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प्रताप पीयूष/प्रतापनारायण की साहित्यिक मंडली

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हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान ॥”

इस हिंदी-प्रचार की धुन में जब कभी किसी उर्दू के पक्ष- पाती समाचार-पत्र के संपादक से उनका वाग्युद्ध छिड़ जाता था, तो लगातार कई हफ़्तों तक वे अपने पत्र में उर्दू के पीछे पड़ जाते थे। 'उर्दू बीबी की पूँजी' इस विषय पर उनका बड़ा चटपटा लेख है। उसमें उन्होंने मनोलपने की तथा व्यङ्ग की हद कर दी है। यह अवतरण देखिए :-

“उर्दू की वास्तविक पूँजी यदि विचार के देखिये तो "आशिक़', 'माशूक़', 'बाग़', 'बुलबुल', 'सैयाद', 'शराब', 'साक़ी', इतनी ही बातें हैं जिन्हें उलट-फेर के वर्णन किया करो, आप बड़े अच्छे उर्दू दाँ हो जायँगे। हमारे एक मित्र का वाक्य कितना सच्चा है कि और सब विद्या है, यह अविद्या है। जन्म भर पढ़ा कीजिये तेली के बैल की तरह एक ही जगह घूमते रहोगे।"

इसमें अत्युक्ति बहुत ज्यादा है। पर जिस परिहास की तरंग में यह लिखा गया है उसके यह सर्वथा उपयुक्त है। संभव है कि किसी उर्दू के हिमायती की दलीलों से चिढ़ कर यह लिखा हो। क्योंकि वे स्वयं उर्दू दाँ थे और फारसी में भी शायद उनका काफ़ी प्रवेश था। उर्दू में उन्होंने बड़ी रोचक शेरें भी लिखी हैं । अतएव, उर्दू को 'सब भाषाओं का करकट' तक कह डालने से उनकी उर्दू के प्रति कोई वास्तविक घृणा न रही होगी।


प्रतापनारायण की साहित्यिक मंडली

पंडित प्रतापनारायण की साधारण जीवन घटनाओं तथा

चरित्र पर प्रकाश डालने के बाद स्वभावतः उनके साहित्यिक जीवन की छानबीन करनी है।

१९ वीं शताब्दी का अंतिम भाग हिंदी की उन्नति का स्वर्णयुग था। उस समय उत्तरी भारत में साहित्य-चर्चा के कई केंद्र बन गये थे। कलकत्ते में 'भारतमित्र' के संपादन-विभाग में बड़े बड़े साहित्य-सेवियों का अड्डा रहता था, जैसे पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र, गोविंदनारायण मिश्र, जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी, अमृतलाल चक्रवर्ती, बाबू बालमुकुंद गुप्त। ये सब प्रतिभावान् लेखक थे और इनके फड़कीले लेखों से हिंदी-भाषी प्रांतों में सर्वत्र साहित्यिक रुचि उद्दीप्त होती थी।

काशी में भारतेंदु हरिश्चंद्र एक अनुपम साहित्यिक वातावरण बनाये हुए थे। वे स्वयं रसज्ञ थे और उनके प्रोत्साहन से अनेक प्रतिभासंपन्न साहित्य-प्रेमी एकत्रित हो गये थे। उनकी रचनाओं से तथा उनकी सहृदयता से प्रभावित होकर चारों ओर नये नये लेखक निकल रहे थे।

कानपुर में जो मंडली बन रही थी उसमें पंडित ललिता- प्रसाद जी त्रिवेदी, पंडित प्रतापनारायण मिश्र आदि प्रधान थे। इनमें प्रतापनारायण जी तो भारतेंदु के पक्के शिष्य तथा प्रेमी थे। अपने उपास्यदेव का शिष्यत्व उन्होंने आजन्म निबाहा। भारतेंदु पर उनकी इतनी श्रद्धा-भक्ति थी कि उन्होंने हरिश्चंद्र- संवत् तक लिखना शुरू कर दिया था। एवं, यह कहने में ज़रा भी अत्युक्ति न होगी कि प्रतापनारायण मिश्र के साहित्यिक

गुण किंवा उनके चरित्र की स्मरणीय विशेषतायें सभी भारतें के संपर्क से प्रस्फुटित हुई थीं। उनके साहित्यिक महत्त्व का विश्लेषण विना भारतेंदु का उल्लेख किये अधूरा रहता है।

एक बार भारतेंदु सख्त बीमार पड़ गये थे। जब वे आराम हुए तब 'प्रतापहरी' ने उन पर एक बड़ा सरस क़सीदा लिखा था। उसका कुछ अंश दिया जाता है जिससे बाचकों को पता लग सकेगा कि मिश्र जी भारतेंदु को कितनी. भक्ति से देखते थे:-

"बनारस की ज़मों नाजां है जिसकी पायबोसी पर ।

अदब से जिसके आगे चर्ख ने गरदन झुकाई है ।
****
कहे गर इन दिनों वायज़ कि मय पीना नहीं अच्छा ।
तो बेशक मस्त कह बैठें कि तुमने भाँग खाई है ॥
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उसे क्या कोई दिखलावेगा अपने खाम के जौहर ।

रसा है वह खुद उसके जिहन की वाँ तक रसाई है ॥"

भारतेंदु के प्रेमपात्र तथा भक्त होने का प्रतापनारायण को गर्व भी था। वैसे भी बैसवाड़े के रहनेवाले कान्यकुब्जों की ठसक उनमें थी ही। उसके अतिरिक्त उनकी प्रकृति में उदंडता और अहम्मन्यता काफ़ी थीं। ये दोनों बातें उच्च कोटि के साहित्यसेवियों तथा कलाविदों में अक्सर मिलती हैं।

एक बार प्रतापनारायण के किसी भक्त ने बड़े स्नेहमय

शब्दों में उन्हें एक पत्र लिखा था। वह 'ब्राह्मण' में निकला था। उसको प्रकाशित करते समय उन्होंने अपने विषय में हृदय के कुछ उद्गार यों निकाले थे:--

"•••कुछ न सही, पर कानपुर में कुछ एक बातें केवल हमी पर परमेश्वर ने निर्भर की हैं... यदि लोग हमको भूल भी जायँगे तो यहाँ की धरती अवश्य कहेगी कि हममें कभी कोई खास हमारा था।

••••••बाज़े बाज़े लोग हमें श्री हरिश्चंद्र का स्मारक सम- झते हैं। बाज़ों का ख्याल है कि उनके बाद उनका सा रंग ढंग कुछ इसी में है। हमको स्वयं इस बात का घमंड है कि जिस मदिरा का पूर्ण कुंभ उनके अधिकार में था उसी का एक प्याला हमें भी दिया गया है, और उसी के प्रभाव से बहुतेरे हमारे दर्शन की, देवताओं के दर्शन की भांति, इच्छा करते हैं••••••।”

वाचक इससे स्वयं ही समझ सकते हैं।

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