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प्रियप्रवास/सप्तम सर्ग

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ १४२ से – १५२ तक

 
सप्तम सर्ग

—:-:—


मन्दाकान्ता छन्द


ऐसा आया यक दिवस जो था महा मर्मभेटी ।
धाता ने हो दुखित भव के चित्रितो को विलोका ।
धीरे धीरे तरणि निकला कॉपता दग्ध होता ।
काला काला ब्रज-अवनि में शोक का मेघ छाया ॥१॥

खा जाता पथ जिन दिनो नित्य हीश्याम का था ।
सा खोटा यक दिन उन्ही वासरो मध्य आया ।
आँखे नीची जिस दिन किये शोक में मग्न होते ।
खा आते सकल - व्रज ने नन्द गोपादिको- को ।।२।।

खो के होवे विकल जितना आत्म - सर्वस्व कोई ।
होती हैं सो स्वमणि जितनी सर्प को वेदनायें ।
दोनों प्यारे कुंवर तज के ग्राम मे आज आते ।
पीड़ा होती अधिक उससे गोकुलाधीश को थी ॥३॥

लज्जा से वे प्रथित - पथ मे पॉव भी थे न देते ।
जी होता, था व्यथित हरि का पूछते ही सँदेसा ।
वृक्षो में हो विपथ चल वे आ रहे ग्राम में थे ।
ज्यो ज्यो आते निकट महि के मध्य जाते गड़े थे ।।४॥

पाँवों को वे सँभल बल के साथ ही थे उठाते ।
तो भी वे थे न उठ सकते हो गये थे मनो के ।
मानो यो वै गृह गमन से नन्द को रोकते थे ।
संक्षुब्धा हो सवल वहती थी जहाँ शोक-धारा ॥५॥

यानों से हो पृथक तज के संग भी साथियो का ।
थोड़े लोगो सहित गृह की ओर वे आ रहे थे ।
विक्षिप्तो सा वदन उनका आज जो देख लेता ।
हो जाता था बहु व्यथित औ था महा कष्ट पाता ॥६॥

ऑसू लाते कृशित हग से फूटती थी निराशा ।
छाई जाती बदन पर भी शोक की कालिमा थी ।
सीधे जो थे न पग पडते भूमि में वे बताते ।
चिन्ता द्वारा चलित उनके चित्त की वेदनाय ॥७॥

भादोवाली भयद रजनी सूचि - भेद्या अमा की ।
ज्यो होती है परम असिता छा गये मेघ-माला ।
त्योही सारे-ब्रज-सदन का हो गया शोक गाढा ।
तातो वाले व्रज नृपति को देख आता अकेले ॥८॥

एकाकी ही श्रवण करके कंत को गेह आता ।
दौडी द्वारे जननि हरि की क्षिप्त की भॉति आई ।
वोही आये ब्रज अधिप भी सामने शोक-मग्न ।
दोनो ही के हृदयतल की वदना थी समाना ॥९॥

आते ही वे निपतित हुई छिन्न मृला लता सी ।
पॉवों के सन्निकट पति के हो महा सिद्यमाना ।
संज्ञा आई फिर जब उन्हें यन द्वारा जनो के ।
रो रो हो हो बिकल पनि से यो व्यथा साथ वाली ॥१०॥

मालिनी छन्द
प्रिय - पति वह मेरा प्राणप्यारा कहाँ है ।
दुग्व - जलधि निमग्ना का सहारा कहाँ है ।
अब तक जिसको मै देख के जी सकी हूँ ।
वह हृदय हमारा नेत्र - तारा कहाँ है ॥११॥

पल पल जिसके मै पथ को देखती थी ।
निशि दिन जिसके ही ध्यान मे थी बिताती ।
उर पर जिसके है सोहती मजुमाला ।
वह नवनलिनी से नेत्रवाला कहाँ है ॥१२॥

मुझ विजित - जरा का एक आधार जो है ।
वह परम अनूठा रत्न सर्वस्व मेरा ।
धन मुझ निधनी का लोचनो का उॅजाला ।
सजल जलद की सी कान्तिवाला कहाँ है ।।१३।।

प्रति दिन जिसको मैं अंक में नाथ ले के ।
विधि लिखित कुअको की क्रिया कीलती थी ।
अति प्रिय जिसको है वस्त्र पीला निराला ।
वह किशलय के से अगवाला कहाँ है ।।१४॥

वर वदन विलोके फुल अंभोज ऐसा ।
करतल - गत होता व्योम का चद्रमा था ।
मृदु - रव जिसका है रक्त सूखी नसो का ।
वह मधु - मय - कारी मानसो का कहाँ है ।।१५।।

रस - मय वचनो से नाथ जो गेह मध्य ।
प्रति दिवस बहाता स्वर्ग - मदाकिनी था ।
मम सुकृति बरा का स्रोत जो था सुवा का ।
वह नव - धन न्यारी श्यामता का कहाँ है ॥१६॥


७६
प्रियप्रवास


स्वकुल जलज का है जो समुत्फुल्लकारी।
मम परम-निराशा-यामिनी का विनाशी।
व्रज-जन विहगो के वृन्द का मोद-दाता।
वह दिनकर शोभी रामभ्राता कहाँ है॥१७॥

मुख पर जिसके है सौम्यता खेलती सी।
अनुपम जिसका हूँ शील सौजन्य पाती।
परदुख लख के है जो समुद्विग्न होता।
वह कृति सरसी का स्वच्छ सोता कहाँ है॥१८॥

निविड़तम निराशा का भरा गेह में था।
वह किस विधु मुख की कान्ति को देख भागा।
सुखकर जिससे है कामिनी जन्म मेरा।
वह रुचिकर चित्रो का चितेरा कहाँ है॥१९॥

सह कर कितने ही कष्ट औ सकटो को।
वह यजन कराके पूज के निर्जरो को।
यक सुअन मिला है जो मुझे यत्न द्वारा।
प्रियतम! वह मेरा कृष्ण प्यारा कहाँ है॥२०॥

मुखरित करता जो सद्म को था शुको सा।
कलरव करता था जो खगो सा वनो मे।
सुध्वनित पिक सा जो वाटिका को बनाता।
वह बहु विध कठो का विधाता कहाँ है॥२१॥

सुन स्वर जिसका थे मत्त होते मृगादि।
तरुगरण-हरियाली थी महा दिव्य होती।
पुलकित बन जाती थी लसी पुष्प-क्यारी।
उस कल मुरली का नादकारी कहाँ है॥२२॥

जिस प्रिय वर को खो ग्राम सूना हुआ है ।
सदन सदन में हा! छा गई है उदासी ।
तम वलित मही में है न होता उॅजाला ।
वह निपट निराली कान्तिवाला कहाँ है ॥२३॥

वन वन फिरती है खिन्न गाये अनेको ।
शुक भर भर आँखे गेह को देखता है ।
सुधि कर जिसकी है शारिका नित्य रोती ।
वह श्रुचि रुचि,स्वाती मजु मोती कहाँ है ।।२४॥

गृह गृह अकुलाती गोप की पत्नियाँ है ।
पथ पथ फिरते है ग्वाल भी उन्मना हो ।
जिस कुँवर बिना मैं हो रही हूँ अधीरा ।
वह छवि खनि शोभी स्वच्छ हीरा कहाँ है ॥२५॥

मम उर कॅपता था कंस - आतक ही से ।
पल पल डरती थी क्या न जाने करेगा ।
पर परम - पिता ने की बड़ी ही कृपा है ।
वह निज कृत पापों से पिसा आप ही जो ॥२६॥

अतुलित बलवाले मल्ल कूटादि जो थे ।
वह गज गिरि ऐसा लोक - आतंक - कारी ।
अनु दिन उपजाते भीति थोड़ी नहीं थे ।
पर यमपुर - वासी आज वे हो चुके हैं ॥२७॥
 
भयप्रद जितनी थीं आपदाये अनेको ।
यक यक कर के वे हो गई दूर यो ही ।
प्रियतम! अनसोची ध्यान मे भी न आई ।
यह अभिनव कैसी आपदा आ पड़ी है ॥२८॥

मृद किशलय ऐसा पंकजो के दलो सा ।
वह नवल सलोने गात का तात मेरा ।
इन सब पवि ऐसे देह के दानवो का ।
कब कर सकता था नाश कल्पान्त मे भी ।।२९।।

पर हृदय हमारा ही हमे है बताता ।
सब शुभ - फल पाती हूँ किसी पुण्य ही का ।
वह परम अनूठा पुण्य ही पापनाशी ।
इस कुसमय मे है क्यो नही काम आता ॥३०।।

प्रिय - सुअन हमारा क्यो नही गेह आया ।
वर नगर छटाये देख के क्या लुभाया? ।
वह कुटिल जनो के जाल में जा पड़ा है ।
प्रियतस! उसको या राज्य का भोग भाया ।।३१।।

मधुर वचन से औ भक्ति भावादिको से ।
अनुनय विनयो से प्यार की उक्तियो से ।
सब मधुपुर - वासी बुद्धिशाली जनो ने ।
अतिशय अपनाया क्या ब्रजाभूषणो को ? ॥३२॥

बहु विभव वहाँ का देख के श्याम भूला ।
वह विलम गया या वृन्द मे बालको के ।
फॅस कर जिस मे हा! लाल छूटा न मेरा ।
सुफलक - सुत ने क्या जाल कोई विछाया ॥३३॥

परम शिथिल हो के पंथ की क्लान्तियो से ।
यह ठहर गया है क्या किसी वाटिका मे ।
प्रियतम! तुम से या दूसरो से जुदा हो ।
वह भटक रहा है क्या कहीं मार्ग ही में ।।३४।।

विपुल कलित कुजे भानुजा कूलवाली ।
अतुलित जिनमे थी प्रीति मेरे प्रियो की ।
पुलकित चित से वे क्या उन्हीमे गये है ।
कतिपय. दिवसो की श्रान्ति उन्मोचने को ॥३५॥

विविध सुरभिवाली मण्डली वालको की ।
मम युगल सुतो ने क्या कही देख पाई ।
निज सुहृद जनो मे वत्स मे धेनुओ मे ।
बहु विलम गये वे क्या इसीसे न आये ? ॥३६॥

निकट अति अनूठे नीप फूले फले के ।
कलकल बहती जो धार है भानुजा की ।
अति - प्रिय सुत को है दृश्य न्यारा वहाँ का ।
वह समुद उसे ही देखने क्या गया है ? ॥३७॥

सित सरसिज ऐसे गात के श्याम भ्राता ।
यदुकुल जन है औ वश के हैं उजाले ।
यदि वह कुलवालो के कुटुम्वी बने तो ।
सुत सदन अकेले ही चला क्यो न आया ॥३८॥

यदि वह अति स्नेही शील सौजन्य शाली ।
तज कर निज भ्राता को नहीं गेह आया ।
ब्रजअवनि बता दो नाथ तो क्यो बसेगी ।
यदि वदन विलोकोगी न मैं क्यों बनूंगी ॥३९।।

प्रियतम! अब मेरा कंठ मे प्राण आया ।
सच सच बतला दो प्राण प्यारा कहाँ है ?
यदि मिल न सकेगा जीवनाधार मेरा ।
तब फिर निज पापी प्राण में क्यों रखूॅगी ॥४०॥

विपुल धन अनेकों रत्न हो साथ लाये।
प्रियतम! बतला दो लाल मेरा कहाँ है।
अगणित अनचाहे रत्न ले क्या करूँगी।
मम परम अनूठा - लाल ही नाथ ला दो ॥४१॥

उस वर - धन को मैं मॉगती चाहती हूँ।
उपचित जिससे है वंश की वेलि होती ।
सकल जगत प्राणी मात्र का बीज जो है।
भव - विभव जिसे खो है वृथा 'जात होता ॥४२॥

इन अरुण प्रभा के रंग के पाहनो की ।
प्रियतम! घर मेरे कौन सी न्यूनता है।
प्रति पल उर मे है लालसा वद्धमाना।
उस परम निराले लाल के लाभ ही की ॥४३॥

युग हग जिससे है स्वर्ग सी ज्योति पाते।
उर तिमिर भगाता जो प्रभापुंज से है।
कल द्युति जिसकी है चित्त उत्ताप खोती।
वह अनुपम हीरा नाथ मैं चाहती हूँ ॥४४॥

कटि - पट लख पीले रत्न दूंगी लुटा मै ।
तन पर सब नीले रत्न को वार दूंगी।
सुत - मुख - छवि न्यारी आज जो देख पाऊँ।
बहु अपर अनूठे रल भी बॉट दूंगी ॥४५॥

धन विभव सहस्रो रत्न । सतान देखे।
रज कण सम हैं औ तुच्छ हैं वे तृणो से।
पति इन , सब को त्यो पुत्र को त्याग लाये।
मणि-नाण तज लावे गेह ज्यो . कॉच कोई॥४६॥

परम - सुयश वाले कोशलाधीश हा ।
प्रिय - सुत वन जाते ही नहीं जी सके जो ।
यह हृदय हमारा वज्र से ही बना है ।
वह तुरत नहीं जो सैकडो खड होता ॥४७॥

निज प्रिय मणि को जो सर्प खोता कभी है ।
तडप तड़प के तो प्राण है त्याग देता ।
मम सदृश मही मे कौन पापीयसी है ।
हृदय - मणि गॅवा के नाथ जो जीविता हूँ ॥४८।।

लघुतर - सफरी भी भाग्य वाली बडी है ।
अलग सलिल से हो प्राण जो त्यागती है ।
अहह अवनि मे मै हूँ महा भाग्यहीना ।
अव तक बिछुडे जो लाल के जी सकी हूँ ॥४९।।

परम पतित मेरे पातकी - प्राण ए है ।
यदि तुरत नहीं है गात को त्याग देते ।
अहह दिन न जाने कौन सा देखने को ।
दुग्यमय तन में ए निर्ममो से रुके हैं ॥५०॥

विधिवश इन में हा! शक्ति बाकी नहीं है ।
तन तज सकने की, हो गये क्षीण ऐसे ।
वह इस अवनी मे भाग्यवाली बडी है ।
अवसर पर सोवे मृत्यु के अक में जो ॥५१॥

बहु कलप चुकी हूँ दग्ध भी हो चुकी हूँ ।
जग कर कितनी ही रात मे गे चुकी हैं ।
अब न हृदय में है रक्त का लेश बाकी ।
तन वल सुस थाना में सभी सो चुकी हूँ॥५२॥

विधु मुख अवलोके मुग्ध होगा न कोई ।
न सुखित ब्रजवासी कान्ति को देख होगे ।
यह अवगत होता है सुनी वात द्वारा ।
अब बह न सकेगी शान्ति - पीयूष धारा ।।५३।।

सब दिन अति - सूना ग्राम सारा लगेगा ।
निशि दिवस बडी ही खिन्नता से कटेगे ।
समधिक व्रज मे जो छा गई है उदासी ।
अब वह न टलेगी औ सदा ही खलेगी ॥५४॥

बहुत सह चुकी हूँ और कैसे सहूँगी ।
पवि सहश कलेजा मैं कहाँ पा सकूँगी ।
इस कृशित हमारे गात को प्राण त्यागो ।
वन विवश नही, तो. नित्य रो रो मरूँगी ।।५५।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
हा! वृद्धा के अतुल धन हा! वृद्धता के सहारे ।
हा! प्राणो के परम - प्रिय हा! एक मेरे दुलारे ।
हा! शोभा के सदन सम हा! रूप लावण्यवाले ।
हा! बेटा हा! हृदय - धन हा! नेत्र-तारे हमारे ॥५६॥

कैसे होके अलग तुझसे आज भी मैं बची हूँ ।
जो मै ही हूँ समझ न सकी तो तुझे क्यो बताऊँ ।
हाँ जीऊँगी न अब, पर है वेदना एक होती ।
तेरा प्यारा वदन मरती बार मैंने न देखा ॥५७।।

यो ही बातें स-दुख कहते अश्रुधारा बहाते ।
धीरे धीरे यशुमति लगी चेतना - शून्य होने ।
जो प्राणी थे निकट उनके या वहॉ, भीत होके ।
नाना यत्नो सहित उनको वे लगे बोध देने ।।५८।।

आवेगो से बहु विकल तो नन्द थे पूर्व ही से ।
कान्ता को यो व्यथित लख के शोक मे और डूबे ।
बोले ऐसे वचन जिनसे चित्त में शान्ति आवे ।
आशा होवे उदय उर में नाश पावे निराशा ।।५९।।

धीरे धीरे श्रवण करके नन्द की वात प्यारी ।
जाते जो थे वषुप तज के प्राण वे लौट आये ।
आँखे खोली हरि - जननि ने कष्ट से, और बोलीं ।
क्या आवेगा कुँवर ब्रज मे नाथ दो ही दिनों मे ।।६०।।

सारी बाते व्यथित उर की भूल के नन्द बोले ।
हाँ आवेगा प्रिय - सुत प्रिये गेह दो ही दिनों में ।
ऐसी बाते कथन कितनी और भी नन्द ने की ।
जैसे तैसे हरि - जननि को धीरता से प्रवोधा ॥६१॥

जैसे स्वाती-सलिल-कण पा वृष्टि का काल वीते ।
थोड़ी सी है परम तृपिता चातकी शान्ति पाती ।
वैसे आना श्रवण करके पुत्र का दो दिनों मे ।
संज्ञा खोती यशुमति हुई स्वल्प आश्वासिता सी ॥६२॥

पीछे बातें कलप कहती कॉपती कष्ट पाती ।
आई लेके स्वप्रिय पति को सद्म मे नंद-वामा ।
आशा की है अमित महिमा धन्य है दिव्य आशा ।
जो छू के है मृतक बनते प्राणियो को जिलाती ॥६३॥

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