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प्राचीन चिह्न/श्रीरङ्गपत्तन

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प्रयाग: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ८५ से – ९१ तक

 

बहुत दिन तक भजन-पूजन किया था। एशियाटिक सोसायटी के जरनल के आठवें खण्ड में अध्यापक डौसन ने, एक तामील लेख के आधार पर, लिखा है कि ८६४ ईसवी में त्रिमल्लयान नामक एक पुरुष ने इस मन्दिर को बनवाकर श्रारङ्ग की मूर्ति इसमे स्थापित की तब से इस जगह का नाम श्रीरङ्गपत्तन हुआ।

— ११३३ ईसवी में रामानुजाचार्य को चोलराज ने बहुत तङ्ग किया। तब वे वहाँ से माइसोर को चले आये। माइसोर मे वल्लाल-वंश के जैन मतानुयायी विष्णुवर्द्धन नामक राजा को उन्होंने वैष्णव बनाया। उस राजा ने रामानुज को आठ गाँव दिये, उनमे से श्रीरङ्गपत्तन भी एक था।

१४५४ ईसवी मे हेबर तिमाना नामक सूबेदार ने विजयनगर के राजा से श्रीरङ्गपत्तन को ले लिया और वहाँ एक किला बनवाया । उसने, पास ही कलशवाड़ी स्थान के १०१ जैन-मन्दिरों को तोड़कर उनके ईंट-पत्थर से श्रीरङ्ग के मन्दिर को और भी बढ़ाया। हेबर तिमाना के अनन्तर और कई सूबेदार श्रीरङ्गपत्तन में हुए । अन्तिम सूबेदार का नाम त्रिमल्लराज था। १६१० ईसवी मे उसने श्रीरङ्गपत्तन का अधिकार माइसोर के बड़यार राजा को दे दिया। तब से यह स्थान माइसोर की राजधानी हुआ। माइसोर के नरेशों का प्रभुत्व जब क्षीण हुआ तब हैदर अली और टीपू ने इसे अपनी राजधानी बनाया। ४ मई १७६६ ईसवी को अँगरेज़ों ने
इस स्थान को अपने अधिकार मे कर लिया। श्रीरङ्गपत्तन के किले के लेने मे जो नरहत्या हुई वह इतिहासज्ञों पर विदित ही है।

श्रीरङ्गपत्तन में श्रीरङ्गजी के मन्दिर के सिवा एक और मन्दिर है। उसका नाम रामस्वामी का मन्दिर है। श्रीरङ्गजी का मन्दिर प्राचीनता और रामस्वामी का मन्दिर भव्यता के लिए प्रसिद्ध है।

यहाँ पर जो किला है वह बहुत मज़बूत है। उसके तीन तरफ़ नदी है। इस किले मे टीपू सुलतान और अँग- रेज़ों में भीषण संग्राम हुआ था। टीपू स्वयं बड़ा बहादुर था। वह स्वयं मोरचो पर हाज़िर रहता और अपनी फ़ौज को बराबर उत्साहित करता था। परन्तु अँगरेज़ी सेना के वेग को वे लोग नही सह सके। उनके पैर उखड़ गये। टीपू की फ़ौज का कुछ हिस्सा किले की दीवारों पर से नीचे कूदकर भागने लगा। इस कूदने मे हज़ारो आदमियों की जाने गई। जो मरे भी नहीं थे उनके हाथ-पैर टूट गये। इस युद्ध मे टीपू का घोड़ा गोली लगने से मारा गया। तिस पर भी टीपू ने बहुत देर तक युद्ध किया। आख़िर को उसका पतन हुआ। परन्तु उसको उस वक्त अँगरेज़ी फौज ने नहीं पहचाना। वह एक सामान्य योद्धा की तरह युद्ध करता रहा। जब उसकी लाश मिली तब मालूम हुआ कि उसकी बॉह में सङ्गीन का एक बड़ा घाव था।
१७८० से १७८५ ईसवी तक टीपू ने कनेल बेलो और कई और अँगरेज़ अफ़सरो को इस किले के उत्तरी भाग में कैद कर रखा था। जहाँ ये लोग कैद थे वह जगह अभी तक स्मारक के तौर पर वैसी ही बनी है।

किले के भीतर जितने मकान थे प्रायः सब गिरा दिये गये हैं। जो हैं भी वे बहुत बुरी हालत में हैं। यहाँ का जल- वायु बहुत खराब है। एक सप्ताह भी रहने से बुखार आये बिना नहीं रहता।

मृत्यु से कुछ समय पहले टीपू ने श्रीरङ्गपत्तन में एक जुमामसजिद बनवाई थी। यह अभी तक अच्छी हालत में है। इसकी इमारत भी अच्छी है। इसके मीनारों पर चढ़कर देखने से शहर और आसपास का दृश्य अच्छी तरह देख पड़ता है।

टीपू सुलतान का महल भी किले के भीतर है। उसका कुछ भाग गिरा दिया गया है और कुछ में चन्दन की लकड़ी का गोदाम है। यह महल टोपू के समय में बहुत बड़ा था। टीपू के रहने के स्थान का रास्ता बहुत तङ्ग था। उस रास्ते मे चार जगह पर चार शेर जजीरों से बंधे रहते थे। बीच मे एक दीवानखाना था। उसी मे बैठकर टीपू लिखता- पढ़ता था। वहाँ उसके दीवान मीर सादिक के सिवा और कोई नहीं जाने पाता था। टीपू के सोने का कमरा बहुत मज़बूती से बन्द रहता था।
टीपू डरा करता था कि पलँग पर सोते समय खिड़कियो के रास्ते कोई उसे गोली न मार दे। इसलिए वह एक झूले पर सोता था। यह झूला जंजीरों के द्वारा छत से लटका करता था और खिड़कियों से न देख पड़ता था। इस झूले पर एक नङ्गो तलवार और दो भरे हुए तमञ्चे हमेशा रक्खे रहते थे। इस सोने के कमरे मे एक और दरवाज़ा था। वह टीपू के हरम से मिला हुआ था। हरम मे सब ६०० स्त्रियाँ थीं। उनमे से ८० तो टोपू की बीवियाँ थी; शेष लौंड़ियाँ वगैरह थी।

किले के बाहर टीपू का दरियाय-दौलत नाम का एक महल है। यह एक बाग के बीच में है। गरमी के दिनों मे टीपू साहब यहीं तशरीफ रखते थे। यह बहुत सुन्दर इमारत है। इसमे रङ्ग का काम बहुत ही मनोहर है। १७८० ईसवी में हैदर अलीने अगरेजों की एक बहुत बड़ी सेना को परास्त किया था। यह लड़ाई काजोवरम के पास हुई थी। अँगरेज़ी सेना के नायक कर्नल बेलो थे। इस लड़ाई मे हैदर की जो जीत हुई थी उसका चित्र इस महल की पश्चिमी दीवार पर चित्रित था। इसका रङ्ग उतर गया था। इसलिए जब श्रीरङ्गपत्तन अँगरेज़ो के हाथ आया तब कर्नल बेलेजली ने फिर इसे नया करवाया। वे कुछ दिन तक इस महल मे रहे भी थे। एक बार यह चित्रावली सफ़ेदी करते समय धो गई थी। परन्तु जव लार्ड डलहौसी माइसोर गये तब उन्होंने फिर से इसे रँगाया।
कुछ दूर पर लाल बाग नाम का एक बागीचा है। उसमे हैदर और टीपू की क़बरें हैं। इस मकबरे के किवाड़े हाथी- दाँत से खचित हैं। उन्हें लार्ड डलहौसी ने दिया था। इसकी सफाई और देख-भाल गवर्नमेट के खर्च से होती है। टीपू की कबर पर एक लेख, पद्य में, है। उसमे उसकी मृत्यु की तिथि वगैरह लिखी है। इसी लाल बाग मे कर्नल बेली का भी एक छोटा सा सादा स्मारक है। टापू की कैद में, १७८२ ईसवी मे, वही उनकी मृत्यु हुई।

यदि किसी को श्रीरङ्गपत्तन देखने का अवसर हाथ लगे तो उसको कावेरी का प्रपात अवश्य देखना चाहिए। श्रीरङ्ग- पत्तन से ३३ मील पर मदूर नाम का स्टेशन है। वहाँ से कावेरी का प्रपात कोई २५ मील है। वहाँ गाड़ी पर जाना होता है; रेल नहीं है।

कावेरी में कई टापू हैं। श्रीरङ्गपत्तन भी टापू है। एक टापू और है, उसका नाम है शिवसमुद्रम् । इसी शिवसमुद्रम्के पास कावेरी का प्रपात है। माइसोर राज्य मे कावेरी की चौड़ाई सिर्फ ३०० से ४०० गज़ तक है। परन्तु जहाँ काबनी नामक नदी उसमे आ मिलती है वहाँ से उसकी चौड़ाई बहुत अधिक हो जाती है; और, साथ ही, उसका वेग भी बहुत बढ़ जाता है। शिवसमुद्रम् के पास कावेरी बहुत ही । विकराल रूप धारण करती है। वहाँ, बाढ़ के समय, प्रति सेकण्ड २, ३९, ०००, धन फुट पानी उससे गिरता है। जहाँ

होकर वह बहती है वहाँ की भूमि विशेष करके पथरीली है। कही-कही पर तो बीच मे बड़ी-बड़ी चट्टाने आ गई हैं। इस- लिए उसके वेग, उसके नाद और उसके प्रवाह ने और भी भयङ्कर रूप धारण किया है।

शिवसमुद्रम् नामक टापू तीन मील लम्बा और दो मील चौड़ा है। उसके एक तरफ़ कावेरी की एक और दूसरी तरफ़ दूसरी धारा है। जहाँ से उसकी दो धाराये होती हैं वहाँ से लेकर उनके सङ्गम की जगह तक का अन्तर ३०० फुट है। जहाँ ये दो धाराये पृथक हुई हैं वहाँ से कुछ दूर पर प्रपात है। एक प्रपात पश्चिमी धारा का है, दूसरा दक्षिणी धारा का। प्रपात की जगह पर्वत की उँचाई २०० फुट है। इसी उँचाई से कावेरी की धाराये धड़ाधड़ नीचे गिरती हैं। वर्षा ऋतु में इस नदी की धाराये ¾ मील चौड़ी हो जाती हैं। उस समय पानी की इतनी चौड़ी दो धारायें २०० फुट ऊँचे से प्रलय-काल का सा गर्जन करती हुई नीचे आती हैं। जहाँ पर दक्षिणी धारा गिरती है वहाँ घोड़े की नाल के आकार का एक पातालगामी खड्डं है। उसके भीतर वह धारां हाहाकार करती हुई प्रवेश कर जाती है। वहाँ से वह फिर निकलती है और एक बहुत तग पहाडी रास्ते से होकर कोई ३० फुट की उँचाई से दुबारा एक अन्य खड्डं में गिरती है। कुछ दूर में दोनो धाराये फिर मिल जाती हैं और एक रूप होकर बड़े वेग से पूर्व की ओर जाती हैं।
गरमी के मौसम में कावेरी के छोटे-छोटे कोई १४ प्रपात हो जाते हैं। इसलिए उस समय उनकी शोभा क्षीण हो जाती है। उनकी विशालता और भयड्करता वर्षा ऋतु ही में देखने लायक होती है। अतएव जो लोग इन प्रपातों को देखने जाते हैं वे बहुधा वर्षा-ऋतु ही में जाते हैं।

[सितम्बर १९०४


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