प्रताप पीयूष/युवावस्था

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प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

[ ६१ ]समझे ? वाह रे आप!


युवावस्था ।

जैसे धरती के भागों में वाटिका सुहावनी होती है, ठीक वैसे ही मनुष्य की अवस्थाओं में यह समय होता है। यदि परमेश्वर की कृपा से धन-बल और विद्या में त्रुटि न हुई तौ तो स्वर्ग ही है, और जो किसी बात की कसर भी हुई तो आवश्य- कता की प्रावल्यता यथासाध्य सब उत्पन्न कर लेती है। कर्तव्या- कर्तव्य का कुछ भी विचार न रखके आवश्यकता-देवी जैसे तैसे थोड़ा बहुत सभी कुछ प्रस्तुत कर देती हैं। यावत् पदार्थों का ज्ञान, रुचि और स्वादु इसी में मिलता है। हम अपने जीवन को स्वार्थी, परोपकारी, भला, बुरा, तुच्छ, महान् जैसा चाहें वैसा इसी में बना सकते हैं। लड़काईं में मानो इसी अवसर के लिए हम तय्यार होते थे, बुढ़ापे में इसी काल की बचत से जीवन-यात्रा होगी। इसी समय के काम हमारे मरने के पीछे नेकनामी और वदनामी का कारण होंगे।

पूर्व-पुरुषों के पदानुसार बाल्यावस्था में भी यद्यपि हम पंडितजी, लालाजी, मुन्शीजी, ठाकुर साहब इत्यादि कहाते हैं, पर वह ख्याति हमें फुसलाने मात्र को है। बुढ़ापे में भी बुढ़ऊ बाबा के सिवा हमारे सब नाम सांप निकल जाने पर लकीर पीटना है। हम जो कुछ हैं, हमारी जो निजता है, हमारी निज
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की जो करतूत है, वह इसी समय है। अतः हमें आवश्यक है कि इस काल की कद्र करने में कभी न चूकें। यदि हम निरे आलसी रहे तो हम युवा नहीं जुवां हैं, अर्थात् एक ऐसे तुच्छ जन्तु हैं कि जहां होंगे वहां केवल मृत्यु के हाथ से जीवन समाप्त करने भर को ! और यदि निरे ग्रह-धंधों में लगे रहे तो भी बैल की भांति जुवा (युवा-काल) ढोया। अपने लिए श्रम ही श्रम है, स्त्री पुत्रादि दस पांच हमारे किसान चाहे भले ही कुछ सुखानुभव करलें।

यदि, ईश्वर बचाए, हम इंद्रियाराम हो गये तो भी, यद्यपि कुछ काल के लिए, हम अपने को सुखी समझेंगे, कुछ लोग अपने मतलब को हमारी प्रशंसा और प्रीति भी करेंगे, पर थोड़े ही दिन में उस सुख का लेश भी न रहेगा, उलटा पश्चात्ताप गले पड़ेगा, बरंच तृष्णा-पिशाची अपनी निराशा नामक सहोदरा के साथ हमारे जीवन को दुःखमय कर देगी। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य यह षड्वर्ग यद्यपि और अवस्थाओं में भी रहते ही हैं, पर इन दिनों पूर्ण बल को प्राप्त हो के आत्म-मन्दिर में परस्पर ही युद्ध मचाए रहते हैं, बरंच कभी २ कोई एक ऐसा प्रबल हो उठता है कि अन्य पांच को दबा देता है, और मनुष्य को तो पांच में से जो बढ़ता है वही पागल बना देता है। इसी से कोई २ बुद्धिमान कह गए हैं कि इनको बिल्कुल दबाए रहना चाहिए, पर हमारी समझ में यह असम्भव न हो तो महा कठिन, बरंच हानिजनक तो है ही। [ ६३ ]काम शरीर का राजा है, यह सभी मानते हैं, और क्रोधादि पांचो उसके भाई वा सेनापति हैं। यदि यह न होने के बराबर हों तो मानो हृदय, नगर, अथवा जीवन, देश ही कुछ न रहा। किसी राजवर्ग के सर्वथा वशीभूत होके रहना गुलाम का काम है वैसे ही राज-पारिषद का नाश कर देने की चेष्टा करना भी मूर्ख, अदूरदर्शी अथवा आततायी का काम है। सच्चा-बुद्धिमान, वास्तविक वीर वा पुरुषरत्न हम उसको कहेंगे जो इन छहों को पूरे बल में रखके इनसे अपने अनुकूल काम ले। यदि किसी ने बलनाशक औषधि आदि के सेवन से पुरुषार्थ का और "ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" का दृढ़ विश्वास कर के कामनाओं का नाश कर दिया, और यावत् सांसारिक सम्बन्ध छोड़ के सब से अलग हो रहा तो कदाचित् षड्वर्ग का उसमें अभाव हो जाय; -यद्यपि संभव नहीं है-पर उसका जीवन मनुष्य-जीवन नहीं है।

धन्य जन वे हैं जो काम-शक्ति को अपनी स्त्री के पूर्ण सुख देने और बलिष्ठ संतान के उत्पन्न करने के लिए रक्षण और वर्धन करने में लगावें, कामना अर्थात् प्रगाढ़ इच्छा प्रेममय परमात्मा के भजन और देश-हित की रक्खें, क्रोध का पूर्ण प्राबल्य अपने अथच देश-भाइयों के दुःख अथच दुर्गुण पर लगा दें, (अर्थात् उन्हें कच्चा खा जाने की नियत रक्खें ) लोभ सद्विद्या और सद्गुण का रक्खें, मोह अपने देश, अपनी भाषा और अपनेपन का करें। जान जाय पर इन्हें न जाने दें। अपने आर्यत्व, अपने पूर्वजों के यश का पूर्ण मद (अहंकार) रक्खें। [ ६४ ]
इसके आगे संसार को तुच्छ समझे, दूसरे देशवालों में चाहे जैसे उत्कृष्ट गुण हों उनको कुछ न गिनके अपने में ऐसे गुण संचय करने का प्रयत्न करें कि दूसरों के गुण मंद पड़ जायँ। मात्सर्य का ठीक २ बर्ताव यह है। जो ऐसा हो जाय वही सच्चा युवक, सच्चा जवान और सच्चा जवांमर्द है। उसी की युवावस्था सफल है। पाठक तुम यदि बालक वा वृद्ध न हो तो सच्चा जवान बनने का शीघ्र उद्योग करो।


भौं ।

निश्चय है कि इस शब्द का रूप देखते ही हमारे प्यारे पाठकगण निरर्थक शब्द समझेंगे, अथवा कुछ और ध्यान देंगे तो यह समझेंगे कि कार्तिक का मास है, चारो ओर कुत्ते तथा जुवारी भौं भौं भौंकते फिरते हैं, सम्पादकी की सनक में शीघ्रता के मारे कोई और विषय न सूझा तो यही “भौं' अर्थात भूकने के शब्द को लिख मारा ! पर बात ऐसी नहीं है। हम अपने वाचकवृंद को इस एक अक्षर में कुछ और दिखाया चाहते हैं। महाशय ! दर्पण हाथ में लेके देखिये, आंखों की पलकों के ऊपर श्याम-वर्ण-विशिष्ट कुछ लोम हैं। बरुनी न समझिएगा, माथे के तले और पलकों के ऊपरवाले रोम-समूह। जिनको अपनी हिन्दी में हम भौं, भौंह, भौंहैं कहते हैं, संस्कृत के पंडित भ्र बोलते हैं। फ़ारसवाले अबरू और अंगरेज़ लोग 'आइब्रो' कहते हैं,

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