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प्रताप पीयूष/पंडित प्रतापनारायण और ब्राह्मण

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शब्दों में उन्हें एक पत्र लिखा था। वह 'ब्राह्मण' में निकला था। उसको प्रकाशित करते समय उन्होंने अपने विषय में हृदय के कुछ उद्गार यों निकाले थे:--

"•••कुछ न सही, पर कानपुर में कुछ एक बातें केवल हमी पर परमेश्वर ने निर्भर की हैं... यदि लोग हमको भूल भी जायँगे तो यहाँ की धरती अवश्य कहेगी कि हममें कभी कोई खास हमारा था।

••••••बाज़े बाज़े लोग हमें श्री हरिश्चंद्र का स्मारक सम- झते हैं। बाज़ों का ख्याल है कि उनके बाद उनका सा रंग ढंग कुछ इसी में है। हमको स्वयं इस बात का घमंड है कि जिस मदिरा का पूर्ण कुंभ उनके अधिकार में था उसी का एक प्याला हमें भी दिया गया है, और उसी के प्रभाव से बहुतेरे हमारे दर्शन की, देवताओं के दर्शन की भांति, इच्छा करते हैं••••••।”

वाचक इससे स्वयं ही समझ सकते हैं।


पंडित प्रतापनारायण और ब्राह्मण

जिस प्रकार पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के साहित्यिक जीवन से 'सरस्वती' को अलग नहीं कर सकते, ठीक उसी प्रकार प्रताप मिश्र' और 'ब्राह्मण' को भी एक दूसरे से विभक्त नहीं कर सकते।

'ब्राह्मण' मार्च सन् १८८३ से निकलने लगा था और जुलाई सन् १८८९ तक रो-पीट कर चला। इस बीच में सदैव ग्राहकों की नादिहंदी का उलाहना देते ही बीता। कभी तो एक रुपया

वार्षिक चंदा न देनेवाले ग्राहकों के नाम ब्रह्मघातकों की श्रेणी में लिखे जाते थे और उन्हें शर्मिंदा करने की कोशिश की जाती थी। कभी 'आठ मास बीते जजमान, अबतो करौ दक्षिणा- दान' की हास्यपूर्ण अपील करके उनसे चंदा वसूल करने का ढंगा अख्तियार किया जाता था।

अंत में, मिश्र जी इस प्रकार के मुफ़्तखोर कच्चे हिंदी- प्रेमियों से परेशान हो गये और अपनी गाँठ से खर्च करते करते हार गये। यह नौबत आगई कि शीघ्र ही 'ब्राह्मण' बंद करना पड़ा।

इसके पहले कि 'ब्राह्मण' के साहित्यिक महत्त्व पर विचार किया जाय ज़रा उसके उद्देश्य को प्रतापनारायण जी के ही शब्दों में देखिए। सब से पहले अंक में उन्होंने 'प्रस्तावना" शीर्षक छोटे से लेख में यह लिखा था:-

"••••••कानपुर इतना बड़ा नगर सहस्रावधि मनुष्य की बस्ती (?)। पर नागरी पत्र जो हिंदी-रसिकों को एक मात्र मन बहलाव देशोन्नति का सर्वोत्तम उपाय शिक्षक और सभ्यता-- दर्शक (हो ? ) यहाँ एक भी नहीं। ••••••" सदा अपने यजमानों (ग्राहकों) का कल्याण करना ही हमारा मुख्य कर्म होगा।

••••••हमको निरा ब्राह्मण ही न समझियेगा। जिस तरह सब जहान में कुछ हैं हम भी अपने गुमान में हैं कुछ। हमारी दक्षिणा भी बहुत न्यून है।•••••• हाँ, एक बात रही जाती है। जन्म हमारा फागुन में हुआ है और होली की पैदा-

इश प्रसिद्ध है। कभी कोई हँसी कर बैठे तो क्षमा कीजिएगा।"

'ब्राह्मण' बंद करते समय अपने जजमानों से विदा माँगते समय भी 'अंतिम संभाषण' में उन्होंने 'ब्राह्मण' की साहित्य-सेवा पर अपने विचार प्रकट किये हैं। इस सिंहावलोकन के पहले ये प्रसिद्ध शेर है:--

"दरो दीवार पै हसरत से नज़र करते हैं।
खुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं॥"


आगे वे कहते हैं:---

“यह पत्र अच्छा था या बुरा, अपने कर्तव्य-पालन में योग्य था अथवा अयोग्य, यह कहने का हमें कोई अधिकार नहीं है; पर, हाँ इसमें संदेह नहीं कि हिंदी-पत्रों की गणना में एक संख्या इसके द्वारा भी पूरित थी, और साहित्य को थोड़ा-बहुत सहारा इससे भी मिलता रहता थाॱॱॱॱॱॱ ।"

एवं, पंडित प्रतापनारायण ने केवल साहित्य-चर्चा को उत्तेजित करने के उद्देश्य से 'ब्राह्मण' निकालना शुरू किया था। किंतु उसके द्वारा उस समय की जनता में देश-भक्ति के भाव उत्पन्न करना तथा सामाजिक सुधार की ओर उनका ध्यान आकर्षित करना भी उनका अभीष्ट था। तभी तो 'ब्राह्मण' के पन्ने 'गो-रक्षा', 'स्वदेशी', 'कान्यकुब्ज-कुरीति-निवारण' आदि विषयों से भरे पड़े हैं।

यह होते हुए भी यही मानना पड़ता है कि 'ब्राह्मण' ने साहित्यिक सेवा सब से अधिक की है। उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता यह थी कि अधिकाधिक शिक्षित लोगों की रुचि उर्दू और फारसी से हटा कर हिंदी की ओर आकृष्ट की जाय। ऐसी दशा में एक प्रकार के सुगम साहित्य का होना नितांत आवश्यक था। क्योंकि उसके बिना अंग्रेजीदाँ लोग एकाएक विदग्ध साहित्य की तरफ़ कभी प्रेरित हो ही नहीं सकते थे। 'ब्राह्मण' ने इस सरल किंतु रोचक साहित्य की रचना में कहाँ तक योग दिया, इसका अनुमान करने के लिए उसमें समय समय पर प्रकाशित लेखों के विषय-वैचित्र्य को देखिए।

'किस पर्व में किसकी बनि आती है', 'किस पर्व में किसकी आफत आती है', 'कलि-कोष', 'ककाराष्टक', 'घूरे के लत्ता बिनैं कनातन का डौल बाँधै', 'जन्म सुफल कब होय', 'होली है' आदि उपर्युक्त ढंग के मनबहलाव करने वाले सुबोध निबंध तथा कविताओं के अच्छे नमूने हैं ।

'किस पर्व में किस पर आफत आती है' से एक अवतरण लीजिए:---

"माघ का महीने का महीना कनौजियों का काल है। पानी छूते हाथ-पाँव गलते हैं, पर हमें बिना स्नान किये फल-फलहारी खाना भी धर्म-नाशक है। जल-शूर के मानी चाहे जो हों, पर हमारी समझ में यही आता है कि सूर अर्थात् अंधे बन के, आँखें मूँद कर लोटा-भर पानी डाल लेने वाला जल- शूर है।" कभी कभी सामयिक विषयों पर भी बड़े व्यंग-पूर्ण लेख 'ब्राह्मण' में निकला करते थे। 'मिडिल क्लास', 'इन्कमटैक्स', 'होली है अथवा होरी है', 'पड़े पत्थर समझ पर आपकी समझे तो क्या समझे' इस प्रकार के लेखों में से हैं। इसके सिवाय साधारण विषयों पर मुहावरेदार सीधी-सादी किंतु सजीव भाषा में बहुत से निबंध भी हुआ करते थे। इनमें से उत्तमोत्तम निबंध प्रस्तुत संग्रह में दिये जाते हैं।

इनमें से हम 'भौं', 'बालक', 'सोना', 'युवावस्था', 'द', 'ट', 'परीक्षा', 'मायावादी अवश्य नर्क में जावेंगे', 'नास्तिक', 'शिवमूर्ति', 'समझदार की मौत है', को काफी ऊँचा स्थान देते हैं। हाँ, उनकी भाषा तथा उनके भावों में इतनी प्रौढ़ता नहीं है जितनी कि पंडित बालकृष्ण भट्ट के प्रबंधों में है। फिर भी जिस उद्देश्य को सामने रख कर वे लिखे गये थे उसकी पूर्ति अच्छी तरह से हो गई है। यह उद्देश्य मनोरंजनपूर्ण शिक्षा देना तथा हिंदी की ओर लोगों की अभिरुचि उद्दीप्त करना था।

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