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युद्ध और अहिंसा


था। कई बार यूक्लिड के १२ सिद्धांत पढ़े, पर मेरी समझ में पत्थर भी न आया। जब यकायक मेरी बुद्धि खुल गई, तब उसी ज्ञण भूमिति-शास्त्र मुझे एक सरल-से-सरल शास्त्र मालूम हुआ। इससे भी अधिक सरल अहिंसा-शास्त्र है, ऐसा मेरा विश्वास हैं। पर जबतक हमारे हृदय के पट नहीं खुल जाते, तबतक अहिंसा हमारे अंतर में कैसे प्रवेश कर सकती हैं? बुद्धि हृदय को भेदने में असमर्थ हैं। वह हमें थोड़ी ही दूर ले जा सकती है, और वहाँ व्याकुल बनाकर छोड़ देती हैं। अनेक सशय हमें भ्रमाते हैं। अहिंसा श्रद्धा का विषय है, अनुभव का विषय हैं। जहाँतक संसार उसपर श्रद्धा जमाने के लिए तैयार नहीं, वहाँतक तो वह चमत्कार की ही बाट जोहता रहेगा। उसे बड़े पैमाने पर जो प्रत्यक्ष दिखाई दे सके ऐसी अहिंसा की जीत देखनी हैं। इसलिए कुछ विद्वान बुद्धि का महान प्रयोग करके हमें समझाते हैं कि बर्तौर सामाजिक शक्ति के अहिंसा को विकसित करना आकाशपुष्प तोड़ने की तैयारी करने के समान हैं। वे हमें समझाते हैं कि अहिंसा तो केवल एक व्यक्तिगत वस्तु है। सचमुच अगर ऐसा ही है, तो क्या मनुष्यजाति और् पशुजाति के बीच बास्तविक भेद कुछ है ही नहीं? एक के चार पैर हैं, दूसरे के दो; एक के सींग, दूसरे के नहीं!

'हरिजन्-सेवक' : १२ अक्तुबर्, ११३५