प्रताप पीयूष/शिव मूर्ति।

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न्यायशील सहृदय लोग अपना विचार आप प्रगट कर चुके हैं और करेंगे । पर हाँ इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी पत्रों की गणना में एक संख्या इसके द्वारा भी पूरित थी और साहित्य (लिटरेचर) को थोड़ा बहुत सहारा इससे भी मिला रहता था। इसी से हमारी इच्छा थी कि यदि खर्च भर भी निकलता रहे अथवा अपनी सामर्थ्य के भीतर कुछ गाँठ से भी निकल जाय तो भी इसे निकाले जायंगे। किन्तु जब इतने दिन में, देख लिया कि इतने बड़े देश में हमारे लिये सौ ग्राहक मिलना भी कठिन है । यों सामर्थ्यवानों और देशहितैषियों की कमी नहीं है। पर वर्ष भर में एक रुपया दे सकने वाले हमें सौ भी मिल जाते अथवा अपने इष्ट मित्रों में दस दस पांच पांच कापी बिकवा देने वाले दस पन्द्रह सज्जन भी होते तो हमें छः वर्ष में साढ़े पांच सौ की हानि क्यों सहनी पड़ती, जिसके लिये साल भर तक काले काँकर में स्वभाव विरुद्ध बनवास करना पड़ा। यह हानि और कष्ट हम बड़ी प्रसन्नता से अंगीकार किये रहते यदि देखते कि हमारे परिश्रम को देखने वाले और हमारे विचारों पर ध्यान देने वाले दस बीस सद् व्यक्ति भी हैं। पर जब वह भी आशा न हो तो इतनी मुड़धुन क्यों कर सही जा सकती ?


शिव मूर्ति।

हमारे ग्रामदेव भगवान भूतनाथ सब प्रकार से अकथ्य
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अप्रतर्य एवं अचिन्त्य हैं । तौ भी उनके भक्त जन अपनी रुचि के अनुसार उनका रूप, गुण, स्वभाव कल्पित कर लेते हैं। उनकी सभी बातें सत्य हैं, अतः उनके विषय में जो कुछ कहा जाय सब सत्य है । मनुष्य की भांति वे नाड़ी आदि बंधन से बद्ध नहीं हैं। इससे हम उनको निराकार कह सकते हैं और प्रेम दृष्टि से अपने हृदय मन्दिर में उनका दर्शन करके साकार भी कह सकते हैं। यथा-तथ्य वर्णन उनका कोई नहीं कर सकता। तौ भी जितना जो कुछ अभी तक कहा गया है और आगे कहा जावेगा सब शास्त्रार्थ के आगे निरी बकबक है और विश्वास के आगे मनः शांति कारक सत्य है !!! महात्मा कबीर ने इस विषय में कहा है वह निहायत सच है कि जैसे कई अंधों के आगे हाथीं आवै और कोई उसका नाम बतादे, तो सब उसे टटोलेंगे। यह तो संभव ही नहीं है कि मनुष्य के बालक की भांति उसे गोद में ले के सब कोई अवयव का ठीक २ बोध कर ले । केवल एक अँग टटोल सकते हैं और दाँत टटोलने वाला हाथी को खूटी के समान, कान छूने वाला सूप के समान, पांव स्पर्श करने वाला खंभे के समान कहेगा, यद्यपि हाथी न खूटे के समान है न खंभे के। पर कहने वालों की बात झूठी भी नहीं है। उसने भली भांति निश्चय किया है और वास्तव में हाथी का एक एक अंग वैसा ही है जैसा वे कहते हैं। ठीक यही हाल ईश्वर के विषय में हमारी बुद्धि का है । हम पूरा पूरा वर्णन वा पूरा साक्षात करलें तो वह अनंत कैसे और यदि निरा
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अनन्त मान के अपने मन और वचन को उनकी ओर से बिल्कुल फेर लें तौ हम आस्तिक कैसे ! सिद्धान्त यह कि हमारी बुद्धि जहां तक है वहां तक उनकी स्तुति-प्रार्थना, ध्यान, उपासना कर सकते हैं और इसी से हम शांति लाभ करेंगे!

उनके साथ जिस प्रकार का जितना सम्बन्ध हम रख सकें उतना ही हमारा मन बुद्धि शरीर संसार परमारथ के लिये मंगल है। जो लोग केवला जगत के दिखाने को वा सामाजिक नियम निभाने को इस विषय में कुछ करते हैं उनसे तो हमारी यही विनय है कि व्यर्थ समय न बितावैं। जितनी देर पूजा पाठ करते हैं, जितनी देर माला सरकाते हैं उतनी देर कमाने-खाने, पढ़ने-गुनने में ध्यान दें तो भला है! और जो केवल शास्त्रार्थी आस्तिक हैं वे भी व्यर्थ ईश्वर को अपना पिता बना के निज माता को कलंक लगाते हैं। माता कहके बिचारे जनक को दोषी ठहराते हैं, साकार कल्पना करके व्यापकता का और निराकार कह के अस्तित्व का लोप करते हैं। हमारा यह लेख केवल उनके विनोदार्थ है जो अपनी विचार शक्ति को काम में लाते हैं और ईश्वर के साथ जीवित सम्बन्ध रख के हृदय में आनन्द पाते हैं, तथा आप लाभकारक बातों को समझ के दूसरों को समझाते हैं! प्रिय पाठक उसकी सभी बातें अनन्त हैं। तौ मूर्तियां भी अनन्त प्रकार से बन सक्ती हैं और एक एक स्वरूप में अनन्त उपदेश प्राप्त हो सकते हैं। पर हमारी बुद्धि अनन्त

नहीं है, इससे कुछ एक प्रकार की मूर्तियों का कुछ २ अर्थ [ १४८ ]

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लिखते हैं।

मूर्ति बहुधा पाषाण की होती है जिसका प्रयोजन यह है कि उनसे हमारा दृढ़ सम्बन्ध है । दृढ़ वस्तुओं की उपमा पाषाण से दी जाती है। हमारे विश्वास की नींव पत्थर पर है। हमारा धर्म पत्थर का है। ऐसा नहीं कि सहज में और का और हो जाय । इसमें बड़ा सुभीता यह भी है कि एक बार बनवा के रख ली, कई पीढ़ी को छुट्टी हुई। चाहे जैसे असावधान पूजक आवैं कोई हानि नहीं हो सकती है। धातु की मूर्ति से यह अर्थ है कि हमारा स्वामी दवण शील अर्थात् दयामय है। जहां हमारे हृदय में प्रेमाग्नि धधकी वहीं हमारा प्रभु हम पर पिघल उठा। यदि हम सच्चे तदीय हैं तो वह हमारी दशा के अनुसार बतेंगे। यह नहीं कि उन्हें अपना नियम पालने से काम । हम चाहें मरें चाहें जियें। रत्नमयी मूर्ति से यह भाव है कि हमारा ईश्वरीय सम्बन्ध अमूल्य है । जैसे पन्ना पुख- राज की मूर्ति विना एक गृहस्थी भर का धन लगाये नहीं हाथ आती । यह बड़े ही अमीर का साध्य है। वैसे ही प्रेममय परमात्मा भी हमको तभी मिलेंगे जब हम अपने ज्ञान का अभिमान खो दें। यह भी बड़े ही मनुष्य का काम है ! मृत्तिका की मूर्ति का यह अर्थ है कि उनकी सेवा हम सब ठौर कर सकते हैं। जैसे मिट्टी और जल का अभाव कहीं नहीं है, वैसे ही ईश्वर का वियोग कहीं नहीं है। धन और गुण

का ईश्वर प्राप्ति में कुछ काम नहीं। वह निरधन के धन हैं । [ १४९ ]

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'हुनर मन्दों से पूछे जाते हैं बाबे हुनर पहिले'। या यों समझ लो कि सब पदार्थ आदि और अन्त में ईश्वर से उत्पन्न हैं, ईश्वर ही में लय होते हैं इस बात से दृष्टान्त मट्टी से खूब घटता है। गोबर की मूर्ति यह सिखाती है कि ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है हृदय मन्दिर की कुवासना रूपी दुरगंध को हरता है। पारे की मूर्ति में यह भाव है कि प्रेमदेव हमारे पुष्टि कारक 'सुगन्धं पुष्टि वद्धनं' यह मूर्ति बनाने वा बनवाने की सामर्थ्य न हो तो पृथ्वी और जल आदि अष्ठ मूर्ति बनी बनाई पूजा के लिये विद्यमान हैं।

वास्तविक प्रेम-मूर्ति मनोमन्दिर में विराजमान है। पर यह दृश्य मूर्तियां भी निरर्थक नहीं हैं इनके कल्पनाकारी मूर्ति निन्दकों से अधिक पढ़े लिखे थे। मूर्तियों के रंग भी यद्यपि अनेक होते हैं पर मुख्य रंग तीन हैं । श्वेत जिसका अर्थ यह है कि पर-मात्मा शुद्ध है, स्वच्छ है, उसकी किसी बात में किसी का कुछ मेल नहीं है। पर सभी उसके ऐसे आश्रित हो सकते हैं जैसे उजले रंग पर सब रंग। वह त्रिगुणतीत तो हुई, पर त्रिगुणा- लय भी उसके बिना कोई नहीं। यदि हम सतोगुणमय भी कहें तो बेअदबी नहीं करते ! दूसरा लाल रंग है जो रजोगुण का वर्ण है। ऐसा कौन कह सकता है कि यह संसार भर का ऐश्वर्य किसी और का है । और लीजिये कविता के आचार्यों ने अनुराग का रंग लाल कहा है। फिर अनुराग देव का रंग और क्या होगा?

तीसरा रंग काला है । उसका भाव सब सोच सकते हैं कि सबसे
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'पक्का यही रंग है, इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता। ऐसेही प्रेमदेव सब से अधिक पक्के हैं उन पर और का रंग क्या चढ़ेगा ? इसके सिवा वाह्य जगत के प्रकाशक नैन हैं। उनकी पुतली काली होती है, भीतर का प्रकाशक ज्ञान है। उसकी प्रकाशिनी विद्या है जिसकी समस्त पुस्तकें काली मसी से लिखी जाती है। फिर कहिए जिससे अंतर, बाहर दोनों प्रकाशित होते हैं, जो प्रेमियों को आंख की ज्योति से भी प्रियतर है, जो अनन्त विद्यामय है उसका फिर और क्या रंग हम मानें ? हमारे रसिक पाठक जानते हैं किसी सुन्दर व्यक्ति के आंखों में काजल और गोरे गोरे गाल पर तिल कैसा भला लगता है कि कवियों भरे की पूरी शक्ति, रसिकों भर का सर्वस्व एक बार उस शोभा पर निछावर हो जाता है। यहां तक कि जिनके असली तिल नहीं होता उन्हें सुन्दरता बढ़ाने को कृत्रिम तिल बनाना पड़ता है। फिर कहिये तो, सर्व शोभामय परम सुन्दर का कौन रंग कल्पना करोगे ? समस्त शरीर में सर्वोपरि शिर है उस पर केश कैसे होते हैं ? फिर सर्वोत्कृष्ठ देवाधि देव का और क्या रंग है ? यदि कोई बड़ा मैदान हो लाखों कोस का और रात को उसका अन्त लिया चाहो तो सौ दो सौ दीपक जलाओगे । पर क्या उनसे उसका छोर देख लोगे ? केवल जहाँ दीप ज्योति है वहीं तक देख सकोगे फिर आगे अन्धकार ही तो है ? ऐसे ही हमारी हमारे अगणित ऋषियों की सब की बुद्धि जिसका ठीक हाल नहीं

प्रकाश सकती उसे अप्रकाशवत् न मानें तो क्या माने ? राम-
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चन्द्र कृष्णचन्द्रादि को यदि अंगरेजी जमाने वाले ईश्वर न मानें तौ भी यह मानना पड़ेगा कि हमारी अपेक्षा ईश्वर से और उनसे अधिक सम्बन्ध था। फिर हम क्यों न कहें कि यदि ईश्वर का अस्तित्व है तो इसी रंग ढंग का है।

अब आकारों पर ध्यान दीजिये। अधिकतर शिवमूर्तिः लिङ्गाकार होती है जिसमें हाथ, पांव, मुख कुछ नहीं होते। सब मूर्ति पूजक कह देंगे कि 'हमको साक्षात् ईश्वर नहीं मानते न उसकी यथा तथ्य प्रति कृति मानें । केवल ईश्वर की सेवा करने के लिये एक संकेत चिन्ह मानते हैं। यह बात आदि में शैवों ही के घर से निकली है, क्योंकि लिंग शब्द का अर्थ ही चिन्ह है।

सच भी यही है जो वस्तु वाह्य नेत्रों से नहीं देखी जाती

उसकी ठीक ठीक मूर्ति ही क्या ? आनन्द की कैसी मूर्ति ? दुःख की कैसी मूर्ति ? रागिनी की कैसी मूर्ति ? केवल चित्तवृत्ति । केवल उसके गुणों का कुछ द्योतन !! बस ! ठीक शिव मूर्ति यही है। सृष्टि कर्तृत्व, अचिन्त्यत्व अप्रतिमत्व कई एक बातें लिंगाकार मूर्ति से ज्ञात होती हैं। ईश्वर यावत् संसार का उत्पादक है। ईश्वर कैसा है, यह बात पूर्ण रूप से कोई नहीं वर्णन कर सकता। अर्थात् उसकी सभी बातें गोल हैं। बस जब सभी बातें गोल हैं तो चिन्ह भी हमने गोलमोल कल्पना कर लिया यदि 'नतस्य प्रतिमास्ति' का ठीक अर्थ यही है कि ईश्वर प्रतिमा नहीं है। ता इसकी ठीक सिद्धि ज्योतिर्लिंग ही से होगी, क्योंकि जिसमें
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हाथ, पाँव, मुख, नेत्रादि कुछ भी नहीं है उसे प्रतिमा कौन कह सकता है ? पर यदि कोई मोटी बुद्धि वाला कहे कि जो कोई अबयब ही नहीं तो फिर यही क्यों नहीं कहते कि कुछ नहीं है । हम उत्तर दे सकते हैं कि आंखें हों तो धर्म से कह सकते हो कि कुछ नहीं है ? तात्पर्य यह कि कुछ है, और कुछ नहीं है दोनों बातें ईश्वर के विषय में न कही जा सकें, न नहीं कहीं जा सके, और हाँ कहना भी ठीक है । एवं नहीं कहना भी ठीक है। इसी भांति शिवलिंग भी समझ लीजिये। वह निरवयव है, पर मूर्ति है । वास्तव में यह विषय ऐसा है कि मन, बुद्धि और बाणी से जितना सोचा समझा और कहा जाय उतना ही बढ़ता जायगा । और हम जन्म भर बका करेंगे, पर आपको यही जान पड़ेगा कि अभी श्री गणेशायनमः हुई है !!!

इसी से महात्मा लोग कह गये हैं कि ईश्वर को वाद में न ढूंढ़ो पर विश्वास में । इस लिये हम भी योग्य समझते हैं कि सावयव (हाथ पांव इत्यादि वाली) मूर्तियों के वर्णन की और झुकें जानना चाहिये कि जो जैसा होता है उसकी कल्पना भी वैसी ही होती है। यह संसार का जातीय धर्म है कि जो वस्तु हमारे आस पास हैं उन्हीं पर हमारी बुद्धि दौड़ती है। फारस, अरब और इंग्लिश देश के कवि जब संसार की अनि- त्यता वर्णन करेंगे तो क़बरिस्तान का नक़शा खींचेंगे, क्योंकि उनके यहाँ स्मशान होते ही नहीं हैं। वे यह न कहें तो क्या कहें कि बड़े बड़े बादशाह खाक में दबे हुए सोते हैं। यदि क़बर का
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तखता उठा कर देखा जाय तो शायद दो चार हड्डियां निकलेंगी जिन पर यह नहीं लिखा कि यह सिकन्दर की हड्डी है यह दारा की इत्यादि।

हमारे यहां उक्त विषय में स्मशान का वर्णन होगा, क्योंकि अन्य धर्मियों के आने से पहिले यहां कबरों की चाल ही न थी। यूरोप में खबसूरती के बयान में अलकाबली का रंग काला कभी न कहेंगे। यहां ताम्र वर्ण सौन्दर्य का अंग न समझा जायगा। ऐसे ही सब बातों में समझ लीजिये तब समझ में आजायगा कि ईश्वर के विषय में बुद्धि दौड़ाने वाले सब कहीं सब काल में मनुष्य ही हैं। अतएव उसके स्वरूप की कल्पना मनुष्य ही के स्वरूप की सी सब ठौर की गई है। इंजील और कुरान में भी कहीं कहीं खुदा का दाहिना हाथ बायां हाथ इत्यादि बर्णित हैं, बरंच यह खुला हुआ लिखा है कि उसने आदम को अपने स्वरूप में बनाया। चाहे जैसी उलट फेर की बातें मौलवी साहब और पादरी साहब कहें, पर इसका यह भाव कहीं न जायगा कि ईश्वर यदि सावयव है तो उसका भी रूप हमारे ही रूप का सा होगा। हो चाहे जैसा पर हम यदि ईश्वर को अपना आत्मीय मानेंगे तो अवश्य ऐसा ही मान सक्ते हैं जैसों से प्रत्यक्ष में हमारा उच्च सम्बन्ध है। हमारे माता, पिता, भाई-बन्धु, राजा, गुरू जिनको हम प्रतिष्ठा का आधार एवं आधेय कहते हैं उन सब के हाथ, पाँव,

नाक, मुँह हमारे हस्तपदादि से निकले हुए हैं, तो हमारे प्रेम
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और प्रतिष्ठा का सर्वोत्कृष्ठ सम्बन्धी कैसा होगा बस इसी मत पर सावयव सब मूर्ति मनुष्य की सी मूर्ति बनाई जाती है। विष्णुदेव की सुन्दर सौम्य मूर्तियां प्रेमोत्पादनार्थ हैं क्योंकि खूबसूरती पर चित्त अधिक आकर्षित होता है । भैरवादि की मूर्तियां भयानक हैं जिसका यह भाव है कि हमारा प्रभु हमारे शत्रुओं के लिये महा भयजनक है । अथच हम उसकी मंगल- मयी सृष्टि में हलचल डालेंगे तो वह कभी उपेक्षा न करेगा। उसका स्वभाव क्रोधी है । पर शिवमूर्ति में कई एक विशेषता हैं । उनके द्वारा हम यह यह उपकार यथामति ग्रहण कर सकते हैं।

शिर पर गंगा का चिन्ह होने से यह यह भाव है कि गंगा हमारे देश की सांसारिक और परमार्थिक सर्बस्व हैं और भगवान सदा शिव विश्वव्यापी हैं । अतः विश्वव्यापी की मूर्ति-कल्पना में जगत वा सर्वोपरि पदार्थ ही शिर स्थानी कहा जा सकता है। दूसरा अर्थ यह है कि पुराणों में गंगा की विष्णु के चरण से उत्पत्ति मानी गई है और शिवजी को परम वैष्णव कहा है। उस परमवैष्णववता की पुष्टि इससे उत्तम और क्या हो सकती है कि उनके चरण निर्गत जल को शिर पर धारण करें। ऐसे ही विष्णु भगवान को परम शैव लिखा है कि भगवान विष्णु नित्य सहस्र कमल पुष्पों से सदा शिव की पूजा करते थे। एक दिन एक कमल घट गया तो उन्होंने यह विचार के कि

हमारा नाम कमल नयन है अपना नेत्र कमल शिवजी के [ १५५ ]

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चरण कमल को अर्पण कर दिया। सच है अधिक शैवता और क्या हो सकती है ! हमारे शास्त्रार्थी भाई ऐसे वर्णन पर अनेक कुतर्क कर सकते हैं। पर उनका उत्तर हम कभी पुराण प्रति-पादन से देंगे। इस अवसर पर हम इतना ही कहेंगे कि ऐसे ऐसे सन्देह बिना कविता पढ़े कभी नहीं दूर होने के । हाँ, इतना हम कह सकते हैं कि भगवान विष्णु की शैवता और भगवान शिव की वैष्णवता का आलंकारिक बर्णन है। वास्तव में विष्णु अर्थात् व्यापक और शिव अर्थात् कल्याणमय यह दोनों एक ही प्रेम स्वरूप के नाम हैं। पर उसका वर्णन पूर्णतया असम्भव । अतः कुछ कुछ गुण एकत्र करके दो स्वरूप कल्पना कर लिये गये हैं जिसमें कवियों को वचन शक्ति के लिये आधार मिले।

हमारा मुख्य विषय शिवमूर्ति है और वह विशेषतः शैवों के धर्म का आधार है । अतः इन अप्रतयं विषयों को दिग्दर्शन मात्र कथन करके अपने शैव भाइयों से पूछते हैं कि आप भगवान गंगाधर के पूजक होके वैष्णवों से किस बरते पर द्वेष रख सकते हैं ? यदि धर्म से अधिक मतवालेपन पर श्रद्धा हो तो अपने प्रेमाधार भगवान भोलानाथ को परम वैष्णव एवं गंगाधार कहना छोड़ दीजिये ! नहीं तो सच्चा शैव वही हो सकता है जो वैष्णव मात्र को आपको देवता समझे। इसी भांति यह भी समझना चाहिये कि गंगा जी परम शक्ति

हैं इससे शैवों को शाक्तों के साथ भी विरोध अयोग्य है । यद्यपि
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हमारी समझ में तो आस्तिक मात्र को किसी से द्वेष बुद्धि रखना पाप है, क्योंकि सब हमारे जगदीश ही की प्रजा हैं, सब हमारे खुदा ही के बन्दे हैं । इस नाते सभी हमारे आत्मीय बन्धु हैं पर शैव समाज का वैष्णव और शाक्त लोगों से विशेष सम्बन्ध ठहरा। अतः इन्हें तो परस्पर महा मैत्री से से रहना चाहिये। शिवमूर्ति में अकेली गंगा कितना हित कर सकती हैं इसे जितने बुद्धिमान जितना विचारें उतना ही अधिक उपदेश प्राप्त कर सकते हैं । इस लिये हम इस विषय को अपने पाठकों के विचार पर छोड़ आगे बढ़ते हैं।

बहुत मूर्तियों के पांच मुख होते हैं जिससे हमारी समझ में यह आता है कि यावत संसार और परमार्थ क तत्व तो चार वेदों में आपको मिल जायगा, पर यह न समझियेगा कि उनका दर्शन भी वेद विद्या ही से प्राप्त है। जो कुछ चार वेद सिखलाते हैं उससे भी उनका रूप उनका गुण अधिक है। वेद उनकी बाणी है। केवल चार पुस्तकों पर ही उस वाणी की इति नहीं है। एक मुख और है जिसकी प्रेम- मयी बाणी केवल प्रेमियों के सुनने में आती है। केवल विद्या- भिमानी अधिकाधिक चार वेद द्वारा बड़ी हद्द चार फल (धर्मार्थ काम मोक्ष) पा जायगे, पर उनके पंचम मुख सम्बन्धी सुख औरों के लिये है।

शिवमूर्ति क्या है और कैसी है यह बात तो बड़े बड़े

ऋषि मुनि भी नहीं कह सकते हम क्या हैं। पर जहां तक
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साधारणतया बहुत सी मूर्तियां देखने में आई हैं उनका कुछ वर्णन हमने यथामति किया, यद्यपि कोई बड़े बुद्धिमान इस विषय में लिखते तो बहुत सी उत्तमोत्तम बातें और भी लिखते, पर इतने लिखने से भी हमें निश्चय है किसी न किसी भाई का कुछ भला हो ही रहेगा। मरने के पीछे कैलाशवास तो विश्वास की बात है। हमने न कैलाश देखा है, न किसी देखने वाले से कभी वार्तालाप अथवा पत्र व्यवहार किया है। हां यदि होता होगा तो प्रत्येक मूर्ति के पूजक को ही रहेगा। पर हमारी इस अक्षरमयी मूर्ति के सच्चे सेवकों को संसार ही में कैलाश का मुख प्राप्त होगा इसमें सन्देह नहीं है, क्योंकि जहां शिव हैं वहां कैलाश है। तो जब हमारे हृदय में शिव होंगे तो हमारा हृदय-मन्दिर क्यों न कैलाश होगा ? हे विश्वनाथ ! कभी हमारे हृदय मन्दिर को कैलाश बनाओगे ? कभी वह दिन दिखाओगे कि भारतबासी मात्र केवल तुम्हारे हो जायं और यह पवित्र भूमि फिर कैलाश हो जाय ? जिस प्रकार अन्य धातु पाषाणादि निर्मित मूर्तियों का रामनाथ, वैद्यनाथ, आनन्देश्वर, खेरेश्वर आदि नाम होता है वैसे इस अक्षरमयी शिवमूर्ति के अगणित नाम हैं। हृदयेश्वर, मंगलेश्वर, भारतेश्वर इत्यादि पर मुख्य नाम प्रेमेश्वर है। कोई महाशय प्रेम का ईश्वर न समझे । मुख्य अर्थ है कि प्रेममय ईश्वर । इनका दर्शन भी प्रेम-चक्षु के बिना दुर्लभ है । जब अपनी अकर्मण्यता का और

उनके एक एक उपकार का सच्चा ध्यान जमेगा तब अवश्य [ १५८ ]

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हृदय उमड़ेगा, और नेत्रों से अश्रुधारा बह चलेगी। उस धारा का नाम प्रेमगंगा है। उसी के जल से स्नान कराने का माहात्म्य है। हृदय-कमल उनके चरणों पर चढ़ाने से अक्षय पुण्य है। यह तौ इस मूर्ति की पूजा है जो प्रेम के बिना नहीं हो सकती। पर यह भी स्मरण रखिये कि यदि आप के हृदय में प्रेम है तो संसार भर के मूर्तिमान और अमूर्तिमान सब पदार्थ शिव मूर्ति हैं, अर्थात् कल्याण का रूप है। नहीं तो सोने और हीरे की मूर्ति तुच्छ है। यदि उससे स्त्री का गहना बनवाते तो उसकी शोभा होती, तुम्हें सुख होता, भैयाचारे में नाम होता, विपति काल में निर्बाह होता। पर मूर्ति से कोई बात सिद्ध नहीं हो सकती। पाषाण, धातु, मृत्तिका का कहना ही क्या है ? स्वयं तुच्छ पदार्थ है। केवल प्रेम ही के नाते ईश्वर हैं, नहीं तो घर की चक्की से भी गये बीते, पानी पीने के भी काम के नहीं, यही नहीं प्रेम के बिना ध्यान ही में क्या ईश्वर दिखाई देगा ? जब चाहो आंखें मूंद के अन्धे की नक़ल कर देखो। अंधकार के सिवाय कुछ न सूझेगा । वेद पढ़ने में हाथ मुंह दोनों दुखेंगे। अधिक श्रम करोगे, दिमाग़ में गर्मी चढ़ जायगी। खैर इन बातों के बढ़ाने से क्या है ? जहां तक सहृदयता से विचार कीजियेगा वहां तक यही सिद्ध होगा कि प्रेम के बिना वेद झगड़े की जड़, धर्म बे शिर पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल, मुक्ति प्रेत की बहिन है । ईश्वर का तो पता ही लगना

कठिन है । ब्रह्म शब्द ही नपुंसक अर्थात है। और हृदय [ १५९ ]

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मन्दिर में प्रेम का प्रकाश है तौ संसार शिवमय है क्योंकि प्रेम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात् कल्याण का रूप है।


सोने का डण्डा और पौंड़ा ।

देखने में सुवर्ण दंड ही सुन्दर है। ताप देखो सुलाख देखो तो स्वर्ण दंड ही अपनी खराई दिखलावैगा । उसका बनना और ताकना बड़ी कारीगरी, बड़े खर्च, बड़ी शोभा और बड़ी चिन्ता का काम है। पर हम पूछते हैं कि जो पुरुष भूखा है, जो भूख के मारे चाहता है कुछ ही मिल जाय, तो आत्मा शान्ति हो उसके लिये वह डंडा किस काम है ? कदाचित बालक भी कह देगा कि कौड़ी काम का नहीं। यदि उसको बेचने जाय तो खरीदार मिलना मुशकिल है। साधारण लोग कहेंगे कहां का एक दरिद्र 'एक दम आगया जो घर की चोजैं बेचे डालता है। कोई कहेगा कहां से उड़ा लाए ? सच तो यह है, जो कोई ऐसा ही शौकीन आँख का अन्धा गांठ का पूरा मिलेगा तो ले लेगा । परन्तु भूखी आत्मा इतनी कल है कि स्वर्ण दंड से परंपरा द्वारा भी अपना जी समझा सके। कदापि नहीं। इधर पौंडे को देखिये देखने में सुन्दरता व असुन्दरता का नाम नहीं, परीक्षा का काम नहीं। लड़का भी जानता है कि मिठाइयों भर का बाप है। बनाने और बनावाने वाला संसार से परे है। ले के चलने में कोई शोभा है न अशोभा । ताकने में कोई बड़ा खट खट तो नहीं है।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।