उसपर गुस्सा उतारे या कि उसे दिलासा देकर दिल से लगा ले।

उसकी ओर आँखें उठाकर उसने दुबारा देखा तो उसकी गिड़गिड़ाती आँखें डबडबा

आयी थीं।