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हिटलरशाही से कैसे पेश आयें?


रखे बिना मरते। मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि उस हालत में यूरोप ने अपनी नैतिकता को काफी बढ़ा लिया होता और अन्त में, मेरा खयाल है, नैतिकता का ही शुमार होता है। और सब व्यर्थ है।

यह सब मैंने यूरोप के राष्ट्रों के लिए लिखा है। लेकिन हमारे ऊपर भी यह लागू होता है। अगर मेरी दलील समझ में आ जाये, तो क्या हमारे लिए यह समय ऐसा नही है कि हम बलवानों की अहिंसा में अपने निश्चित विश्वास की घोषणा करके यह कहें कि हम हथियारों की ताकत से नहीं बल्कि अहिंसा की ताकत से अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करना चाहते हैं?

‘हरिजन-सेवक' : २२ जून, १९४०