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धर्म की समस्या १७५


वर्तन हो गया होगा ।

और बात दरअसल यह थी कि जिस विचार-सररिग के ‍अनुसार में बोअर-युद्ध में सम्मिलित हुआ था उसी का अनुसरगा इस समय भी किया गया था। मैं ठीक-ठीक देख रहा था कि युद्ध में शरीक होना अहिंसा के सिद्धान्त के अनकूल नहीं है; परन्तु बात यह है कि कर्तव्य का भान मनुष्य की हमेशा दिन की तरह स्पष्ट नहीं दिखाई देता। सत्य के पुजारी को बहुत बार इस तरह गोते खाने पड़ते हैं।

अहिंसा एक व्यापक वस्तु है। हम लोग ऐसे पामर प्रारगी हैं, जो हिंसा की होली में फँसे हुए हैं। ‘जीवो जीवस्य जीवनम', यह बात असत्य नहीं क्षरग भी बाह्य हिंसा किये बिना नहीं जी सकता। खाते-पीते, बैठते-उठते, तमाम क्रियाओं में इच्छा से या अनिच्छा से कुछ-न-कुछ हिंसा वह करता ही रहता है। यदि इस हिंसा से छूट जाने का वह महान् प्रयास करता हो, उसकी भावना में केवल अनुकम्पा हो, वह सूक्ष्म जन्तु का भी नाश न चाहता हो, अौर उसे बचाने का यथाशक्ति प्रयास करता हो, तो समम्कना चाहिए कि वह अहिंसा का पुजारी है। उसकी प्रवृत्ति में निरन्तर संयम की वृद्धि होती रहेगी, उसकी करुरगा निरन्तर बढ़ती रहेगी, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कोई भी देहधारी बाह्य हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता।

फिर अहिंसा के पेट में ही अद्वैत भावना का भी समावेश है। और यदि प्रारिगमात्र में भेद-भाव हो तो एक के काम का