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युद्ध और अहिंसा


हो, तो भो अप्रासंगिक तो जरूर है। और जिसे मैं अपने अन्ततम में सौ फीसदी सलाह समझता हूँ उसे, अपने देश या अपने या जर्मन-भारतीय सम्बन्धों पर कोई आँच पाने के भय से, देने में पशोपेश करूँ, तो मुझे अपने को कायर ही समझना चाहिए।

बर्लिन के लेखक ने निश्चय ही यह एक अजीब सिद्धान्त निकाला है कि जर्मनी के बाहर के लोगों को जर्मन कामों पर टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए, फिर ऐसा अत्यधिक मित्रता के भाव से हो क्यों न किया जाय। अपनी तरफसे तो मैं निश्चय ही उन दिलचस्प बातों का स्वागत करूँगा जो जर्मन या दूसरे बाहरी लोग हिन्दुस्तानियों के बारे में हमें बतलायेंगे। अंग्रेजों की ओर से कुछ कहने की मुझे कोई जरूरत नहीं है। लेकिन ब्रिटिश प्रजा को, अगर मैं थोड़ा भी जानता हूँ, तो वह भी ऐसी बाहरी आलोचना का स्वागत ही करेगी, जो अच्छी जानकारी के साथ को जाय और जो द्वष से मुक्त हो। इस युग में, जब कि दूरी की कोई कठिनाई नहीं रही है, कोई भी राष्ट्र 'कूपमण्डूक' बनकर नहीं रह सकता। कभी-कभी तो दूसरों के दृष्टिकोण से अपने को देखना बड़ा लाभकारक होता है। इसलिए अगर कहीं जर्मन आलोचकों की नजर मेरे इस जवाब पर पड़े, तो मैं उम्मीद करता हूँ कि वे मेरे लेख के बारे में न केवल अपनी राय ही बदल देंगे, बल्कि साथ ही बाहरी आलोचना के महत्व को भी महसूस करेंगे।

'हरिजन-सेवक' : १० दिसम्बर ११३८