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युद्ध और आहिंसा


अनुभव से मुझे यह भी मालूम हुआ कि सद्गुणों के खातिर लोग सद्गुणी मुश्किल से बनते हैं। वे तो आवश्यकतावश सद्गुणी बनते हैं। परिस्थितियों के दबाव से भी कोई व्यक्ति अच्छा बने तो उसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन अच्छाई के लिए अच्छा बनना नेसन्देह उससे श्रेष्ठ है।

चेकों के सामने इसके सिवा कोई उपाय ही न था कि या तो वे शान्ति के साथ जर्मनी की शक्ति के आगे सिर झुका दें या अकेले ही लड़कर निश्चित रूप से विनाश का खतरा उठाएँ। ऐसे अवसर पर ही मुझ जैसो को यह आवश्यक मालूम हुआ कि वह उपाय पेश करूँ जिससे बहुत कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। चेकों से मैने जो कुछ निवेदन किया, मेरी राय में, वह बड़े राष्ट्रों के लिए उतना ही डीचत है।

हाँ मेरे आलोचक यह पूछ सकते हैं कि, जबतक हिन्दुस्तान में, मैं अहिंसा की सौ फीसदी सफलता करके न बद्ला दूँ तबतक किसी पश्चिमी राष्ट्र से उसके न कहने की जो कैद खुद ही अपने ऊपर मैंने लगा रक्खी है उससे बाहर मैं क्यों गया? और खासकर अब्, जबकि मुझे इस बात से गम्भीर सन्देह होने लगा है कि कांग्रेसजन अहिंसा के अपने ध्येय या नीति पर वस्तुतः कायम भी हैं या नहीं? जब मैंने वह लेख लिखा तब कांग्रेस की वर्तमान अश्निश्ति स्थिति और अपनी मर्यादा का मुझे जरूर ध्यान था। लेकिन अहिंसात्मक उपाय में मेरा विश्वास हमेशा की तरह दृढ़ था और मुझे ऐसा लगा कि ऐसे आड़े वक्त