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प्रताप पीयूष/समस्या पूर्ति ।

विकिस्रोत से
प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

( २०६)

समस्या पूर्ति ।
(पपिहा जब पूंछिहै पीव कहाँ)
बन बैठी है मान की मूरति सी
मुख खोलति बोलै न नाहि न हाँ।
तुमही मनुहारि कै हारि परे
सखियान की कौन चलाई कहाँ।
बरखा है प्रताप जू धीर धरो
अब लों मन को समुझायो जहाँ ।
वह ब्यारि तबै बदलैगी कछू
पपिहा जब पूंछिहै पीव कहाँ ॥१॥
(बीर बली धुरवा घमकावैं)
बूड़ि मरैं न समुद्र में हाय
ये नाहक हाथ निछीछे डुबावैं ।
का तजि लाजि गराज किये
मुख कारो लिये इत ही उतधावैं।
नारि दुखारिन पै बज मारे
वृथा बुंदियान के बान चलावैं ।
बीर हैं तौ बल बीरहि जाय कै
बीर बली धुरवा घमकावैं ॥२॥
(बजनी घुघुरू रजनी उजियारी)
आसव छाकि खुली छति पै

(२०७)

खुलि खेलति जोवन की मतवारी।
गात ही गात अदा ही अदा
कढै़ बात ही बात सुधा सुखकारी।
रंग रचै रस राग अलापि
नचै परताप गरे भुज डारी ।
ताछिन छावै अजीब मजा
बजनी घुघुरू रजनी उजियारी ॥३॥
(देह धरे को यहै फल भाई)
नैनन में बसै सांवरो रूप
रहै मुख नाम सदा सुखदाई ।
त्यों श्रुति में ब्रज केलिकथा
परिपूरण प्रेम प्रताप बड़ाई ।
कोऊ कछू कहै होय कहूँ कछु
पै जिय में परवाहि न लाई ।
नेह निभै नंदनन्दन सों नर-
देह धरे को यहै फल भाई ॥४॥
(धुरवान की धावन सावन में)
सिर चोटी गंधावती फूलन सों
मेहंदी रचि हाथन पावन में।
परताप त्यों चूनरी सूही सजी
मन मोहती हावन भावन में।
निस द्यौस बितावती पीतम के संग

(२०८)

भूलन में औ भूलावन में।
उनहीं को सुहावनो लागत है
धुरवान की धावन सावन में ॥५॥
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तृप्यन्ताम् ।
'तृप्यन्ताम्' शीर्षक कविता के थोड़े से अंश यहां दिये
जाते हैं। इस कविता में भारत की आर्थिक तथा सामाजिक
दुर्दशा का हृदय-ग्राही चित्र खींचा गया है। देवताओं से प्रार्थना
की गई है कि ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में जब अपना पेट पालना
मुश्किल हो रहा है तो उन्हें सन्तुष्ट करना मुश्किल है।

(आदर के लिए एकवचन के स्थान पर भी बहुवचन का प्रयोग होता है । अतः छंद बदलना निष्प्रयोजनीय समझा है।)
(१)
केहि विधि वैदिक कर्म होत कब कहाँ बखानत रिक यजु साम ।
हम सपने हू में नहिं जानैं रहैं पेट के बने गुलाम ।।
तुमहिं लजावत जगत जनम धरि दुहु लोकन में निपट निकाम ।
कहैं कौन मुख लाय हाय फिर ब्रह्मा बाबा तृप्यन्ताम ।।
(२)
तुमहिं रमापति वेद बतावत हम कहं दारिद गनै गुलाम ।
तुम बैकुंठ विहारी हौ प्रभु हम सब करें नरक के काम ॥
तुम कहं प्यारी लगै भक्ति, हम कहं स्वारथ प्रिय आठौ याम ।

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