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प्रियप्रवास/एकादश सर्ग

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ २०९ से – २२५ तक

 


मालिनी छन्द
यक दिन छवि - शाली अर्कजा - कूल - वाली ।
नव - तरु - 'चय- शोभी - कुंज के मध्य बैठे ।
कतिपय ब्रज भू के भावुको को विलोक ।
बहु - पुलकित ऊधो भी वहीं जा विराजे ॥१॥

प्रथम सकल - गोपो ने उन्हें भक्ति- द्वारा ।
स - विधि शिर नवाया प्रेम के साथ पूजा ।
भर भर निज - आँखो मे कई बार ऑसू ।
फिर कह मृदु - बाते श्याम - सन्देश. पूछा ॥२॥

परम - सरसता से स्नेह से स्निग्धता से ।
तब जन - सुख - दानी का सु-सम्वाद प्यारा ।
प्रवचन - पटु ऊधो ने सबो को सुनाया ।
कह कह हित बाते शान्ति दे दे प्रबोधा ।।३।।

सुन कर निज - प्यारे का समाचार सारा ।
अतिशय - सुख पाया गोप की, मंडली ने ।
पर प्रिय - सुधि आये प्रेम - प्राबल्य द्वारा ।
कल समय रही सो मौन हो उन्मना सी ॥४॥

फिर बहु मृदुता से स्नेह से धीरता से।
उन स-हृदय गोपो मे बड़ा-वृद्ध जो था।
वह ब्रज-धन प्यारे-बंधु को मुग्ध-सा हो।
निज सु-ललित बातो को सुनाने लगा यों॥५॥

वशस्थ छन्द
प्रसून यो ही न मिलिन्द वृन्द को।
विमोहता औ करता प्रलुब्ध है।
वरंच प्यारा उसका सु-गंध ही।
उसे बनाता बहु-प्रीति-पात्र है॥६॥

विचित्र ऐसे गुण हैं ब्रजेन्दु के।
स्वभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
निबद्ध सी है जिनमे नितान्त ही।
ब्रजानुरागीजन की विमुग्धता॥७॥

स्वरूप होता जिसका न भव्य है।
न वाक्य होते जिसके मनोज्ञ हैं।
मिली उसे भी भव-प्रीति सर्वदा।
प्रभूत प्यारे गुण के प्रभाव से॥८॥

अपूर्व जैसा धन-श्याम-रूप है।
तथैव वाणी-उनकी रसाल है।
निकेत वे है गुण के, विनीत है।
विशेष होगी उनमे न प्रीति क्यो॥९॥

सरोज है दिव्य-सुगंध से भरा।
नृलोक मे सौरभवान स्वर्ण है।
सु-पुष्प से सज्जित पारिजात है।
मयंक है श्याम बिना कलंक का॥१०॥

कलिन्दजा की कमनीय - धार जो।
प्रवाहिता है भवदीय - सामने।
उसे बनाता पहले विषाक्त था।
विनाश - कारी विष - कालिनाग का ॥११॥

जहाँ सुकल्लोलित उक्त धार है।
वही बड़ा - विस्तृत एक कुण्ड है।
सदा उसीमें रहता भुजंग था।
भुजंगिनी संग लिये सहस्रशः ॥१२॥

मुहुर्मुहुः सर्प - समूह - श्वास से।
कलिन्दजा का कॅपता प्रवाह था।
असंख्ये फूत्कार प्रभाव से सदा ।
विषाक्त होता सरिता सदम्बु था ॥१३।।

दिखा रहा सम्मुख जो कदम्ब है।
कही इसे छोड़ न एक वृक्ष था।
द्वि - कोस पर्यंत द्वि - कूल भानुजा।
हरा भरा था . न प्रशंसनीय था ॥१४॥

कभी यहाँ का भ्रम या प्रमाद से।
कदम्बु पीता यदि था विहंग भी।
नितान्त तो व्याकुल औ विपन्न हो।
तुरन्त ही था प्रिय - प्राण त्यागता ।।१५।।

बुरा यहाँ का जल पी, सहस्रशः।
मनुष्य होते प्रति - वर्प नष्ट थे।
कु - मृत्यु पाते इस ठौर नित्य ही।
अनेकशः गो, मृग, कीट कोटिशः ॥१६॥

रही न जाने किस काल से लगी ।
व्रजापगा मे यह व्याधि - दुर्भगा ।
किया उसे दूर मुकुन्द देव ने ।
विमुक्ति सर्वस्व - कृपा - कटाक्ष से ॥१७॥

बढ़े दिवानायक की दुरन्तता ।
अनेक - ग्वाले सुरभी समूह ले ।
महा पिपासातुर एक बार हो ।
दिनेशजा वर्जित कूल पै गये ॥१८॥

परन्तु पी के जल ज्यो स - धेनु वे ।
कलिन्दजा के उपकूल - से बढ़े ।
अचेत त्योही सुरभी समेत हो ।
जहाँ तहाँ भूतल - अंक मे गिरे ॥१९॥

कढ़े इसी ओर स्वयं इसी घड़ी ।
ब्रजांगना - वल्लभ दैव - योग से ।
वचा जिन्होने अति - यत्न से लिया ।
विनष्ट होते बहु - प्राणि - पुंज को ॥२०॥

दिनेशजा दूषित - वारि - पान से ।
विडम्बना थी यह हो गई यत ।
अत: इसी काल यथार्थ - रूप से ।
व्रजेन्द्र को ज्ञान हुआ फणीन्द्र का ॥२१॥

स्व - जाति की देख अतीव दुर्दशा ।
विगर्हणा. देख मनुष्य - मात्र की ।
विचार के प्राणि - समूह - कष्ट को ।
हुए समुत्तेजित वीर - केशरी ॥२२॥



हितैषणा से निज - जन्म - भूमि की ।
अपार - आवेश हुआ ब्रजेश को ।
बनी महा बंक गॅठी हुई भवें ।
नितान्त - विस्फारित नेत्र हो गये ॥२३॥

इसी घड़ी निश्चित श्याम ने किया ।
सशंकता त्याग अशंक - चित्त से ।
अवश्य निर्वासन ही विधेय है ।
भुजंग का भानु - कुमारिकांक से ।।२४॥

अतः करूँगा यह कार्य मै स्वयं ।
स्व - हस्त मे दुर्लभ प्राण को लिये ।
स्व - जाति औ जन्म-धरा निमित्त मैं ।
न भीत हूँगा विकराल - व्याल से ॥२५॥

सदा करूँगा अपमृत्यु सामनाक्ष ।
स - भीत हूँगा न सुरेन्द्र - वज्र से ।
कभी करूॅगा अवहेलना न मै ।
प्रधान • धर्माङ्ग - परोपकार की ॥२६॥

प्रवाह होते तक शेष - श्वास के ।
स - रक्त होते तक एक भी शिरा ।
स - शक्त होते तक एक लोम के ।
किया करूँगा हित सर्वभूत का ॥२७॥

निदान न्यारे - पण सूत्र मे बँधे ।
ब्रजेन्दु आये दिन दूसरे यही ।
दिनेश - आभा इस काल - भूमि को ।
बना रही थी महती - प्रभावती ॥२८॥

मनोज्ञ था काल द्वितीय याम था ।
प्रसन्न था व्योम दिशा प्रफुल्ल थी ।
उमंगिता थी सित - ज्योति - संकुला ।
तरंग - माला - मय - भानु-नन्दिनीं ॥२९॥

विलोक सानन्द सु - व्योम मेदिनी ‌।
खिले हुए - पंकज पुष्पिता लता ।
अतीव - उल्लासित हो स्व - वेणु ले ।
कदम्ब के ऊपर श्याम जा चढ़े ॥३०॥

कँपा सु - शाखा बहु पुष्प को गिरा ।
पुन पड़े कूद प्रसिद्ध कुण्ड मे ‌।
हुआ समुद्भिन्न प्रवाह वारि का ।
प्रकम्प - कारी व व्योम मे उठा ॥३१॥

अपार - कोलाहल ग्राम में मचा ।
विषाद फैला व्रज सहा - सद्म मे ।
ब्रजेश हो व्यस्त--समस्त दौड़ते ।
खड़े हुए आ कर उक्त कुण्ड पै ॥३२॥

असंख्य-प्राणी व्रज - भूप साथ ही ।
स- वेग आये हग - वारि मोचते ।
ब्रजांगना साथ लिये सहस्रश ‌।
बिसूरती आ पहुँची ब्रजेश्वरी ॥३३॥

द्वि - दंड मे ही जनता - समूह से ।
तमारिजा का तट पूर्ण हो गया ।
प्रकम्पिता हो बन मेदिनी उठी ।
विषादिता के वहु - आर्त-नादसे ॥३४॥

कभी कभी क्रन्दन - घोर - नाद को।
विभेद होती श्रुति - गोचरा रही।
महा-सुरीली - ध्वनि श्याम वेणु की।
प्रदायिनी शान्ति विषाद - मर्दिनी ॥३५।।

व्यतीत यो ही घड़ियाँ कई हुई।
पुनः स - हिल्लोल हुई. पतंगजा।
प्रवाह उद्भदित अंत मे हुआ।
दिखा महा अद्भुत - दृश्य सामने ॥३६॥

कई फनो का अति ही भयावना।
महा - कदाकार अश्वेत - शैल सा।
बड़ा - बली एक फणीश अंक से।
कलिन्दजा के कढ़ता दिखा पड़ा ॥३७॥

विभीषणाकार - प्रचण्ड - पन्नगी।
कई बड़े - पन्नग, नाग साथ ही।
विदार के वक्ष विषाक्त - कुण्ड का।
प्रमत्त से थे कढ़ते शनैः शनैः ॥३८॥

फणीश शीशोपरि राजती रही।
सु - मूर्ति शोभा-मय श्री मुकुन्द की।
विकीर्णकारी कल - ज्योति - चक्षु थे।
अतीव - उत्फुल्ल मुखारविन्द था ॥३९॥

विचित्र थी शीश किरीट की प्रभा।
कसी हुई थी कटि मे सु - काछनी।
दुकूल से शोभित कान्त कन्ध था।
विलम्बिता थी वन - माल कण्ठ मे ॥४०॥

अहीश को नाथ विचित्र - रीति से ।
स्व - हस्त मे थे वर - रज्जु को लिये ।
बजा रहे थे मुरली मुहुर्मुहु ।
प्रबोधिनी - मुग्धकरी - विमोहिनी ॥४१॥

समस्त-प्यारा - पट सिक्त था हुआ ।
न भीगने से वन - माल थी बची ।
गिरा रही थी अलके नितान्त ही ।
विचित्रता से वर - बूंद वारि की ॥४२॥

लिये हुए सर्प - समूह श्याम ज्यो ।
कलिन्दजा कम्पित अंक से कढ़े ।
खड़े किनारे जितने मनुष्य थे ।
सभी महा शंकित - भीत हो उठे ।।४३।।

हुए कई मूर्छित घोर - त्रास से ।
कई भगे भूतल मे गिरे कई ।
हुईं यशोदा अति ही प्रकम्पिता ।
ब्रजेश भी व्यस्त - समस्त हो गये ॥४४॥

विलोक सारी - जनता भयातुरा ।
मुकुन्द ने एक विभिन्न - मार्ग से ।
चढ़ा किनारे पर सर्प - यूथ को ।
उसे बढ़ाया वन - ओर वेग से ॥४५॥

ब्रजेन्द्र के अद्भुत - वेणु - नाद से ।
सतर्क - संचालन से सु- युक्ति से ।
हुए वशीभूत समस्त सर्प थे ।
न अल्प होते प्रतिकूल थे कभी ॥४६॥

अगम्य - अत्यन्त समीप शैल के ।
जहाँ हुआ कानन था, ब्रजेन्द्र ने ।
कुटुम्ब के साथ वहीं अहीश को ।
सदर्प दे के यम - यातना तजा ।। ४ ।।

न नाग काली तब से दिखा पड़ा ।
हुई तभी से यमुनाति निर्मला ।
समोद लौटे सब लोग सद्म को ।
प्रमोद सारे - ब्रज - मध्य छा गया ॥४८॥

अनेक यो है । कहते फणीश को ।
स - वंश मारा वन मे मुकुन्द ने ।
कई मनीषी यह है विचारते ।
छिपा पड़ा है वह गत मे किसी ॥४९॥

सुना गया है यह भी अनेक से ।
पवित्र - भता - ब्रज - भूमि त्याग के ।
चला गया है वह और ही कही ।
जनोपघाती विष - दन्त - हीन हो ॥५०॥

प्रवाद जो हो यह किन्तु सत्य है ।
स - गर्व मै हूँ कहता प्रफुल्ल हो ।
ब्रजेन्दु से ही ब्रज - व्याधि है टली ।
बनी फणी - हीन पतंग - नन्दिनी ॥५१॥

वही महा - धीर असीम - साहसी ।
सु - कौशली मानव-रत्न दिव्य-धी ।
अभाग्य से है ब्रज से जुदा हुआ ।
सदैव होगी न व्यथा - अतीव क्यो ॥५२॥

मुकुन्द का है हित चित्त मे भरा ।
पगा हुआ है प्रति - रोम प्रेम मे ।
भलाइयाँ है उनकी बड़ी बड़ी ।
भला उन्हे क्यो व्रज भूल जायगा ॥५३॥

जहाँ रहे श्याम सदा सुखी रहे ।
न भूल जावे निज - तात - मात को ।
कभी कभी आ मुख-मंजु को दिखा ।
रहे जिलाते ब्रज - प्राणि पुंज को ॥५४॥

द्रुतविलम्बित छन्द
निज मनोहर भाषण वृद्ध ने ।
जब समाप्त किया बहु - मुग्ध हो ।
अपर एक प्रतिष्ठित - गोप यो ।
तब लगा कहने सु-गुणावली ।।५५।।

वंशस्थ छन्द
निदाघ का काल महा - दुरन्त था ।
भयावनी थी रवि - रश्मि हो गयी ।
तवा समा थी तपती वसुंधरा ।
स्फुलिंग- बर्षारत तप्त व्योम था ॥५६।।

प्रदीप्त थी अग्नि हुई दिगन्त मे ।
ज्वलन्त था आतप ज्वाल - माल-सा ।
पतंग की देख महा - प्रचण्डता ।
प्रकम्पितो पादप - पुंज - पंक्ति थी ॥५७॥

रजाक्त आकाश दिगन्त को बना ।
असंख्य वृक्षावलि मर्दनोद्यता ।
मुहुर्मुहु. उद्धत हो निनादिता ।
प्रवाहिता थी . पवनाति - भीषणा ।।५८।।

विदग्ध हो के कण - धूलि राशि का ।
हुआ तपे लौह करणा समान था ।
प्रतप्त - बालू - इव दग्ध - भाड़ की ।
भयंकरी थी महि - रेणु हो गई ॥५९।।

असह्य उत्ताप दुरंत था हुआ ।
महा समुद्विग्न मनुष्य मात्र था ।
शरीरियो की प्रिय-शान्ति - नाशिनी ।
निदाघ की थी अति - उग्र - ऊष्मता ॥६०॥

किसी घने - पल्लववान - पेड़ की -
प्रगाढ़ - छाया अथवा सुकुंज में ।
अनेक प्राणी करते व्यतीत थे ।
स - व्यग्रता ग्रीष्म दुरन्त - काल को ।।६१।।

अचेत सा निद्रित हो स्व - गेह मे ।
पड़ा हुआ मानव का समूह था ।
न जा रहा था जन , एक भी कही ।
अपार निस्तब्ध समस्त ग्राम था ॥६२।।

स्व - शावको साथ स्वकीय- नीड़ में ।
अबोल हो के खग - वृंद था पड़ा ।
स - भीत मानो वन दीर्घ दाघ से ।
नहीं गिरा भी तजती - स्व-गेह थी ॥६३।।

सु - कुंज मे या वर - वृक्ष के तले ।
अरात हो थे पशु पंगु से पड़े ।
प्रतप्त - भू मे गमनाभिशंकया ।
पदांक को थी गति त्याग के भगी ॥६४॥

प्रचंड लू थी अति - तीव्र घाम था ।
मुहुर्मुहुः गर्जन था समीर का ।
विलुप्त हो सर्व - प्रभाव - अन्य का ।
निदाघ का एक अखंड - राज्य था ॥६५।।

अनक गो - पालक वत्स धेनु ले ।
बिता रहे थे बहु शान्ति - भाव से ।
मुकुन्द ऐसे अ - मनोज्ञ - काल को ।
वनस्थिता - एक - विराम कुंज मे ॥६६।।

परंतु प्यारी यह शांति श्याम की ।
विनष्ट औ भंग हुई तुरन्त ही ।
अचिन्त्य - दूरागत - भूरि - शब्द से ।
अजस्र जो था अति घोर हो रहा ॥६७॥

पुन पुन कान लगा लगा सुना ।
ब्रजेन्द्र ने उत्थित घोर - शब्द को ।
अत उन्हे ज्ञात तुरन्त हो गया ।
प्रचंड - दावा वन - मध्य है लगी ॥६८।।

गये उसी ओर अनेक - गोप थे ।
गवादि ले के कुछ - काल - पूर्व ही ।
हुई इसी से निज बंधु - वर्ग की ।
अपार चिन्ता ब्रज - व्योम - चंद्र को ।।६९।।

अत विना ध्यांन किये प्रचंडता ।
निदाघ की पूपण की समीर की ।
ब्रजेन्द्र दौड़े तज शान्ति - कुंज को ।
सु - साहसी गोप समूह संग ले ॥७०।।

निकुंज से बाहर श्याम ज्यों कढ़े ।
उन्हे महा पर्वत धूमपुंज का ।
दिखा पड़ा दक्षिण ओर सामने ।
मलीन जो था करता दिगन्त को ।।७१।।

अभी गये वे कुछ दूर मात्र थे ।
लगी दिखाने लपटें भयावनी ।
वनस्थली बीच प्रदीप्त वह्नि की ।
मुहुर्मुहुः व्योम - दिगन्त - व्यापिनी ॥७२।।

प्रवाहिता उद्धत तीव्र वायु से ।
विधूनिता हो लपटे दवाग्नि की ।
नितान्त ही थी बनती भयंकरी ।
प्रचंड - दावा - प्रलयंकरी - समा ॥७३॥

अनन्त थे पादप दग्ध हो रहे ।
असंख्य गाठे फटती स - शब्द थी ।
विशेषतः वंश - अपार - वृक्ष की ।
बनी महा - शब्दित थी वनस्थली ॥७४।।

अपार पक्षी पशु त्रस्त हो महा ।
स - व्यग्रता थे सब ओर दौड़ते ।
नितान्त हो भीत सरीसृपादि भी ।
बने महा- व्याकुल भाग थे रहे ।।७५।।

समीप जा के बलभद्र • बंधु ने ।
वहाँ महा - भीषण-काण्ड जो लखा ।
प्रवीर है कौन त्रि - लोक मध्य जो ।
स्व - नेत्र से देख उसे न कॉपता ॥७६।।

प्रचंडता मे रवि की दवाग्नि की ।
दुरन्तता थी अति ही विवर्द्धिता ।
प्रतीति होती उसको विलोक के ।
विदग्ध होगी ब्रज की वसुंधरा ॥७७॥

पहाड़ से पादप तूल पुंज से ।
स - मूल होते पल मध्य भस्म थे ।
बड़े- बड़े प्रस्तर खंड वह्नि से ।
तुरन्त होते तृण - तुल्य दग्ध थे ॥७८‌‌।।

अनेक पक्षी उड़ व्योम - मध्य भी ।
न त्राण थे पा सकते शिखाग्नि से ।
सहस्रशः थे पशु प्राण त्यागते ।
पतंग के तुल्य पलायनेच्छु हो ।॥७९॥

जला किसी का पग पूंँछ आदि था ।
पड़ा किसी का जलता शरीर था ।
जले अनेको जलते असंख्य थे ।
दिगन्त था आत - निनाद से भरा ।।८०।।

भयंकरी - प्रज्वलिताग्नि की शिखा ।
दिवांधता - कारिणि राशि धूम की ।
वनस्थली मे बहु - दूर - व्याप्त थी ।
नितान्त घोरा ध्वनि त्रास - वर्द्धिनी ॥८१॥

यही विलोका करुणा - निकेत ने ।
गवादिके साथ स्व - बन्धु - वर्ग को ।
शिखाग्नि द्वारा जिनकी शनैः शनैः ।
विनष्ट संज्ञा अधिकांश थी हुई ॥८२।।

निरंर्थ चेष्टा करते विलोक के ।
उन्हे स्व - रक्षार्थ दवाग्नि - गर्भ से ।
दया बड़ी ही ब्रज - देव को हुई ।
विशेषतः देख उन्हे अशक्त - सा ।।८३।।

अतः सबो से यह श्याम ने कहा ।
स्व - जाति - उद्धार महान - धर्म है ।
चलो करे पावक मे प्रवेश औ ।
स - धेनु लेवे निज - जाति को वचा ॥८४॥

विपत्ति से रक्षण सर्व - भूत का ।
सहाय होना अ - सहाय जीव का ।
उबारना सकट से स्व - जाति का ।
मनुष्य का सर्व - प्रधान धर्म है ।।८५।।

बिना न त्यागे ममता स्व - प्राण की ।
बिना न जोखो ज्वलदग्नि मे पड़े ।
न हो सका विश्व - महान - कार्य है ।
न सिद्ध होता भव - जन्म हेतु है ॥८६॥

बढ़ो करो वीर स्व - जाति का भला ।
अपार दोनो विध लाभ है हमे ।
किया स्व - कर्तव्य उबार जो लिया ।
सु - कीर्ति पाई यदि भस्म हो गये ।।८७॥

शिखाग्नि से वे सब ओर है घिरे ।
बचा हुआ एक दुरूह - पंथ है ।
परन्तु होगी यदि स्वल्प - देर तो ।
अगम्य होगा यह शेष - पंथ भी ॥८८।।

अत न है और विलम्ब मैं माना ।
प्रवृत्त हो शीघ्र स्व - कार्य मे लगो ।
स - धेनु के जो न इन्हे वचा सके ।
बनी रहेगी · अपकीर्ति तो सदा ।।८९।‌।

ब्रजेन्दु ने यद्यपि तीव्र - शब्द मे ।
किया समुत्तेजित गोप - वृन्द को ।
तथापि साथी उनके स्व - कार्य मे ।
न हो सके लग्न यथार्थ - रीति से ॥९०॥

निदाघ के भीषण उग्र - ताप से ।
स्व-धैर्य थे वे अधिकांश खो चुके ।
रहे - सहे साहस को दवाग्नि ने ।
किया समुन्मूलन सर्व - भॉति था ।९१।।

असह्य होती उनको अतीव थी ।
कराल - ज्वाला तन- दग्ध-कारिणी ।
विपत्ति से संकुल उक्त - पंथ भी ।
उन्हे बनाता भय - भीत भूरिश ।।९२।‌।

अतः हुए लोग नितान्त भ्रान्त थे ।
विलोप होती सुधि थी शनै शनै ।
ब्रजांगना-वल्लभ के निदेश से ।
स - चेष्ट होते भर वे क्षणेक थे ।।९३।।

स्व - साथियो की यह देख दुर्दशा ।
प्रचंड - दावानल मे प्रवीर से ।
स्वयं धॅसे श्याम दुरन्त - वेग से ।
चमत्कृता सी वन - भूमि को वना ।।९४॥

प्रवेश के बाद स - वेग ही कढ़े।
समस्त - गोपालक - धेनु संग वे।
अलौकिक-स्फूर्ति दिखा त्रि-लोक को।
वसुंधरा मे कल - कीर्ति वेलि बो ॥९५।।

बचा सबों को बलवीर ज्यो कढ़े।
प्रचंड - ज्वाला - मय - पंथ त्यो हुआ।
विलोकते ही यह काण्ड श्याम को।
सभी लगे आदर दे सराहने ॥९६।।

अभागिनी है ब्रज की वसुंधरा ।
बड़े - अभागे हम गोप लोग है।
हरा गया कौस्तुभ जो ब्रजेश का ।
छिना करो से ब्रज - भूमि रत्न जो ॥९७।।

न वित्त होता धन रत्न डूबता।
असंख्य गो - वंश-स - भूमि छूटता ।
समस्त जाता तब भी न शोक था।
सरोज सा आनन जो विलोकता ॥९८॥

अतीव - उत्कण्ठित सर्व - काल हूँ।
विलोकने को यक - बार और भी।
मनोज्ञ - वृन्दावन - व्योम - अंक मे।
उगे हुए आनन - कृष्णचन्द्र को ॥९९॥


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