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प्रताप पीयूष/बुढ़ापा-वर्णन ।

विकिस्रोत से
प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र


(२०२)

बुढ़ापा-वर्णन।
हाय बुढ़ापा तोरे मारे
अब तो हम नकन्याय गयन।
करत धरत कछु बनतै नाहीं
कहाँ जान औ कैस करन।
छिन भरि चटक छिनै मां मद्धिम
जस बुझात खन होय दिया।
तैसै निखवख देखि परत हैं
हमरी अक्किल के लच्छन॥१॥
अस कछु उतरि जाति है जीते
बाजी बेरियां बाजी बात।
कैस्यो सुधि ही नाही आवति
मूंडुइ काहे न दै मारन।
कहा चहौ कुछु निकरत कुछ है
जीभ रांड़ का है यह हालु।
कोऊ याकौ बात न समुझै
चाहे बीसन दांय कहन॥२॥
दाढ़ी नाक याक मां मिलिगै
बिन दांतन मुंह अस पोपलान।
दढ़िही पर बहि बहि आवति है
कबौं तमाखू जो फांकन।

( २०३)

बार पाकि गे रीरौ झुकि गै
मूंडौ सासुर हालन लाग।
हाथ पांव कुछु रहे न आपनि
केहिके आगे दुखु र्वावन॥३॥
यही लकुठिया के बूते अब
जस तस डोलित डालित है।
जेहिका लै कै सब कामेन मा
सदा खखारत फिरत रहन।
जियत रहैं महराज सदा जो
-हम ऐस्यन का पालति हैं।
नाहीं तो अब को धौ पूंछै
केहिके कौने काम के हन॥४॥
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सभा-वर्णन।
दिन के दिन सब कोउ जुरि आये, देखवैया औ कारगुजार॥
कोऊ आये हैं बिरिया पर, कोउ कोउ पहरन समै बिताय॥
लगी कचेहरी नुनि लाला की, भरमाभूत लगे दरबार॥
रंग बिरंगे कपड़ा झलकैं, शोभा तिलक त्रिपुंडन क्यार॥
गरे जंजीरैं हैं सोने की, मानौ बंधुवा कलियुग क्यार॥
बाँह अनन्ता कोउ कोउ पहिरे, टड़ियाँ मनौ मेहरियन क्यार॥

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