प्रताप पीयूष/साहित्यिक निबंध

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[ ५३ ]ले भला बतलाइए तो आप क्या हैं ? आप कहते होंगे वाह आप तो आपही हैं। यह कहां की आपदा आई ? यह भी कोई पूछने का ढंग है ? पूछा होता कि आप कौन हैं तो बतला देते कि हम आपके पत्र के पाठक हैं और आप ब्राह्मण-संपादक हैं, अथवा आप पंडितजी हैं, आप राजाजी हैं, आप सेठजी हैं, आप लालाजी हैं, आप बाबू साहब हैं, आप मियां साहब, आप निरे साहब हैं । आप क्या हैं ? यह तो कोई प्रश्न की रीति ही नहीं है । वाचक महाशय ! यह हम भी जानते हैं कि आप आप ही हैं, और हम भी वही हैं, तथा इन साहबों की भी लंबी धोती, चमकीली पोशाक, खुटिहई अंगरखी ( मीरजई), सीधी मांग, विलायती चाल, लम्बी दाढ़ी और साहबानी हवस ही कहे देती है कि---

"किस रोग की हैं आप दवा कुछ न पूछिए,"

अच्छा साहब, फिर हमने पूछा तो क्यों पूछा ? इसी लिए कि देखें आप “आप” का ज्ञान रखते हैं वा नहीं ? जिस 'आप' को आप अपने लिए तथा औरों के प्रति दिन रात मुंह पर धरे रहते हैं, वह आप क्या है ? इसके उत्तर में आप कहिएगा कि एक सर्वनाम है। जैसे मैं, तू, हम, तुम, यह, वह आदि हैं वैसे ही आप भी है, और क्या है। पर इतना कह देने से न हमीं
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संतुष्ट होंगे न आपही के शब्दशास्त्र ज्ञान का परिचय होगा, इससे अच्छे प्रकार कहिए कि जैसे 'मैं' का शब्द अपनी नम्रता दिखलाने के लिए बिल्ली की बोली का अनुकरण है, 'तू' का शब्द मध्यम पुरुष की तुच्छता व प्रीति सूचित करने के अर्थ कुत्ते के सम्बोधन की नक़ल है । हम तुम संस्कृत के अहं त्वं का अपभ्रंश हैं, यह वह निकट और दूर की वस्तु वा व्यक्ति के द्योतनार्थ स्वाभाविक उच्चारण हैं, वैसे 'आप' क्या है ? किस भाषा के किस शब्द का शुद्ध वा अशुद्ध रूप है, और आदर ही में बहुधा क्यों प्रयुक्त होता है ?

हुजूर की मुलाज़मत से अक्ल ने इस्तेअफ़ा दे दिया हो तो दूसरी बात है, नहीं तो आप यह कभी न कह सकेंगे कि “आप लफ़जे फ़ारसी या अरबीस्त," अथवा "ओः इटिज़ एन इंगलिश वर्ड," जब यह नहीं है तो खाहमखाह यह हिंदी शब्द है, पर कुछ सिर पैर मूड़ गोड़ भी है कि योंहीं ? आप छूटते ही सोच सकते हैं कि संस्कृत में आप कहते हैं जल को, और शास्त्रों में लिखा है कि विधाता ने सृष्टि के आदि में उसी को बनाया था, यथा-'अप-एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत,' तथा हिन्दी में पानी और फारसी में आब का अर्थ शोभा अथच प्रतिष्ठा आदि हुवा करता है, जैसे “पानी उतरि गा तरवारिन को उइ करछुलि के मोल विकायं", तथा “पानी उतरिगा रजपूती का उइ फिर विसुऔते (वेश्या से भी) बहि जांय,” और फारसी में 'आबरू खाक में मिला बैठे' इत्यादि। [ ५५ ]इस प्रकार पानी की ज्येष्ठता और श्रेष्टता का विचार करके लोग पुरुषों को भी उसी के नाम से आप पुकारने लगे होंगे । यह आपका समझना निरर्थक तो न होगा, बड़प्पन और आदर का अर्थ अवश्य निकल आवैगा, पर खींचखांच कर, और साथ ही यह शंका भी कोई कर बैठे तो अयोग्य न होगी कि पानी के जल, वारि, अम्बु, नीर, तोय इत्यादि और भी तो कई नाम हैं उनका प्रयोग क्यों नहीं करते, "आप" ही के सुर्ख़ाब का पर कहाँ लगा है ? अथवा पानी की सृष्टि सबके आदि में होने के कारण वृद्ध ही लोगों को उसके नाम से पुकारिए तो युक्तियुक्त हो सकता है, पर आप तो अवस्था में छोटों को भी आप आप कहा करते हैं, यह आपकी कौन सी विज्ञता है ? या हम यों भी कह सकते हैं कि पानी में गुण चाहे जितने हों, पर गति उसकी नीच ही होती है। तो क्या आप हमको मुंह से आप आप करके अधोगामी बनाया चाहते हैं ? हमें निश्चय है कि आप पानीदार होंगे तो इस बात के उठते ही पानी पानी हो जायंगे, और फिर कभी यह शब्द मुंह पर भी न लावेंगे।

सहृदय सुहृद्गण आपस में आप आप की बोली बोलते भी नहीं हैं। एक हमारे उर्दूदां मुलाकाती मौखिक मित्र बनने की अभिलाषा से आते जाते थे, पर जब ऊपरी व्यवहार मित्रता का सा देखा तो हमने उनसे कहा कि बाहरी लोगों के सामने की बात न्यारी है, अकेले में अथवा अपनायतवालों के आगे आप आप न किया करो, इसमें भिन्नता की भिनभिनाहट पाई जाती
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है। पर वह इस बात को न माने, हमने दो चार बार समझाया, पर वह 'आप' थे, क्यों मानने लगे ? इस पर हमें झुंझलाहट छूटी तो एक दिन उनके आते ही और 'आप' का शब्द मुंह पर लाते ही हमने कह दिया कि आपकी ऐसी तैसी ? यह क्या बात है कि तुम मित्र बनकर हमारा कहना नहीं मानते ? प्यार के साथ तू कहने में जितना स्वादु आता है उतना बनावट से आप सांप कहो तो कभी सपने में नहीं आने का। इस उपदेश को वह मान गये। सच तो यह है कि प्रेम-शास्त्र में, कोई बंधन न होने पर भी, इस शब्द का प्रयोग बहुत ही कम, बरंच नहीं के बराबर होता है।

हिन्दी की कविता में हमने दो ही कवित्त इससे युक्त पाए हैं, एक तो 'आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिये', पर यह न तो किसी प्रतिष्ठित ग्रन्थ का है, और न इसका आशय स्नेह-सम्बद्ध है। किसी जले भुने कवि ने कह मारा हो तो यह कोई नहीं कह सकता कि कविता में भी “आप” की पूछ है। दूसरी घनानन्द जी की यह सबैया है-"आपही तौ मन हेरि हरयो तिरछे करि नैनन नेह के चाव में" इत्यादि । पर यह भी निराशा-पूर्ण उपालम्भ है, इससे हमारा यह कथन कोई खंडन नहीं कर सकता कि प्रेम-समाज में “आप” का आदर नहीं है, तू ही प्यारा है।

संस्कृत और फारसी के कवि भी त्वं और तू के आगे भवान् और शुमा (तू का बहुवचन) का बहुत आदर नहीं
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करते। पर इससे आपको क्या मतलब ? आप अपनी हिन्दी के 'आप' का पता लगाइये, और न लगै तो हम बतला देंगे। संस्कृत में एक प्राप्त शब्द है, जो सर्वथा माननीय ही अर्थ में आता है, यहां तक कि न्यायशास्त्र में प्रमाण-चतुष्टय (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शाब्द ) के अन्तर्गत शाब्द प्रमाण का लक्षण ही यह लिखा है कि 'आप्तोपदेशः शब्दः' अर्थात् आप्त पुरुष का वचन प्रत्यक्षादि प्रमाणों के समान ही प्रामाणिक होता है, वा यों समझ लो कि प्राप्त जन प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान प्रमाण से सर्वथा प्रमाणित ही विषय को शब्द-बद्ध करते हैं। इससे जान पड़ता है कि जो सब प्रकार की विद्या, बुद्धि, सत्य-भाषणादि सद्गुणों से संयुक्त हो वह आप्त है, और देवनागरी भाषा में प्राप्त शब्द सब के उच्चारण में सहजतया नहीं आ सकता, इससे उसे सरल करके आप बना लिया गया है, और मध्यम पुरुष तथा अन्य पुरुष के अत्यन्त आदर का द्योतन करने में काम आता है। 'तुम बहुत अच्छे मनुष्य हो' और 'यह बड़े सज्जन हैं'-ऐसा कहने से सच्चे मित्र बनावट के शत्रु चाहे जैसे “पुलक प्रफुल्लित पूरित गाता” हो जायँ, पर व्यवहार-कुशल लोकाचारी पुरुष तभी अपना उचित सन्मान समझेंगे जब कहा जाय कि “आपका क्या कहना है, आप तो बस सभी बातों में एक ही हैं" इत्यादि।

अब तो आप समझ गए होंगे कि आप कहां के हैं, कौन हैं, कैसे हैं, यदि इतने बड़े बात के बतंगड़ से भी न समझे
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हों तो इस छोटे से कथन में हम क्या समझा सकेंगे कि 'आप' संस्कृत के आप्त शब्द का हिन्दी रूपान्तर है, और माननीय अर्थ का सूचनार्थ उन लोगों (अथवा एक ही व्यक्ति) के प्रति प्रयोग में लाया जाता है जो सामने विद्यमान हों, चाहे बातें करते हों, चाहे बात करनेवालों के द्वारा पूछे बताए जा रहे हों, अथवा दो वा अधिक जनों में जिनकी चर्चा हो रही हो। कभी कभी उत्तम पुरुष के द्वारा भी इसका प्रयोग होता है, वहां भी शब्द और अर्थ वही रहता है; पर विशेषता यह रहती है कि एक तो सब कोई अपने मन से आपको (अपने तई) आपही (आप्त ही) समझता है, और विचार कर देखिए तो आत्मा और परमात्मा की अभिन्नता या तद्रूपता कहीं लेने भी नहीं जाने पड़ती, पर वाह्य व्यवहार में अपने को आप कहने से यदि अहंकार की गंध समझिए तो यों समझ लीजिए कि जो काम अपने हाथ से किया जाता है, और जो बात अपनी समझ स्वीकार कर लेती है उसमें पूर्ण निश्चय अवश्य ही हो जाता है, और उसी के विदित करने को हम और आप तथा यह एवं वे कहते हैं कि 'हम आप कर लेगें' अर्थात् कोई संदेह नहीं है कि हमसे यह कार्य सम्पादित हो जायगा, 'हम आप जानते हैं', अर्थात् दूसरे के बतलाने की आवश्यकता नहीं है, इत्यादि।

महाराष्ट्रीय भाषा के आपाजी भी उन्नीस विस्वा आप्त और आर्य के मिलने से इस रूप में हो गए हैं, तथा कोई माने या न माने, पर हम मना सकने का साहस रखते हैं कि अरबी के
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अब्ब (पिता बोलने में अब्बा) और यूरोपीय भाषाओं के पापा (पिता) पोप (धर्म-पिता) आदि भी इसी आप से निकले हैं। हाँ, इसके समझने समझाने में भी जी ऊबे तो अंग-रेज़ी के एबाट ( Abot महंत ) तो इसके हई हैं, क्योंकि उस बोली में हृस्व और दीर्घ दोनों प्रकार का स्थानापन्न A है, और "पकार" को "बकार" से बदल लेना कई भाषाओं की चाल है। रही टी (t) सो वह तो "तकार" हई है। फिर क्या न मान लीजिएगा कि एबाट साहब हमारे 'आप' बरंच शुद्ध प्राप्त से बने हैं।

हमारे प्रान्त में बहुत से उच्च वंश के बालक भी अपने पिता को अप्पा कहते हैं, उसे कोई २ लोग समझते हैं कि मुसलमानों के सहवास का फल है, पर यह उनकी समझ ठीक नहीं है, मुसलमान भाइयों के लड़के कहते हैं अब्बा, और हिन्दू-सन्तान के पक्ष में 'बकार' का उच्चारण तनिक भी कठिन नहीं होता, यह अंगरेज़ों की तकार और फ़ारस वालों की टकार नहीं है कि मुहीं से न निकले, और सदा मोती का मोटी अर्थात् स्थूलांगा स्त्री और खस की टट्टी का तत्ती अर्थात् गरम ही हो जाय। फिर अब्बा को अप्पा कहना किस नियम से होगा! हां, आप्त से आप और अप्पा तथा आपा की सृष्टि हुई है, उसी को अरबवालों ने अब्बा में रूपांतरित कर लिया होगा, क्योंकि उनकी वर्णमाला में "पकार” (पे) नहीं होती। सौ बिस्वा बप्पा, बाप, बापू, बब्बा, बाबा, बाबू आदि भी इसी से निकले
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हैं, क्योंकि जैसे एशिया की कई बोलियों में 'पकार' को 'बकार' व 'फ़कार' से बदल देते हैं, जैसे पादशाह-बादशाह पारसी- फ़ारसी आदि, वैसे ही कई भाषाओं में शब्द के आदि में 'बकार' भी मिला देते हैं, जैसे वक्ते शब-बवक्ते शब तथा तंगबामद-बतंगआमद इत्यादि, और शब्द के आदि की ह्र स्व अकार का लोप भी हो जाता है जैसे अमावस का मावस, (सतसई आदि ग्रंथों में देखो) ह्र स्व अकारांत शब्दों में अकार के बदले ह्र स्व वा दीर्घ उकार भी हो जाती है, जैसे एक-एकु, स्वाद-स्वादु आदि। अथच ह्र स्व को दीर्घ, दीर्घ को ह्र स्व अ, इ, उ, आदि की वृद्धि वा लोप भी हुवा ही करता है, फिर हम क्यों न कहें कि जिन शब्दों में अकार और पकार का संपर्क हो, एवं अर्थ से श्रेष्ठता की ध्वनि निकलती हो वह प्रायः समस्त संसार के शब्द हमारे प्राप्त महाशय वा आप ही के उलट फेर से बने हैं।

अब तो आप समझ गये न, कि आप क्या हैं ? अब भी न समझो तो हम नहीं कह सकते कि आप समझदारी के कौन हैं ! हां, आप ही को उचित होगा कि दमड़ी छदाम की समझ किसी पंसारी के यहां से मोल ले आइए, फिर आप ही समझने लगियेगा कि आप "को हैं ? कहां के हैं ? कौन के हैं ?" यदि यह भी न हो सके, और लेख पढ़ के आपे से बाहर हो जाइए तो हमारा क्या अपराध है ? हम केवल जी में कह लेंगे "शाव! आप न समझो तो आपां को के पड़ी छै ।" ऐं! अब भी नहीं
[ ६१ ]समझे ? वाह रे आप!


युवावस्था ।

जैसे धरती के भागों में वाटिका सुहावनी होती है, ठीक वैसे ही मनुष्य की अवस्थाओं में यह समय होता है। यदि परमेश्वर की कृपा से धन-बल और विद्या में त्रुटि न हुई तौ तो स्वर्ग ही है, और जो किसी बात की कसर भी हुई तो आवश्य- कता की प्रावल्यता यथासाध्य सब उत्पन्न कर लेती है। कर्तव्या- कर्तव्य का कुछ भी विचार न रखके आवश्यकता-देवी जैसे तैसे थोड़ा बहुत सभी कुछ प्रस्तुत कर देती हैं। यावत् पदार्थों का ज्ञान, रुचि और स्वादु इसी में मिलता है। हम अपने जीवन को स्वार्थी, परोपकारी, भला, बुरा, तुच्छ, महान् जैसा चाहें वैसा इसी में बना सकते हैं। लड़काईं में मानो इसी अवसर के लिए हम तय्यार होते थे, बुढ़ापे में इसी काल की बचत से जीवन-यात्रा होगी। इसी समय के काम हमारे मरने के पीछे नेकनामी और वदनामी का कारण होंगे।

पूर्व-पुरुषों के पदानुसार बाल्यावस्था में भी यद्यपि हम पंडितजी, लालाजी, मुन्शीजी, ठाकुर साहब इत्यादि कहाते हैं, पर वह ख्याति हमें फुसलाने मात्र को है। बुढ़ापे में भी बुढ़ऊ बाबा के सिवा हमारे सब नाम सांप निकल जाने पर लकीर पीटना है। हम जो कुछ हैं, हमारी जो निजता है, हमारी निज

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