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प्रियप्रवास/अष्टम सर्ग

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ १५३ से – १६४ तक

 


द्रुतविलम्बित छन्द
जब हुप्रा ब्रजजीवन-जन्म था ।
ब्रज प्रफुलित था कितना हुआ ।
उमगती कितनी कृति मूर्ति थी ।
पुलकने कितने नृप नद थे ॥६॥

विपुल सुन्दर - बन्दनवार से ।
सफल द्वार बने अभिगम थे ।
विहॅसते ब्रज - सन- समूह के ।
वदन में दसनावलि थी लसी ॥ ७॥

नव - रसाल - सुपरव के बने ।
अजिर में वर - तोरण थे बँधे ।
बिपुल - जीह विभृपित था हुआ ।
वह मनो रस - लेहन के लिये ।।८।।

गृह गली मग मदिर चौरही ।
नम्बरो पर थी लसती ध्वजा ।
समुद सूचित थी करती मनो ।
वाह कथा प्रज की सुरलोक को ॥९॥

विपरिणो घर - वस्तु विभूपिता ।
मेगि्ध मयी 'अलका मम थी लसी ।
पर- वितान विमंदित ग्राम की ।
सु छवि ची मगवति - रंजिनी ।।१०।।

सजल कुंभ सुशोभित द्वार थे ।
गुमन - सगुल्न थी मय वीथियाँ ।
प्रति-सु-चर्चित ये नव चौरहे ।
रस प्रवाहित सा सर ठौर था ।।११।।



हा! क्यो देखा मुदित उतना नन्द-तन्दांगना को ।
जो दोनो को दुखित इतना आज मैं देखता हूँ ।
वैसा फूला सुखित ब्रज क्यों म्लान है नित्य होता ।
हा! क्यों ऐसी दुखमय दशा देखने को बचा मैं ॥१८॥

या देखा था अनुपम सजे द्वार औं प्रांगण को ।
आवासों को विपणि सबको मार्ग को मंदिरो को ।
या रोते से विषम जडता मग्न से आज ए हैं ।
देखा जाता अटल जिनमे राज्य मालिन्य का है ॥१९॥

मैंने हो हो सुखित जिनको सज्जिता था विलोका ।
क्यो चे गायें अहह! दुख के सिंधु मे मज्जिता है ।
जो ग्वाले थे मुदित अति ही मग्न आमोद मे हो ।
हा! आहो से मधित अब मैं क्यों उन्हें देखता हूँ ॥२०॥

भोलीभाली बहु विध सजी वस्त्र आभूषणों से ।
गानेवाली मधुर स्वर मे सुन्दरी बालिकायें ।
जो प्राणी के परम गुद की मूर्तियाँ थी उन्हें क्यो ।
खिन्न दीना मलिन-बसना देखने को बचा में ।।२१।।

हा! पायों की मधुरध्वनि भी धूल में जा मिली क्या ।
हा! कीला है किन कुटिल न कामिनी-कराट प्यारा ।
सारी शोभा सकल प्रज की टूटता कौन क्यो ?।
हा! हा! मेरे हदय पर यो सोप क्यों लोटता है ।।२२।।

आगे आयो सहृदय जनो, युद्ध का संग छोडो ।
देखो बैठी सदन कहती क्या कई नारियाँ हैं ।
रोते रोते अधिकतर की लाल ऑखें हुई है ।
जो ऊंची हैं कथन पहले है उनीका सुनाता ॥२३॥

जब सुव्यंजक भाव विचित्र के ।
निकलते मुख - प्रस्फुट शब्द थे ।
तब कढ़े अधरायुधि से कई ।
जननि को मिलत वर रत्न थे ॥३०॥

अधर साध्य सु-व्योम समान थे ।
दसन थे युगतारक से लसे ।
मृदु हँसी वर ज्योति समान थी ।
जननि मानस को अभिनन्दिनी ।।३१।।

विमल चन्द विनिन्दक माधुरी ।
विकच चारिज की कमनीयता ।
बदन में जननी बलवीर के ।
निरवती बहु विश्व विभूति थी ॥३२॥

मन्दाकान्ता छन्द
मैंने आॅखों यह सब महा मोद नन्दागना का ।
देखा है भी सहस मुख से भाग को है सराहा ।
छा जाती थी बदन पर जो हर्ष की कान्त लाली ।
सो आॅखों को प्रकथ रस से सिचिता थी बनाती ॥३३॥

हां! मैं ऐसी प्रमुद-प्रतिमा मोद-आन्दोलिता को ।
जो पाती हैं मलिन-पदना शोक में मज्जिता सी ।
तो है मेरा हृदय मलता वारि है नेत्र लाता ।
दावा सी हैं ढ़ाक उठत्ती गात-गेमावली में ॥३४॥

जो प्यार का बदन लख के स्वर्ग - सम्पत्ति पाती ।
लूटे लेनी सकल निधियों श्यामली - मूर्ति देखे ।
हा! सो नारे सवनिताल में देखती हैं अंधेरा ।
थोड़ी आशा मालक जिनमे हे नही दृष्टि आती ॥३५॥

जब कभी कुछ ले कर पाणि में ।
वदन मे ब्रजनन्दन डालते ।
चकित-लोचन मे अथवा कभी ।
निरयते जब वस्तु विशेष को ॥४२॥

प्रकृति के नख थे, तब खोलते ।
विविध ज्ञान मनोहर प्रथि को ।
दमकती नव श्री द्विगुणी शिखा ।
महरि मानम मजु प्रदीप की ।।४३।।

कुछ दिनो उपगन्त ब्रजेश के ।
चरण भूपर भी पड़ने लगे ।
नवल नूपुर श्री कटिकिंकिणी ।
वनित हो उठने गृह में लगी ।।४४।।

ठुमुकते गिरते पड़ते हुए ।
जननि के कर की उंगली गहे ।
सदन में चलने जब श्याम थे ।
उमड़ता नव हर्ष-पयोधि था ॥४५॥

फणित हो करके कटिफिफिणी ।
विदित थी करती इन बात को ।
चकितकारक पण्डित मण्डली ।
परम अद्भुत बालक है, यही ।।४६।।

कलिन नृपुर की कल-वादिना ।
जगत को यह थी जतला रही ।
कब भला न प्रजीव सजीवता ।
परम के पद पंकज पा सके ।।४७‌‌।।



सारी बाते दुखित वनिता की भरी दुख - गाथा ।
धीरे धीरे श्रवण करके एक बाला प्रवीणा ।
हो हो खिन्ना विपुल पहले धीरता - त्याग रोई ।
पीछे आहे भर विकल हो यो व्यथा-साथ बोली ॥५४॥

द्रुतविलम्बित छन्द
निकल के निज सुन्दर सद्म से ।
जब लगे व्रज मे हरि घूमने ।
जब लगी करने अनुरजिता ।
स्वपथ को पद पकज लालिमा ।।५५।।

तब हुई मुदिता शिशु - मण्डली ।
पुर - वधु सुखिता बहु हर्पिता ।
विविध कौतुक और विनोद की ।
विपुलता ब्रज - मडल मे हुई ।।५६।।

पहुँचते जब थे गृह मे किसी ।
ब्रज - लला हॅसते मृदु बोलते ।
ग्रहण थी करती अति - चाव से ।
तब उन्हें सब सम-निवासिनी ॥५७।।

मधुर भाषण से गृह - बालिका ।
अति समादर थी करती सदा ।
सरस माग्वन श्री दधि दान से ।
मुदित थी करती गृह -स्वामिनी ।।५८।।

कमल लोचन भी कल उक्ति से ।
सकल को करते अति मुग्ध थे ।
कलित क्रीडन नूपुर नाद से ।
भवन भी बनता अति भव्य था ॥५९।।

स- बलगम से यावक मण्डली ।
बिहरते बहु मंदिर में रहें ।
बिचरते हरि थे बाले कभी ।
रुचिर वस्त्र विभूषण मसे सजे ।।६०।।

मन्दकान्ता छन्द
ऐसे सारी मज सज अधिन के एक ही लाहिने को ।
होना कैसे किस कुटिल ने क्यों कहाँ कौन बेला ।
हाँ! कार्यों घोड़ा गरल उगले विनाश कारी रसो में ।
कैसे छींटा सरस कुसुमोधान में कंटकों को ।।६१।।

विनाशकारी - दलित - गलियों लोभनीबालयो में ।
क्रीड़ाकारी फलीत कितने फेजिवाले थल्लो में ।
कैसे भूला ब्रज अवनि को फूल को भानुजा के ।
क्या थोड़ा भी हृदय मलता लाढिले का न होगा ।।३२।।

क्या देखूँगी न अब बढ़ता इंदु को भानुजा के ।
क्या फूलेगा न यह गृह में पद्म सौंदर्यशादी ।
मेरे खोटे दिवस अब क्या मुग्धकारी न होंगे ।
क्या प्यारे का अब न मुखड़ा मंदिरों में दिखेगा ।।३३।।


हाथों में ले गले मधुर दधि को दीर्घ उन्कण्ठना से ।
घटों बैठी कुंवर - पथ जी आज भी देखती हैं ।
हां! क्या ऐसी सरल-हदया सघ की स्वामिनी की ।
वांछा होगी न अब सकला श्याम को देख ऑखों ।।३४॥

भोली भाली सुल्ब सदन की सुन्दरी वालिफायें ।
जो प्यार के फल कथन की प्राज भी उत्सुका है ।
क्रीड़ाकाक्षी सफल शिशु जो आज भी है स-आशा ।
हा! धाता, क्या न अब उनकी कामना सिद्ध होगी ।।३५।।

प्रात वेला यक दिन गई नन्द के सद्म में थी ।
बैंठी लीला महरि अपने लाल की देखती थी ।
न्यारी क्रीड़ा समुद करके श्याम थे मोद देते ।
होठो मे भी विलसित सिता मी हँसी मोहती थी ।।६६।

जयोही ऑखे मुझ पर पड़ीं प्यार के साथ बोली ।
देखो कैसा सँभल चलता लाडिला है तुम्हारा ।
क्रीड़ा मे है निपुण कितना है कलावान कैसा ।
पाके ऐसा वर सुअन मैं भाग्यमाना हुई हूँ ॥३७॥

होवेगा सो सुदिन जब मैं आँख से देख लूंगी ।
पूरी होती सकल अपने चित्त की कामनाये ।
व्याहुँगी मैं जब सुअन को औ मिलेगी वधूटी।
तो जानूंगी अमरपुर की सिद्धि है सद्म आई ॥६८।।

ऐसी बाते उमग कहती प्यार से थी यशोदा ।
होता जाता हृदय उनका उत्स आनद का था ।
हा ! ऐसे ही हृदय - तल मे शोक है आज छाया ।
गेऊॅ मैं या यह सब कहें या मरूँ क्या करूँ मैं ॥६९।।

यों ही वाते विविध कह कष्ट के साथ रो के ।
आवेगों से व्यथित वन के दु.ख से दग्ध हो के ।
सारे प्राणी ब्रज - अवनि के दर्शनाशा सहारे ।
प्यारे से हो पृथक, अपने बार को थे बिताते ।।७७।।

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