प्रताप पीयूष/लावनियाँ।

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(२०४)

घड़ी अंगरखन मां कोउ खोंसे, टिहुना छड़ी धरे कोउ ज्वान॥
भरि भरि चुटका सुंघनी सूघैं, कोउ. कोउ चर चर चाबैं पान॥
बड़े बड़े पंडित धरम सभा के, बड़े बड़े पूत महाजन क्यार॥
बड़े बड़े चेला दयानन्द के, जिन घर वेदन के अधिकार॥
आइके बैठे जेहि छन सगरे, औ सब करैं लाग सल्लाह॥
मैं तुम तन तुम मोहिं तन चितवैं, ना मुहँ खुलै न सूझै राह॥
कुरसी के संग कुरसी रगरैं, टेबिलैं रगरि रगरि रह जांय॥
बड़े बड़े जोधा तंह बैठे हैं, टिहुना धरे नगिन तरवारि॥
बिछे गलीचा ई मजलिस मा, खोपरी पाउँइ धरत बिलाय॥
फट फट फट कोउ बोतल खोले, कट कट कट कोउ हाड़ चबाय॥
खाये अफीमन के कोउ गोटा, आंखी उघरैं औ रहि जाय॥
ददकैं चिलमैं रे गांजन की, मानौ बनमां लागि दवारि॥
तबला ठनकै लखनौहन को, बँगला में होय परिन का नाचु॥
मटकै मुन्शी उइ मँगचिरवा, मेहरि मन्सु परै ना जानि॥
कपड़ा पहिरे चुतरकटा उइ, नकलैं करै कलेजिहा भांड़॥
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लावनियाँ।
दीदारी दुनियादारी सब नाहक का उलझेडा़ है।
सिवा इश्क के, जहां जो कुछ है निरा बखेड़ा है॥


यह पण्डित प्रतापनारायण की वर्णन-सजीवता का अच्छा नमूना है। [ २१६ ]

(२०५)

दुनिया क्या शै है ? क्यों है ? क्या इसका अव्वल ओ आखिर है ?
बाद मौत के कहां जाना है, क्या होना फिर है ?
इन बातों का ठीक हाल नहिं हुआ किसी को जाहिर है ।
झूठी बकबक मचाता हर मोमिन औ क़ाफ़िर है ।।
इन झगड़ों को कहिये तो ? कब, किसने, कहां निबेड़ा है ॥१॥
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निज प्रेममयी मदिरा से मुझे छकाओ ।
अपनी शोभा पर मेरा चित्त लुभाओ।।
सब विषय वासना की तुच्छता दिखाओ ।
मैं मैं मेरा मुझसे छुड़वाओ ।।
अपने प्रताप को सब प्रकार अपनाओ।
मुझको प्रभु अपना सच्चा दास बनाओ ॥२॥
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रसहू अनरस में एक सरिस रस राखै ।
सोइ सरस हृदय बस प्रेम-सुधा-रस चाखै ।।
चितते बिसरावै चिन्ता दुहु लोकन की ।
सब शंक तजै निज जीवन और मरन की।।
समुझे इकही सी प्रीति बैर जगजन की ।
मन भावन मैं सब करै भावना मन की।।
भोरे भावन हू और न कछु अभिलाखै ॥३॥
['मन की लहर' से]
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