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प्रियप्रवास/द्वादश सर्ग

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ २२६ से – २४२ तक

 

मन्दाक्रान्ता छन्द
उधो को यों स - दुख जब थे गोप बाते सुनाते ।
आभीरो का यक - दल नया वॉ उसी-काल आया ।
नाना - बाते विलख उसने भी कही खिन्न हो हो ।
पीछे प्यारा - सुयश स्वर से श्याम का यो सुनाया ॥१।।

द्रुतविलम्बित छन्द
सरस - सुन्दर - सावन - मास था ।
घन रहे नभ मे घिर - घूमते ।
विलसती बहुधा जिनमे रही ।
छविवती - उड़ती - बक - मालिका ।।२।।

घहरता गिरि - सानु समीप था ।
बरसता छिति - छु नव- वारि था ।
घन कभी रवि- अंतिम - अंशु ले ।
गगन मे रचता बहु · चित्र था ।।३।।

नव - प्रभा परमोज्वल - लीक सी ।
गति - मति कुटिला- फणिनी - समा ।
दमकती दुरती घन - अंक मे ।
विपुल केलि - कला खनि दामिनी ॥४॥

विविध - रूप धरे नभ मे कभी ।
विहरता वर - वारिद - व्यूह था ।
वह कभी करता रस सेक था ।
बन सके जिससे सरसा - रसा ॥५॥

सलिल - पूरित थी सरसी हुई।
उमड़ते पड़ते सर - वृन्द थे।
कर - सुप्लावित कूल प्रदेश को।
सरित थी स - प्रमोद प्रवाहिता ॥६॥

वसुमती पर थी अति - शोभिता।
नवल कोमल - श्याम - तृणावली।
नयन - रंजनता मृदु - मूर्ति थी।
अनुपमा - तरु - राजि - हरीतिमा ॥७॥

हिल, लगे मृदु - मन्द - समीर के।
सलिल - विन्दु गिरा सुठि अंक से।
मन रहे किसका नः विमोहते।
जल - धुले दल - पादप पुंज के ॥८॥

विपुल मोर लिये बहु - मोरिनी।
विहरते सुख से स · विनोद थे।
मरकतोपम पुच्छ - प्रभाव से।
मणि - मयी कर कानन कुंज को ॥९॥

बन प्रमत्त . समान पपीहरा।
पुलक के उठता कहं पी कहाँ।
लख वसंत - विमोहक - मंजुता।
उमग कूक रहा पिक - पुंज था ॥१०॥

स - रव पावस - भप - प्रताप जो।
सलिल · मे कहते बहु भेक थे।
विपुल • झीगुर तो थल' मे उसे।
धुन लगा करते नित गान थे ॥११॥

सुखद - पावस के प्रति सर्व की ।
प्रकट सी करती अति - प्रीति थी ।
वसुमती - अनुराग - स्वरूपिणी ।
विलसती - बहु - वीर वहूटियाँ ॥१२॥

परम - म्लान हुई बहु - वेलि को ।
निरख के फलिता अति - पुष्पिता ।
सकल के उर मे रम सी गई ।
सुखद - शासन की उपकारिता ॥१३॥

विविध - आकृति औ फल फूल की ।
उपजती अवलोक सु - बूटियाँ ।
प्रकट थी महि - मण्डल मे हुई ।
प्रियकरी - प्रतिपत्ति - पयोद की ॥१४॥

रस - मयी भव - वस्तु विलोक के ।
सरसता लख भूतल - व्यापिनी ।
समझ है पड़ता बरसात मे ।
उदक का रस नाम यथार्थ है ।।१५।।

मृतक - प्राय हुई तृण - राजि भी ।
सलिल से फिर जीवित हो गई ।
फिर सु - जीवन जीवन को मिला ।
वुध न जीवन क्यो उसको कहे ।।१६।।

ब्रज - धरा यक बार इन्ही दिनो ।
पतित थी दुख - वारिधि मे हुई ।
पर उसे अवलम्बन था मिला ।
ब्रज - विभूषण के भुज- पोत का ॥१७॥

दिवस एक प्रभंजन का हुआ।
अति - प्रकोप, घटा नभ मे घिरी।
बहु - भयावह - गाढ़ - मसी - समा।
सकल - लोक प्रकंपित - कारिणी ॥१८॥

अशनि - पात - समान दिगन्त मे।
तव महा - रव था बहु व्यापता ।
कर विदारण वायु प्रवाह का।
दमकती नभ मे जब दामिनी ॥१९॥

मथित चालित ताड़ित हो महा।
अति - प्रचंड - प्रभंजन - वेग से।
जलद थे दल के दल आ रहे।
धुमड़ते घिरते व्रज - घेरते ॥२०॥

तरल - तोयधि - तुंग - तरंग से।
निविड़ - नीरद थे घिर घूमते ।
प्रबल हो जिनकी बढ़ती रही।
असितता - घनता - रखकारिता ॥२॥

उपजती उस काल प्रतीति थी।
प्रलय के घन आ ब्रज मे घिरे ।
गगन - मण्डल मे अथवा जमे ।
सजल कज्जल के गिरि कोटिशः ॥२२॥

पतित थी ब्रज - भू पर हो रही।
प्रति - घटी उर - दारक - दामिनी।
असह थी इतनी गुरु - गर्जना।
सह न था सकता पवि - कर्ण भी ॥२३॥

तिमिर की वह थी प्रभुता बढ़ी।
सब तमोमय था दृग देखता।
चमकता वर-वासर था बना।
असितता-खनि-भाद्र-कुहू-निशा॥२४॥

प्रथम बूँद पड़ी ध्वनि-बाँध के।
फिर लगा पड़ने जल वेग से।
प्रलय कालिक-सर्व-समाँ दिखा।
बरसता जल मूसल-धार था॥२५॥

जलद-नाद प्रभंजन-गर्जना।
विकट-शब्द महा-जलपात का।
कर प्रकम्पित पीवर-प्राण को।
भर गया ब्रज-भूतल मध्य था॥२६॥

स-बल भग्न हुई गुरु-डालियाँ।
पतित हो करती बहु-शब्द थी।
पतन हो कर पादप-पुंज को।
क्षण-प्रभा करती शत-खंड थी॥२७॥

सदन थे सब खंडित हो रहे।
परम-संकट मे जन-प्राण था।
स-बल विज्जु प्रकोप-प्रमाद से।
बहु-विचूर्णित पर्वत-शृंग थे॥२८॥

दिवस बीत गया रजनी हुई।
फिर हुआ दिन किन्तु न अल्प भी।
कम हुई तम-तोम-प्रगाढ़ता।
न जलपात रुका न हवा थमी॥२९॥

सब - जलाशय थे जल से भरे ।
इस लिये निशि वासर मध्य ही ।
जल - मयी ब्रज की वसुधा बनी ।
सलिल - मग्न हुए पुर - ग्राम भी ॥३०॥

सर - बने बहु विस्तृत - ताल से ।
बन गया सर था लघु - गत भी ।
बहु तरंग - मयी गुरु - नादिनी ।
जलधि तुल्य बनी. रबिनन्दिनी ॥३१॥

तदपि था पड़ता जल पूर्व सा ।
इस लिये अति - व्याकुलता बड़ी ।
विपुल - लोक गये ब्रज - भूप के -
निकट व्यस्त - समस्त अधीर हो ॥३२॥

प्रकृति को कुपिता अवलोक के ।
प्रथम से ब्रज - भूपति व्यग्र थे ।
विपुल - लोक समागत देख के ।
बढ़ गई । उनकी वह व्यग्रता ।।३३।।

पर न सोच सके नृप एक भी ।
उचित यत्न विपत्ति - विनाश का ।
अपर जो उस ठौर बहुज्ञ थे ।
न वह भी शुभ - सम्मति दे सके ॥३४॥

तड़ित सी कछनी कटि मे कसे ।
सु-विलसे नव - नीरद - कान्ति का ।
नवल - बालक एक इसी घड़ी ।
जन - समागम - मध्य दिखा पड़ा ॥३५।।

ब्रज - विभूषण को अवलोक के ।
जन - समूह प्रफुल्लित हो उठा ।
परम - उत्सुकता - वश प्यार से ।
फिर लगा वदनांबुज देखने ॥३६।।

सब उपस्थित - प्राणि - समूह को ।
निरख के निज-आनन देखता ।
वन विशेष विनीत मुकुन्द ने ।
यह कहा व्रज - भूतल - भूप से ।।३७।।

जिस प्रकार घिरे धन व्योम मे ।
प्रकृति है जितनी कुपिता हुई ।
प्रकट है उससे यह हो रहा ।
विपद का टलना बहु - दूर है ।।३।।

इस लिये तज के गिरि - कन्दरा ।
अपर यत्न न है अब त्राण का ।
उचित है इस काल सयत्न हो ।
शरण मे चलना गिरि - राज की ॥३९।।

बहुत सी दरियाँ अति - दिव्य है ।
वृहत कन्दर है उसमे कई ।
निकट भी वह है पुर - ग्राम के ।
इस लिये गमन - स्थल है वहीं‌ ।।४०।।

सुन गिरा यह वारिद - गात की ।
प्रथम तर्क - वितर्क बढ़ा हुआ ।
फिर यही अवधारित हो गया ।
गिरि बिना अवलम्ब, न अन्य है ।‌।४१‌‌।।

पर विलोक तमिस्र - प्रगाढ़ता ।
तड़ित - पात प्रभंजन - भीमता ।
सलिल - प्लावन वर्षण - वारि का ।
विफल थी बनती सब-मंत्रणा ॥४२॥

इस लिये फिर पंकज - नेत्र ने ।
यह स - ओज कहा जन - वृन्द से ।
रह अचेष्टित जीवन त्याग से ।
मरण है अति - चारु सचेष्ट हो ॥४३॥

विपद - संकुल विश्व - प्रपंच है ।
बहु - छिपा भवितव्य रहस्य है ।
प्रति - घटी पल है भय प्राण का ।
शिथिलता इस हेतु अ-श्रेय है ॥४४॥

विपद से वर, - वीर - समान जो ।
वमर - अर्थ समुद्यत हो सका ।
विजय - भूति उसे सब काल ही ।
वरण है करती सु - प्रसन्न हो ॥४५॥

पर विपत्ति विलोक स - शंक हो ।
शिथिल जो करता पग-हस्त है ।
अवनि मे अवमानित शीघ्र हो ।
कवल - है बनता वह काल का ॥४६॥

कब कहाँ न हुई प्रतिद्वंदिता ।
जब उपस्थित संकट - काल हो ।
उचित - यत्न स - धैर्य विधेय है ।
उस घड़ी सब - मानव - मात्र को ॥४७॥

सु - फल जो मिलता इस काल है ।
समझना न उसे लघु चाहिये ।
बहुत हैं, पड़ संकट - स्रोत मे ।
सहस मे जन जो शत भी बचे ॥४८॥

इस लिये तज निध - विमूढ़ता ।
उठ पड़ो सब लोग स-यत्न हो ।
इस महा- भय - संकुल काल मे ।
बहु - सहायक जान ब्रजेश को ।।१४९॥

सुन स-ओज सु-भाषण श्याम का ।
बहु - प्रबोधित हो जन - मण्डली ।
गृह गई पढ़ मंत्र प्रयत्न का ।
लग गई गिरि ओर प्रयाण मे ॥५०॥

बहु - चुने - दृढ़ - वीर सु - साहसी ।
सबल - गोप लिये बलवीर भी ।
समुचित स्थल मे करने लगे। ।
सकल की उपयुक्त सहायता ॥५१॥

सलिल प्लावन से अब थे बाद ।
लघु - बड़े बहु - उन्नत पंथ जो ।
सब उन्ही पर हो स - सतर्कता ।
गमन थे करते गिरि - अंक मे ।।५२।।

यदि ब्रजाधिप के प्रिय - लाडिले ।
पतित का कर थे गहते कही ।
उदक मे घुस तो करते रहे ।
वह कहीं जल - बाहर मग्न, को ।।५३।।
११

पहुँचते बहुधा उस भाग में।
बहु अकिचन थे रहते जहाँ।
कर सभी सुविधा सब - भॉति की।
वह उन्हें रखते गिरि - अंक मे ॥५४॥

परम - वृद्ध असम्बल लोक को।
दुख - मयी - विधवा रुज-ग्रस्त को।
बन सहायक थे पहुंचा रहे। ।
गिरि सु - गह्वर में कर यत्न वे ॥५५।।

यदि दिखा पड़ती जनता कही।
कु - पथ मे पड़ के दुख भोगती।
पथ - प्रदर्शन थे करते उसे।
तुरत' तो उस ठौर ब्रजेन्द्र जा ॥५६॥

जटिलता - पथ की तम गाढ़ता।
उदक - पात प्रभंजन भीमता।
मिलित थीं सब साथ, अतः घटी ।
दुख - मयी - घटना प्रति - पंथ में ॥५७।।

पर सु - साहस से सु - प्रबंध से।
ब्रज - विभूषण के जन एक भी।
तन न त्याग सका जल - मग्न हो।
मर सका गिर के न गिरीन्द्र से ।।१८।।

फलद - सम्बल- लोचन के लिये।
क्षणप्रभा अतिरिक्त न अन्य था।
तदपि साधन मे प्रति-कार्यो के।
सफलता ब्रज - वल्लभ को मिली ॥५९।।

परम - सिक्त हुआ वपु - वस्त्र था ।
गिर रहा शिर ऊपर वारि था ।
लग रहा अति उग्र-समीर था ।
पर विराम न था ब्रज - बन्धु को ॥६०॥

पहुँचते वह थे शर - वेग से ।
विपद - सकुल आकुल- ओक मे ।
तुरत थे करते वह · नाश भी ।
परम - वीर - समान विपत्ति का ॥६१॥

लख अलौकिक - स्फूर्ति - सु- दक्षता ।
चकित - स्तभित गोप - समूह था ।
अधिकतः धुंधता यह ध्यान था ।
ब्रज - विभूषण हैं शतशः वने ॥६२।।

स - धन गोधन को पुर ग्राम को ।
जलज - लोचन ने कुछ काल, मे ।
कुशल से गिरि - मध्य बसा दिया ।
लघु बना पवनादि - प्रमाद को ॥६३॥

प्रकृति क्रुद्ध छ सात दिनो रही ।
कुछ प्रभेद हुआ न प्रकोप मे ।
पर स - यत्न रहे वह सर्वथा ।
तनिक - क्लान्ति हुई न ब्रजेन्द्र को ॥६४।।

प्रति - दरी प्रति - पर्वत - कन्दरा ।
निवसते जिनमे ब्रज - लोग थे ।
चहु - सु - रक्षित थी ब्रज - देव के ।
परम - यत्न सु-चार प्रबन्ध से ॥६५।।

भ्रमण ही करते सबने उन्हे ।
सकल - काल लखा स - प्रसन्नता ।
रजनि भी उनकी कटती रही। ।
स - विधि - रक्षण मे व्रज-लोक के ॥६६।।

लख अपार प्रसार गिरीन्द्र मे।
ब्रज - धराधिप के प्रिय - पुत्र का।
सकल लोग लगे कहने उसे ।
रख लिया उँगली पर, श्याम ने ॥६॥

जब व्यतीत हुए दुख - वार ए ।
मिट - गया पवनादि प्रकोप भी ।
तब बसा फिर से व्रज - प्रान्त, औ ।
परम - कीर्ति हुई बलवीर की ॥६८॥

अहह ऊधव सो व्रज - भूमि का ।
परम - प्राण - स्वरूप सु- साहसी ।
अब हुआ हग से बहु - दूर है ।
फिर कहो बिलपे ब्रज क्यो नही ।।६९।।

कर्थन मे अब शक्ति न शेष है ।
विनय हूँ करता बन दीन मै ।
ब्रज - विभूषण प्रा निज - नेत्र से ।
दुख - दशा निरखे व्रज - भूमि की ॥७०।।

सलिल - प्लावन से जिस भमि का ।
सदय हो कर -रक्षण था किया ।
अहह आज - वही 'ब्रज की धरा ।
नयन - नीर - प्रवाह - निमग्न है ॥७१॥

वास्थ छन्द
समाप्त ज्योही इस यूथ ने किया ।
अतीव - प्यारे अपने प्रसंग को ।
लगा सुनाने उस, काल ही उन्हे ।
स्वकीय बाते फिर अन्य गोप यो ।।७२।।

वसन्ततिलका छन्द
वाते वड़ी - मधुर औ अति ही मनोज्ञा ।
नाना मनोरम रहस्य - मयी अनूठी ।
जो है प्रसूत भवदीय मुखाज द्वारा ।
हैं वांछनीय वह, सर्व सुखच्छुको की ।।७३‌।

सौभाग्य है व्यथित - गोकुल के जनों का ।
जो पाद - पंकज यहाँ भवदीय आया ।
है भाग्य की कुटिलता वचनोपयोगी ।
होता यथोचित नहीं यदि कार्यकारी ॥७४॥

प्राय. विचार उठता उर - मध्य होगा ।
ए क्यो नही वचन है सुनते हितो के ।
है मुख्य - हेतु इसका न कदापि अन्य ।
लौ एक श्याम - धन की ब्रज को लगी है ।।७५।।

न्यारी - छटा निरखना हगे चाहते हैं।
है कान को सु - यश भी प्रिय श्याम ही का।
गा के सदा सु - गुण है रसना अघाती।
सर्वत्र रोम तक में हरि ही रमा है ।।७६।‌।

जो है प्रवंचित कभी हग - कर्ण होते ।
तो गान है सु-गुण को करती रसज्ञा ।
हो हो प्रमत्त ब्रज - लोग इसी लिये ही ।
गा श्याम का सुगुण बासर है बिताते ॥७७॥

संसार मे सकल - काल नृ- रत्न ऐसे ।
है हो गये अवनि है जिनकी कृतज्ञाक्ष।
सारे अपूर्व - गुण - है उनके बताते ।
सच्चे - नृ - रत्न हरि भी इस काल के है ।।७८॥

जो कार्य श्याम - घन ने करके दिखाये ।
कोई उन्हे न सकता कर था कभी भी ।
वे कार्य औ द्विदश - वत्सर की अवस्था ।
ऊधो न क्यो फिर नृ - रत्न मुकुन्द होंगे ॥७९॥

बाते बड़ी सरस थे कहते बिहारी ।
छोटे बड़े सकल का हित चाहते थे ।
अत्यन्त प्यार दिखला मिलते सवा से ।
वे थे सहायक बड़े दुख के दिनो मे ।।८०।।
 
वे थे विनम्र बन के मिलते बड़ों से ।
थे बात - चीत करते बहु - शिष्टता से ।
बाते विरोधकर थीं उनको न प्यारी ।
वे थे न भूल कर भी अप्रसन्न होते ॥८१॥

थे प्रीति - साथ मिलते सब बालको से ।
थे खेलते संकल - खेल विनोद - कारी ।
नाना - अपूर्व - फल-फूल खिला खिला के ।
वे थे विनोदित सदा उनको बनाते ॥८२॥

जो देखते कलह शुष्क - विवाद होता ।
तो शान्त श्याम उसको करते सदा थे। ।
कोई बली नि - बल को यदि था सताता ।
तो वे तिरस्कृत किया करते उसे थे ॥८३॥

होते प्रसन्न यदि वे यह देखते थे ।
कोई स्व-कृत्य करता अति - प्रीति से है ।
यो ही विशिष्ट - पद - गौरव की उपेक्षा ।
देती नितान्त उनके चित को व्यथा थी ॥८४॥

माता पिता गुरुजनो वय में बड़ो को ।
होते निराद्रित कही यदि देखते थे ।
तो खिन्न हो दुखित हो लघु को सुतो को ।
शिक्षा समेत बहुधा बहु - शास्ति देते ।।८५।।

थे राज - पुत्र उनमे मद था न तो भी ।
वे दीन के सदन थे अधिकांश जाते ।
बाते - मनोरम सुना दुख जानते थे ।
औ थे विमोचन उसे करते कृपा से ।।८६।।

रोगी दुखी विपद - आपद मे पड़ो की ।
सेवा सदैव करते निज - हस्त से थे ।
ऐसा निकेत ब्रज मे न मुझे दिखाया ।
कोई जहाँ दुखित हो पर वे न होवे ।।८७।।

संतान - हीन - जन तो ब्रज - बंधु को पा।
संतान - वान निज को कहते रहे ही ।
सतान - वान जन भी ब्रज - रत्न ही का ।
संतान से अधिक थे रखते भरोसा ।।८८।।

जो थे किसी सदन मे बलवीर जाते ।
तो मान वे अधिक पा सकते सुतो से ।
थे राज - पुत्र इस हेतु नही, सदा वे ।
होते सुपूजित रहे शुभ - कर्म द्वारा ।।८९।।

भू मे सदा मनुज है बहु - मान पात ।
राज्याधिकार अथवा धन - द्रव्य - द्वारा ।
होता परन्तु वह पूजित विश्व मे है ।
निस्वार्थ भूत - हित औ कर लोक - सेवा ॥९०॥

थोड़ी अभी यदिच है उनकी अवस्था ।
तो भी नितान्त - रत वे शुभ - कर्म मे है ।
ऐसा विलोक वर - बोध स्वभाव से ही ।
होता सु - सिद्ध यह है वह है महात्मा ।।९१।।

विद्या सु - संगति समस्त-सु - नीति शिक्षा ।
ये तो विकास भर की अधिकारिणी है ।
अच्छा - बुरा मलिन - दिव्य स्वभाव भू मे ।
पाता निसर्ग कर से नर सर्वदा है ।।९२॥

ऐसे सु - बोध मतिमान कृपालु ज्ञानी ।
जो आज भी न मथुरा - तज गेह आये ।
तो वे न भूल ब्रज - भूतल को गये है ।
है अन्य - हेतु इसका अति - गूढ़ कोई ।।९३।।

पूरी नही कर सके उचिताभिलाषा ।
नाना महान जन भी इस मेदिनी मे ।
हो के निरस्त बहुधा नृप - नीतियो से ।
लोकोपकार - व्रत मे अवलोक बाधा ।।९४॥

जी मे यही समझ सोच-विमूढ़-सा हो ।
मै क्या कहूँ न यह है मुझको जनाता ।
हॉ, एक ही विनय हूँ करता स - आशा ।
कोई सु - युक्ति ब्रज के हित की करे वे ॥९५।।

है रोम - रोम कहता घनश्याम आवे ।
आ के मनोहर - प्रभा मुख की दिखावे ।
डाले प्रकाश उर के तम को भगावे ।
ज्योतिविहीन - दृग की द्युति को बढ़ावे ॥९६।।

तो भी सदैव चित से यह चाहता हूँ ।
है रोम - कूप तक से यह नाद होता ।
संभावना यदि किसी कु - प्रपच की हो ।
तो श्याम - मूर्ति ब्रज मे न कदापि आवे ।।९७।।

कैसे भला स्व - हित की कर चिन्तनाये ।
कोई मुकुन्द - हित - ओर न दृष्टि देगा ।
कैसे अश्रेय उसका प्रिय हो सकेगा ।
जो प्राण से अधिक है ब्रज - प्राणियो का ॥९८॥

यो सर्व - वृत्त कहके बहु - उन्मना हो ।
आभीर ने वदन ऊधव का विलोका ।
उद्विग्नता सु - दृढ़ता अ- विमुक्त - वांछा ।
होती प्रसूत उसकी खर - दृष्टि से थी ॥९९॥

ऊधो विलोक करके उसकी अवस्था ।
औ देख गोपगण को बहु - खिन्न होता ।
बोले गिरा मधुर शान्ति - करी विचारी ।
होवे प्रबोध जिससे दुख - दग्धितो का ॥१००॥

द्रुतविलम्बित छन्द
तदुपरान्त गये गृह को सभी ।
ब्रज - विभूषण - कीर्ति बखानते ।
विवुध - पुगव ऊधव को , बना ।
विपुल - बार विमोहित पंथ मे ॥१०१।।
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