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प्रताप पीयूष/सोने का डण्डा और पौंड़ा ।

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प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

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मन्दिर में प्रेम का प्रकाश है तौ संसार शिवमय है क्योंकि प्रेम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात् कल्याण का रूप है।


सोने का डण्डा और पौंड़ा ।

देखने में सुवर्ण दंड ही सुन्दर है। ताप देखो सुलाख देखो तो स्वर्ण दंड ही अपनी खराई दिखलावैगा । उसका बनना और ताकना बड़ी कारीगरी, बड़े खर्च, बड़ी शोभा और बड़ी चिन्ता का काम है। पर हम पूछते हैं कि जो पुरुष भूखा है, जो भूख के मारे चाहता है कुछ ही मिल जाय, तो आत्मा शान्ति हो उसके लिये वह डंडा किस काम है ? कदाचित बालक भी कह देगा कि कौड़ी काम का नहीं। यदि उसको बेचने जाय तो खरीदार मिलना मुशकिल है। साधारण लोग कहेंगे कहां का एक दरिद्र 'एक दम आगया जो घर की चोजैं बेचे डालता है। कोई कहेगा कहां से उड़ा लाए ? सच तो यह है, जो कोई ऐसा ही शौकीन आँख का अन्धा गांठ का पूरा मिलेगा तो ले लेगा । परन्तु भूखी आत्मा इतनी कल है कि स्वर्ण दंड से परंपरा द्वारा भी अपना जी समझा सके। कदापि नहीं। इधर पौंडे को देखिये देखने में सुन्दरता व असुन्दरता का नाम नहीं, परीक्षा का काम नहीं। लड़का भी जानता है कि मिठाइयों भर का बाप है। बनाने और बनावाने वाला संसार से परे है। ले के चलने में कोई

शोभा है न अशोभा । ताकने में कोई बड़ा खट खट तो नहीं है।

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पहरा-चौकी, जागना-जूगना कुछ भी न चाहिये। पर कोई ताकने की आवश्यकता ही क्या है ? जहां तक बिचारिए यही पाइएगा कि जितनी स्वर्ण दंड के सम्बन्ध में आपत्तियां हैं उससे कहीं चढ़ी बढ़ी इक्षु दंड के साथ निर्द्वन्दता है। विशेषतः क्षुधा क्लान्त के लिये वह तत्क्षण शांतिदाता ही नहीं वरंच पुष्टिकारक सुस्वादुप्रद भी है।

पाठक महोदय ! जैसे इस दृश्यमान संसार में स्वर्ण-दंड और इक्षुदंड की दशा देखते हो ऐसे ही हमारी आत्मसृष्टि में ज्ञान और प्रेम है। दुनियां में जाहिरी चमक दमक ज्ञान की बड़ी है । शास्त्रार्थों की कसौटी पर उसके खूब जौहर खिलते हैं। संसारगामिनी बुद्धि ने उसके बनाने में बड़ी कारीगरी दिखलाई है। पांडित्याभिमान और महात्मापन की शान उससे बड़ी शोभा पाती है। इससे हद है कि एक अपावन शरीरधारी, सर्वथा असमर्थ अन्न का कीड़ा रोग शोकादि का लतमर्द मनुष्य उसके कारणं अपने को साक्षात ब्रह्म समझने लगता है। इससे अधिक ऊपरी महत्व और क्या चाहिए ? पर जिन धन्य जनों की आत्मा धर्म-स्वादु की क्षुधा से लालायित होरही हैं, जिनके हृदय-नेत्र हरि-दर्शन के प्यासे हैं उनकी क्या इतने से तृप्ति हो जायगी कि शास्त्रों में ईश्वर ने ऐसा लिखा है, जीव का यह कर्तव्य है, इस कर्म का यह फल है, इत्यादि से आत्मा शांति हो जायगी ? हमतो जानते हैं शांति के बदले यह विचार और उलटी घबरा-

हट पैदा करेगा कि हाय हमें यह कर्तव्य था, पर इन इन कारणों

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से नकर सके। अब हम कैसे क्या करेंगे ? यदि यह भयानक लहरें जी में उठी तो जन्म भर कर्म-कांड और उपासना-कांड के झगड़ों से छुट्टी नहीं। और जो न उठी तो मानो आत्मा निरी निर्जीव है। भूख का बिलकुल न लगना शरीर के लिये अनिष्ट है। तो अपने कल्याणों की प्रगाढ़ेच्छा न होना आत्मा के लिये क्योंकर श्रेयस्कर कहें।

किसी महात्मा का वचन है कि 'वे लोग धन्य हैं जो धर्म के लिये भूखे और प्यासे हैं, क्यों कि वे तृप्त किए जायंगे' । सो तृप्त होना शुष्क ज्ञानरूपी स्वर्ण दंड से कदापि संभव नहीं, क्यों कि सोना स्वयं खाद्य वस्तु नहीं है। ऐसे ही ज्ञान भी केवल सुखद मार्ग का प्रदर्शक मात्र है, कुछ सुख स्वरूप नहीं है । बरंच बहुधा दुःखदायक हो जाता है। पर, हां, ईश्वर के अमित अनु- ग्रह से स्वयं रसमय निश्चित अलौकिक और अकृत्तिम प्रेम भी हमारे हृदय क्षेत्र में रक्खा गया है जिसके किंचित सम्बन्ध से हम तृप्त हो जाते हैं। आंतरिक दाह का नाश हो जाता है। ईश्वर तो ईश्वर ही है। किसी सांसारिक वस्तु का क्षणस्थाई और कृत्तिम प्रेम कैसा आनन्दमय है कि उसके लिये कोटि दुःख भी हो जाते हैं। और प्रेम-पात्र की प्राप्ति तो दूर रही, उसके ध्यान मात्र से हम अपने को भूल के आनन्दमय हो जाते हैं। जैसे यावत मिष्ठान्न का जनक इक्षु दंड है, वैसे ही जितने आनन्द हैं सब का उत्पादक प्रेम है। तत्क्षण शांति और

पुष्टि दाता यह इस समय प्रेम ही है जिसकी केवल एक देशी

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तुच्छातितुच्छ सादृश्य गन्ने से दे सकते हैं, यद्यपि वास्तविक और यथोचित सादृश्य के योग्य तो अमृत भी नहीं है। प्रिय पाठक तुम्हारी आत्मा धर्म की भूखी है कि नहीं ? यदि नहीं है तो सत्संग और सद्ग्रन्थावलोकन द्वारा इस दुष्ट रोग को नाश करें। हाय हाय । आत्मश्रेय के लिये व्याकुल न हुआ तो चित्त काहे को, पत्थर है। नहीं हमारे रसिक अवश्य हरि रस के प्यासे हैं उनसे हम पूंछते हैं क्यों भाई ! तुम अपने लिये रुक्ष स्वर्ण दंड को उत्तम समझते हो अथवा रसीले पौडे को।


पंच परमेश्वर ।

पंचत्व से परमेश्वर सृष्टि-रचना करते हैं। पंचसम्प्रदाय में परमेश्वर की उपासना होती है। पंचामृत से परमेश्वर की प्रतिमा का स्नान होता है । पंच वर्ष तक के बालकों का परमेश्वर इतना ममत्व रखते हैं कि उनके कर्तव्याकर्तव्य की ओर ध्यान न देके सदा सब प्रकार रक्षण किया करते हैं। पंचेन्द्रिय के स्वामी को वश कर लेने से परमेश्वर सहज में वश हो सकते हैं । काम पंचबाण को जगत् जय करने की, पंचगव्य को अनेक पाप हरने की, पंचप्राण को समस्त जीवधारियों के सर्वकार्य- सम्पादन की, पंचत्व (मृत्यु) को सारे झगड़े मिटा देने की, पंचरत्न को बड़े बड़ों का जी ललचाने की सामर्थ्य परमेश्वर ने दे रक्खी है।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।