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प्रियप्रवास/काव्य-भाषा

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ७ से – १२ तक

 

काव्य-भाषा

यह काव्य खड़ी बोली मे लिखा गया है। खड़ी बोली मे छोटे छोटे कई काव्य-ग्रन्थ अब तक लिपिबद्ध हुए हैं, परन्तु उनमें से अधिकाश सौ दो सौ पद्यों में ही समाप्त है, जो कुछ बड़े है वे अनुवादित है मौलिक नहीं। सहृदय कवि बाबू मैथिलीशरण गुप्त का 'जयद्रथवध' निस्सन्देह मौलिक ग्रन्थ है, परन्तु यह खण्ड-काव्य है। इसके अतिरिक्त ये समस्त ग्रन्थ अन्त्यानुप्रास विभूषित है, इस लिये खड़ी बोलचाल में मुझको एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता देख पड़ी, जो महाकाव्य हो, और ऐसी कविता मे लिखा गया हो जिसे भिन्नतुकान्त कहते है। अतएव मै इस न्यूनता की पूर्ति के लिये कुछ साहस के साथ अग्रसर हुआ और अनवरत परिश्रम कर के इस 'प्रियप्रवास' नामक ग्रन्थ की रचना की; जो कि आज आप लोगों के कर-कमलों में सादर समर्पित है। मैंने पहले इस ग्रन्थ का नाम 'ब्रजांगना-विलाप' रखा था, किन्तु कई कारणों से मुझको यह नाम बदलना पड़ा, जो इस ग्रन्थ के समग्र पढ़ जाने पर आप लोगो को स्वयं अवगत होंगे। मुझमें महाकाव्यकार होने की योग्यता नहीं, मेरी प्रतिभा ऐसी सर्वतोमुखी नहीं जो महाकाव्य के लिये उपयुक्त उपस्कर संग्रह करने मे कृतकार्य हो सके, अतएव मैं किस मुख से यह कह सकता हूँ कि 'प्रियप्रवास' के बन जाने से खड़ी बोली में एक महाकाव्य न होने की न्यूनता दूर हो गई। हॉ, विनीत भाव से केवल इतना ही निवेदन करूँगा कि महाकाव्य का आभासस्वरूप यह ग्रंथ सत्रह सर्गों में केवल इस उद्देश्य से लिखा गया है कि इसको देख कर हिन्दी-साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ सुकवियो और सुलेखकों का ध्यान इस त्रुटि के निवारण करने की ओर आकर्षित हो। जब तक किसी बहुज्ञ मर्मस्पर्शिनी-सुलेखनी द्वारा लिपिबद्ध हो कर खड़ी बोली मे सर्वांग सुन्दर कोई महाकाव्य आप लोगो को हस्तगत नहीं होता, तब तक यह अपने सहज रूप में आप लोगों के ज्योति-विकीर्णकारी उज्ज्वल चक्षुओ के सम्मुख है, और एक सहृदय कवि के कण्ठ से कण्ठ मिला कर यह प्रार्थना करता है 'जबलौ फुलै न केतकी, तबलौ बिलम करील।'

कविता-प्रणाली

यद्यपि वर्त्तमान पत्र और पत्रिकाओं में कभी-कभी एक आध भिन्नतुकान्त कविता किसी उत्साही युवक कवि की लेखनी से प्रसूत हो कर आजकल प्रकाशित हो जाती है, तथापि मैं यह कहूँगा कि भिन्नतुकान्त कविता भाषा-साहित्य के लिये एक बिल्कुल नई वस्तु है, और इस प्रकार की कविता में किसी काव्य का लिखा जाना तो 'नूतनं नूतनं पदे पदे' है। इस लिये महाकाव्य लिखने के लिये लालायित हो कर जैसे मैंने बालचापल्य किया है, उसी प्रकार अपनी अल्प विषया-मति साहाय्य से अतुकान्त कविता में महाकाव्य लिखने का यत्न कर के मैं अतीव उपहासास्पद हुआ हूँ। किन्तु, यह एक सिद्धान्त है कि 'अकरणात् मन्दकरणम् श्रेय' और इसी सिद्धान्त पर आरूढ़ हो कर मुझ से उचित वा अनुचित यह साहस हुआ है। किसी कार्य्य में सयत्न होकर सफलता लाभ करना बड़े भाग्य की बात है, किन्तु सफलता न लाभ होने पर सयत्न होना निन्दनीय नहीं कहा जा सकता। भाषा मे महाकाव्य और भिन्नतुकान्त कविता में लिख कर मेरे जैसे विद्या बुद्धि के मनुष्य का सफलता लाभ करना यद्यपि असंभव बात है किन्तु इस कार्य्य के लिये मेरा सयत्न होना गर्हित नही हो सकता, 'क्योंकि करत करत अभ्यास के जड़मति होत-सुजान।' जो हो परन्तु यह 'प्रियप्रवास' ग्रंथ आद्योपान्त अतुकान्त कविता में लिखा गया है—यत मेरे लिये यह पथ सर्वथा नूतन है, अतएव आशा है कि विद्वद्जन इसकी त्रुटियो पर सहानुभूतिपूर्वक दृष्टिपात करेंगे। संस्कृत के समस्त काव्य-ग्रंथ अतुकान्त अथवा अन्त्यानुप्रासहीन कविता से भरे पड़े है। चाहे लघुत्रयी, रघुवंश आदि, चाहे वृहत्रयी किरातादि, जिसको लीजिये उसी में आप भिन्नतुकान्त कविता का अटल राज्य पावेगे। परन्तु हिन्दी काव्य-ग्रंथो मे इस नियम का सर्वथा व्यभिचार है। उस में आप अन्त्यानुप्रासहीन कविता पावेंगे ही नहीं। अन्त्यानुप्रास बड़े ही श्रवण-सुखद होते है और कथन को भी मधुरतर बना देते है। ज्ञात होता है कि हिन्दी-काव्य-ग्रन्थो में इसी कारण अन्त्यानुप्रास की इतनी प्रचुरता है। बालको की बोलचाल मे, निम्न जातियो के साधारण कथन और गान तक में आप इसका आदर देखेगे; फिर यदि हिन्दी काव्य-ग्रन्थो में इसका समादर अधिकता से हो तो आश्चर्य क्या है? हिन्दी ही नहीं, यदि हमारे भारतवर्ष की प्रान्तिक भाषाओं—बँगला, पंजाबी, मरहट्ठी, गुजराती आदि—पर आप दृष्टि डालेगे तो वहाँ भी अन्त्यानुप्रास का ऐसा ही समादर पावेगे; उर्दू और फारसी में भी इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। अरबी का तो जीवन ही अन्त्यानुप्रास है, उसके पद्य-भाग को कौन कहे, गद्य-भाग में भी अन्त्यानुप्रास की बड़ी छटा है। मुसलमानो के प्रसिद्ध धर्म्मग्रथ कुरान को उठा लीजिये, यह गद्य-ग्रन्थ है, किन्तु इसमे अन्त्यानुप्रास की भरमार है। चीनी, जापानी जिस भाषा को लीजिये, एशिया छोड़ कर यूरोप और अफ़्रिका में चले जाइये, जहाँ जाइयेगा वही कविता में अन्त्यानुप्रास का समादर देखियेगा। अन्त्यानुप्रास की इतनी व्यापकता पर भी समुन्नत भाषाओं में भिन्नतुकान्त कविता आहत हुई है, और इस प्रकार की कविता मे उत्तमोत्तम ग्रंथ लिखे गये है। संस्कृत की बात मैं ऊपर कह चुका हूँ, बँगला मे इस प्रकार की कविता से भूषित 'मेघनाद वध' नाम का एक सुन्दर काव्य है। अँगरेजी में भी भिन्नतुकान्त कविता में लिखित कई उत्तमोत्तम पुस्तकें है।

कहा जाता है, भिन्नतुकान्त कविता सुविधा के साथ की जा सकती है, और उसमे विचार-स्वतंत्रता, सुलभता और अधिक उत्तमता से प्रकट किये जा सकते है। यह बात किसी अंश मे सत्य है, परन्तु मैं यह मानने के लिये तैयार नहीं हूँ कि केवल इसी विचार से अंत्यानुप्रास विभूषित कविता की आवश्यकता नहीं है। यदि अन्त्यानुप्रास आदर की वस्तु न होता, तो वह कदापि संसारव्यापी न होता, उसका इतना समाहत होना ही यह सिद्ध करता कि वह आदरणीय है। इसके अतिरिक्त एक साधारण वाक्य को भी अन्त्यानुप्रास सरस कर देता है। हाँ, भाषा सौकर्य्य साधन के लिये और उसको विविध प्रकार की कविता से विभूषित करने के उद्देश्य से अतुकान्त कविता के भी प्रचलित होने की आवश्यकता है, और मैंने इसी विचार से इस 'प्रियप्रवास' ग्रंथ की रचना, इस प्रकार की कविता में की है।

काव्यवृत्त

मैंने ऊपर निवेदन किया है कि संस्कृत कविता का अधिकांश भिन्नतुकान्त है, इस लिये यह स्पष्ट है कि भिन्नतुकान्त कविता लिखने के लिये संस्कृत-वृत्त बहुत ही उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त भाषा-छन्दो में मैंने जो एक आध अतुकान्त कविता देखी उसको बहत ही भद्दी पाया, यदि कोई कविता अच्छी भी मिली तो उसमे वह लावण्य नहीं मिला, जो सत्कृत-वृत्तो में पाया जाता है, अतएव मैंने इस ग्रंथ को संस्कृत-वृत्तो मे ही लिखा है। यह भी भाषा साहित्य में एक नई बात है। जहाँ तक मै अभिज्ञ हूँ अब तक हिन्दी-भाषा में केवल संस्कृत-छन्दो में कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया है। जब से हिन्दी-भाषा में खड़ी बोली की कविता का प्रचार हुआ है तब से लोगो की दृष्टि संस्कृत-वृत्तो की ओर आकर्षित है, तथापि मैं यह कहूँगा कि भाषा में कविता के लिये संस्कृत-छन्दो का प्रयोग अब भी उत्तम दृष्टि से नहीं देखा जाता। हम लोगो के आचार्य्यवत् मान्य श्रीयुत् पण्डित बालकृष्ण भट्ट अपनी द्वितीय साहित्य-सम्मेलन की स्वागत-सम्बन्धिनी वक्तृता में कहते हैं—

"आज कल छन्दो के चुनाव में भी लोगों की अजीब रुचि हो रही है, इन्द्रवज्रा, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी आदि संस्कृत छन्दो का हिन्दी में अनुकरण हम में तो कुढ़न पैदा करता है"

—द्वितीय हिन्दी-साहित्य सम्मेलन का कार्यविवरण २ भाग पृष्ठ ८

'प्रियप्रवास' ग्रंथ १५ अकतूबर सन् १९०९ ई॰ को प्रारम्भ और कार्य्य-बाहुल्य से २४ फरवरी सन् १९१३ ई॰ को समाप्त हुआ है। जिस समय आधे ग्रंथ को मैं लिख चुका था, उस समय माननीय पण्डित जी का उक्त वचन मुझे दृष्टिगोचर हुआ। देखते ही अपने कार्य्य पर मुझ को कुछ क्षोभ सा हुआ, परन्तु मैं करता तो क्या करता, जिस ढंग से ग्रंथ प्रारम्भ हो चुका था, उसमे परिवर्त्तन नहीं हो सकता था। इसके अतिरिक्त श्रद्धेय पण्डित जी का उक्त विचार मुझको सर्वांश में समुचित नहीं जान पड़ा, क्योकि हिन्दीभाषा के छन्दो से संस्कृत-वृत्त खड़ी बोली की कविता के लिये अधिक उपयुक्त है, और ऐसी अवस्था में वे सर्वथा त्याज्य नहीं कहे जा सकते। मैं दो एक वर्त्तमान भाषा-साहित्य-अनुरागियो की अनुमति नीचे प्रकाशित करता हूँ। इन अनुमतियो के पठन से भी मेरे उस सिद्धान्त की पुष्टि होती है, जिसको अवलम्बन कर मैंने संस्कृत-वृत्तो में अपना ग्रंथ रचा है। उदीयमान युवक कवि पं॰ लक्ष्मीधर वाजपेयी वि॰ सम्वत् १९६८ में प्रकाशित अपने 'हिन्दी मेघदूत' की भूमिका के पृष्ठ ३, ४ में लिखते है—

"जब तक खड़ी बोली की कविता में संस्कृत के ललित वृत्तो की योजना न होगी तब तक भारत के अन्य प्रान्तो के विद्वान उससे सच्चा आनन्द कैसे उठा सकते है? यदि राष्ट्रभाषा हिन्दी के काव्य-ग्रंथो का स्वाद अन्य प्रान्तवालों को भी चखाना है तो उन्हे संस्कृत के मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, मालिनी, पृथ्वी, वसंततिलका, शार्दूलविक्रीडित आदि ललित वृत्तो से अलंकृत करना चाहिये। भारत के भिन्न-भिन्न प्रान्तो के निवासी विद्वान् संस्कृत-भाषा के वृत्तो से अधिक परिचित है, इसका कारण यही है कि संस्कृत भारतवर्ष की पूज्य और प्राचीन भाषा है। भाषा का गौरव बढ़ाने के लिये काव्य में अनेक प्रकार के ललित वृत्तो और नूतन छन्दो का भी समावेश होना चाहिये।"

साहित्यमर्मज्ञ, सहृदयवर, समादरणीय श्रीयुत पण्डित मन्नन द्विवेदी, सम्वत् १९७० में प्रकाशित 'मर्यादा' की ज्येष्ट, आषाढ़ की मिलित संख्या के पृष्ठ ९६ में लिखते है—

"यहाँ एक बात बतला देना बहुत जरूरी है। जो बेतुकान्त की कविता लिखे, उसको चाहिये कि संस्कृत के छन्दों को काम में लाये। मेरा ख्याल है कि हिन्दी पिंगल के छन्दो में बेतुकान्त कविता अच्छी नहीं लगती। स्वर्गीय साहित्याचार्य प॰ अम्बिकादत्त जी व्यास ऐसे विद्वान् भी हिन्दी-छन्दो में अच्छी बेतुकान्त कविता नहीं कर सके। कहना नहीं होगा कि व्यास जी का 'कंसवध' काव्य बिल्कुल रद्दी हुआ है।"

अब रही यह बात कि संस्कृत-छन्दो का प्रयोग मैं उपयुक्त रीति से कर सका हूँ या नहीं, और उनके लिखने में मुझको यथोचित सफलता हुई है या नहीं। मैं इस विषय में कुछ लिखना नही चाहता, इसका विचार भाषा-मर्म्मज्ञों के हाथ हैं। हाँ, यह अवश्य कहूँगा कि आद्य उद्योग में असफल होने की ही अधिक आशंका है।