प्रियप्रवास/भाषा-शैली

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भाषा-शैली

'प्रियप्रवास' की भाषा संस्कृत-गर्भित है। उसमें हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रङ्ग अधिक है। अनेक विद्वान् सज्जन इससे रुष्ट होंगे, कहेंगे कि यदि इस भाषा में 'प्रियप्रवास' लिखा गया तो अच्छा होता यदि संस्कृत में ही यह ग्रन्थ लिखा जाता। कोई भाषा-मर्म्मज्ञ सोचेंगे—इस प्रकार संस्कृत-शब्दों को ठूँस कर भाषा के प्रकृत रूप को नष्ट करने की चेष्टा करना नितान्त गर्हित कार्य्य है। उक्त वक्तृता में भट्ट जी एक स्थान पर कहते है—

"दूसरी बात जो मैं आज-कल खड़ी बोली के कवियो में देख रहा हूँ, वह समासबद्ध क्लिष्ट संस्कृत-शब्दों का प्रयोग है, यह भी पुराने कवियों की पद्धति के प्रतिकूल है।"

इस विचार के लोगों से मेरी यह विनीत प्रार्थना है कि क्या मेरे इस एक ग्रंथ से ही भाषा-साहित्य की शैली परिवर्तित हो जावेगी? क्या मेरे इस काव्य की लेख-प्रणाली ही अब से सर्वत्र प्रचलित और गृहीत होगी? यदि नहीं, तो इस प्रकार का तर्क समीचीन न होगा। हिन्दी-भाषा में सरल पद्य में एक से एक सुन्दर ग्रन्थ है। जहाँ इस प्रकार के अनेक ग्रन्थ है, वहाँ एक ग्रन्थ 'प्रियप्रवास' के ढंग का भी सही। इसके अतिरिक्त मैं यह भी कहूँगा कि क्या ऐसे संस्कृत-गर्भित ग्रन्थ हिन्दी में अब तक नहीं लिखे गये है? और क्या जन-समाज मे वे समाहत नहीं है? क्या रामचरितमानस, विनयपत्रिका और रामचन्द्रिका से भी 'प्रियप्रवास' अधिक संस्कृत-गर्भित है? क्या जिस प्रकार की संस्कृत-गर्भित खड़ी बोली की कविता आजकल सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही है, 'प्रियप्रवास' की कविता दुरूहता में उससे आगे निकल गई है? यह ग्रन्थ न्यायदृष्टि से पढ़ कर यदि मीमांसा की जावेगी तो कहा जावेगा कभी नहीं, और ऐसी दशा में मुझे आशा है कि इस [ १४ ]विषय में मैं विशेष दोषी न समझा जाऊँगा। कुछ संस्कृत-वृत्तों के कारण और अधिकतर मेरी रुचि से इस ग्रंथ की भाषा संस्कृत-गर्भित है, क्योकि अन्य प्रान्तवालों में यदि समादर होगा तो ऐसे ही ग्रन्थो का होगा। भारतवर्ष भर में संस्कृत-भाषा आहत है। बँगला, मरहठी, गुजराती, वरन् तामिल और पंजाबी तक में संस्कृत शब्दो का बाहुल्य है। इन संस्कृत शब्दो को यदि अधिकता से ग्रहण करके हमारी हिन्दी-भाषा उन प्रान्तो के सज्जनो के सम्मुख उपस्थित होगी तो वे साधारण हिन्दी से उसका अधिक समादर करेंगे, क्योकि उसके पठन-पाठन में उनको सुविधा होगी और वे उसको समझ सकेगे। अन्यथा हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने में दुरूहता होगी, क्योंकि सम्मिलन के लिये भाषा और विचार कासाम्य ही अधिक उपयोगी होता है। मैं यह नहीं कहता कि अन्य प्रान्तवालो से घनिष्ठता का विचार करके हम लोग अपने प्रान्तवालों की अवस्था और अपनी भाषा के स्वरूप को भूल जावे। यह मै मानूँगा कि इस प्रान्त के लोगो की शिक्षा के लिये और हिन्दी भाषा के प्रकृत-रूप की रक्षा के निमित्त, साधारण वा सरल हिन्दी में लिखे गये ग्रन्थो की ही अधिक आवश्यकता है, और यही कारण है कि मैंने हिन्दी में कतिपय संस्कृत-गर्भित ग्रन्थो की प्रयोजनीयता बतलाई है। परन्तु यह भी सोच लेने की बात है कि क्या यहाँवालो को उच्च हिन्दी से परिचित कराने के लिये ऐसे ग्रन्थो की आवश्यकता नहीं है, और यदि है तो मेरा यह ग्रन्थ केवल इसी कारण से उपेक्षित होने योग्य नहीं। जो सज्जन मेरे इतना निवेदन करने पर भी अपनी भौह की बकता निवारण न कर सके, उनसे मेरी, यह प्रार्थना है कि वे 'वैदेही-वनवास'[१] के कर-कमलो में पहुँचने तक मुझे क्षमा [ १५ ]करें, इस ग्रन्थ को मैं अत्यन्त सरल हिन्दी और प्रचलित छन्दो में लिख रहा हूँ।

मैंने ऊपर लिखा है कि "क्या 'रामचरितमानस' 'रामचंद्रिका' और 'विनयपत्रिका' से भी 'प्रियप्रवास' अधिक संस्कृत-गर्भित है," मेरे इस वाक्य से संभव है कि कुछ भ्रम उत्पन्न होवे, और यह समझा जावे कि मैं इन पूज्य ग्रन्थो के वन्दनीय ग्रन्थकारो से स्पर्धा कर रहा हूँ और अपने काँच की हीरक-खण्ड के साथ तुलना करने मे सयत्न हूँ। अतएव मैं यहाँ स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर देता हूँ कि मेरे उक्त वाक्य का मर्म्म केवल इतना ही है कि संस्कृत-शब्दों के बाहुल्य से कोई ग्रन्थ अनाहत नहीं हो सकता। यह और बात है कि संस्कृत-शब्दों का प्रयोग उचित रीति और चारु—रूपेण न हो सके, और इस कारण से कोई ग्रन्थ हास्यास्पद और निन्दनीय बन जावे।

कवितागत स्वारस्य

हिन्दी के कतिपय वर्त्तमान साहित्यसेवियो का यह भी विचार है कि खड़ी बोली में सरस और मनोहर कविता नहीं हो सकती। पूज्य पण्डितजी अपने उक्त भाषण में ही एक स्थान पर लिखते है:—

"खड़ी बोली की कविता पर हमारे लेखकों का समूह इस समय टूट पड़ा है। आज कल के पत्रों और मासिक-पत्रिकाओं में बहुत सी इस तरह की कवितायें छपी है, परन्तु इनमे अधिकतर ऐसी है जिनको कविता कहना ही कविता की मानो हँसी करना है, हमें तो काव्य के गुण इनमें बहुत कम जँचते हैं।"

"मेरे विचार में खड़ी बोली में एक इस प्रकार का कर्कशपन है कि कविता के काम में ला उसमें सरसता सम्पादन करना प्रतिभावान् के लिये भी कठिन है, तब तुकबन्दी करने वालो की कौन-कहे।"

इन सज्जनो का विचार यह है कि 'मधुर कोमलकांत पदावली' [ १६ ]जिस कविता में न हो वह भी कोई कविता है। कविता तो वही है जिसमें कोमल शब्दों का विन्यास हो, जो मधुर अथच कान्तपदावली द्वारा अलंकृत हो। खड़ी बोली में अधिकतर संस्कृत-शब्दों का प्रयोग होता है, जो हिन्दी के शब्दों की अपेक्षा कर्कश होते है। इसके व्यतीत उसकी क्रिया भी ब्रजभाषा की क्रिया से रूखी और कठोर होती है, और यही कारण है कि खड़ी बोली की कविता सरस नहीं होती और कविता का प्रधान गुण माधुर्य्य और प्रसाद उसमे नहीं पाया जाता। यहाँ पर मैं यह कहूँगा कि पदावली की कान्तता, मधुरता, कोमलता केवल पदावली में ही सन्निहित है, या उसका कुछ सम्बन्ध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से भी है? मेरा विचार है कि उसका कुछ सम्बन्ध नहीं, वरन् बहुत कुछ सम्बन्ध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से है। कर्पूरमंजरीकार प्रसिद्ध राजशेखर कवि अपनी प्रस्तावना में प्राकृतभाषा की कोमलता की प्रशंसा करते हुए कहते है—

परुसा सक्कअवधा पाउअबन्धोबिहोइ सुउमारो।
पुरुसाण महिलाण जेत्तिय मिहन्तरं तेत्तिय मिमाणम्॥

इस श्लोक के साथ निम्नलिखित संस्कृत रचनाओं को मिला कर पढिये—

इतर पापफलानि यथेच्छया वितरतानि सहे चतुरानन।
अरसिकेषु कवित्वनिवेदनम् शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख॥
विद्या विनयोपेता हरति न चेतासि कस्य मनुजस्य।
काञ्चनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानदम्॥
वारिजेनेव सरसी शशिनेत्र निशीथिनी।
यौवनेनेव वनिता नयेन श्रीर्मनोहरा॥
आयाति याति पुनरेव जल प्रयाति
पद्माकुराणि विचिनोति चुनोति पक्षों।

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उन्मत्तवद् भ्रमति कूजति मन्दमन्दम्
कान्तावियोगविधुरो निशि चक्रवाक ।।

कतिपय पंक्तियाँ दोनो के गद्य की भी देखिये——

“एसा अह देवदामिहुणम् रोहिणीमि अलञ्छणम् मक्खीकदुअ अज्जउत्तम् ‘पमादेमि, अज पहुदि अज्जउत्तीजम् इथिअम् कामेदि जा अ अज्जउत्तस्स समागमप्पणइणी ताएम एपीदिवन्धेण वत्ति दव्वम् ।"

——विक्रमोर्वशी

“अह खलु सिद्धादेशजनितपरित्रासेन राजा पालकेन घोपादानीय विशसने गूढागारे बन्धनेन बद्ध तस्माच्च प्रियसुहृत्शविलकप्रमादेन बन्धनात् विमुक्तोस्मि ।"

——मृच्छकटिक

अब बतलाइये कोमल-कान्त-पदावली और सरसता किसमे अधिक है ? उक्त प्राकृत श्लोक का रचयिता कहता है कि “संस्कृत की रचना परुप और प्राकृत की सुकुमार होती है, पुरुष स्त्री में जो अन्तर है वही अन्तर इन दोनो मे है।" परन्तु दोनो भाषाओ की उर्ध्व लिखित कतिपय पंक्तियो को पढ कर आप अभिज्ञ हुए होगे कि उसके कथन में कितनी सत्यता है । कोमल-कान्त-पद कौन है? वही जिनके उच्चारण में मुख को सुविधा हो और जो श्रुतिकटु न हो । संयुक्ताक्षर और टवर्ग जिस रचना मे जितने न्यून होगे वह रचना उतनी ही कोमल और कान्त होगी, और वे जितने अधिक होगे उतनी ही अधिक वह कर्कश होगी। अब आप देखे शब्द-संख्या निर्देश से प्राकृत और संस्कृत के उद्धृत श्लोको और वाक्यो मे मे किसमे युक्ताक्षर और टवर्ग अधिक है। आप प्राकृत-श्लोक और वाक्य में ही अधिक पावेगे, और ऐसी दशा में यह सिद्ध है कि प्राकृत से संस्कृत की ही पदावली कोमल, मधुर और कान्त है।

मैं कतिपय प्राकृत वाक्यो को उनके संस्कृत अनुवाद सहित नीचे लिखता हूँ। आप इनको भी पढ कर देखिये, किसमे कोमलता और मधुरता अधिक है। और प्राकृत एव सम्कृत के उन शब्दो
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को विशेष मनोनिवेश-पूर्वक पढ़िये जिनके नीचे लकीर खीची हुई है, और इस बात की मीमांमा कीजिये कि एक दूसरे का रूपान्तर होने पर भी उनमे कौन कान्त है।

अज्स्सजेब पिअबअस्सेन चुण बुट्टेण
आर्य्यस्यैव प्रियवयस्येन चूर्ण वृद्धेन

आ दासीएपुत्ता चुणबुड्ढा कदाणुक्खु तुम कुविदेणरणा पालयेण
णव बहू केस कलाव बिअ ससुअन्ध कप्पिजन्त पेक्सिस्स ।
आ दास्या पुत्र चूर्ण वृद्ध कदानु। खलु त्वा कुपितेन राजा
पालकेननववधूकेगकलापमिव ससुगन्ध छेद्यमान प्रेक्षिष्ये ।

अम्हारिस जण जोग्गेण बम्हणेण उवनिमन्तितेण
अस्मादृश जन योग्येन ब्राह्मणेन उपनिमन्त्रितेन

हादेह अलिल जलेहिं पाणिएहि उजाणेउवत्रण काणणेणिशणे
णालीहिसहजुबदी हिइत्थिआगिन्धब्बोबिअशुदेहिअङ्गकेहि
स्नातोह सलिलजलं पानीय उद्याने उपवन कानने निगण्णे
नारीभि सह युवतीभिः स्त्रीभिगन्धर्व इव सुहितैरङ्गकै ।

हत्थशुञ्जदो मुहशादो इन्दियाञ्जदो शेक्खु माणुगे।
कि कलेदि लाअउले तश पललोओ हत्थे णिच्चले ।।
हस्तसयत मुखसयत इन्द्रियसयत सखलु मनुष्य ।
कि करोति राजकुल तस्य परलोको हस्ते निश्चल

——मृच्छकटिक

यदि कहा जावे कि संस्कृत-श्लोको और वाक्यो के चुनने मे जिम सहृदयता से काम लिया गया है,प्राकृत के श्लोको और वाक्यो
[ १९ ]के चुनने मे वैसा नहीं किया गया, तो पहले तो यह तर्क इस लिये उचित न होगा कि प्राकृत वाक्यो या श्लोको का ही अनुवाद तो संस्कृत मे नीचे दिया गया है। दूसरे में इस तर्क के समाधान के लिये कतिपय प्राकृत और सस्कृत के मनोहर श्लोको और वाक्यों को नीचे लिखता है। आप उनको मिलाइये, और देखिये कि दोनो की सरसता और कोमलता में कितना अन्तर है।

असारे सार मतिनो सारे चासार दस्सिनो ।
से सारे नाधि गच्छन्ति मिच्छा सकप्पगोचरा ॥१॥
अप्पमादेन मघवा देवानं सेद्वत गतो ।
अप्पमाद परा सन्ति पमादो गरहितो सदा ॥२॥
नपुप्पगधी पटिवातमेति न चन्दन तग्गर मल्लिका वा ।
सत च गधो पटिवातमेति सब्यादिसा सप्पुरिसोपवायति ॥३॥
उदक हि नयन्ति नेतिका उसुकारानमयन्ति तेजन ।
दारुनमयन्ति तच्छका अत्तान दमयन्ति पण्डिता ॥४॥
मासे मासे सहस्सेनयो यजेथ सत समम् ।
एक च भावितत्तान मुहुत्तमपि पूजये॥५॥—धम्मपद

रणन्त मणिणेउर झणझणन्तहारच्छड ।
कलक्कणिद किंकिणी मुहर मेलाडम्बर।
विलोल बलआवलीजणिदमजुसिंजारव।
णकस्समणमोहण ससिमुहीअहिन्दोलणम्॥६॥—कर्पूरमंजरी

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अलिरसौ नलिनीवनवल्लभ कुमुदिनीकुलकेलिकलारस।
विधिवशेन विदेशमुपागत. कुटजपुष्परस बहुमन्यते॥१॥ केवानसन्तिभुवितामरसावतसाहसावलीबलयिनोवलसन्निवेगा। किंचातकोफलमवेक्ष्यसवज्रपातापौरन्दरीमुपगतोनववारिधाराम्॥२॥

[ २० ]

निर्वाणदीप किमु तैलदान चौरे गते वा किमु सावधानम् ।
वयोगते कि वनिताविलास पयोगते किं खलु सेतुबध ॥३॥

वरमसिधारा तरुतलवासो वरमिह भिक्षा वरमुपवास. ।
वरमपि घोरे नरके पतन न च धनगर्वितबान्धवगरणम् ||४||

विहाररामखेदभेद धीरतीर मारुता
गतागिरामगोचरे यदीयनीरचारता ।
प्रवाहसाहचर्य पूत मेदिनी नदी नदा
धुनातु नो मनोमल कलिन्दनन्दिनी सदा ।।५।।

——काव्यसंग्रह

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शिलीमुखेत्मिस्तवनामवाछिते मगोपनीते मुगगावलोचना । प्रमोदमासेयमिता विलोकिते करे चकोरीव तुपारदीधित ॥११॥ मनसिजवरबीर वैजयन्त्यास्त्रिभुवनदुर्लभविभ्रमरुभूमे । कुचमुकुलविचित्रपनवेल्लीपरिचित एप सदा शशिप्रभाया ॥२॥

——सारसाकचरित

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णम पहादा रअगीता सिग्धम् सअणम् परिचआमि । अधचा लहुलहु उत्पिदानि कि फारिसमणमे उदेमुम पहादरणीये मुम्थ्यपादाओप्सरन्ति, फामो दाणिम् सफामोभाद, जेण असचसन्धे जणेपिअसही तुदहिवआपद पारिदा ।"

——शकुन्तला नाटक

****

“संवाद कादम्बरीयानेन कुमारेण मत्तमदमुरसरमधुरखुलालकोलाहलाउलिते, पोककामिनीकरणजिते विहिजनमनादुःखे, विकचदलारविन्दनिम्पन्दर गनगन्दगन्धवारानन्दितदशादिशि प्रदापत्रमये विपरितकुतुममामोदमलितमानिनीमानारोन्मोचनहरते, र मुमाउधे !"

——कादम्बरी

[ २१ ]यदि इन श्लोको और गध अवतरणों को पढ़कर यह युक्ति जावे उपस्थित की जावे कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति कैसे हुई ? प्राकृत भाषा की उत्पत्ति का कारण यही है न कि संस्कृत के कठिन शब्दों को सर्व साधारण यथा रीति उच्चारण नहीं कर सकते थे, वे उदाहरण सौकर्य-साधन और मुख की सुविधा के लिये उसे कुछ कोमल और सरल कर लेते थे क्योकि मनुष्य का स्वभाव सरलता

और सुविधा को प्यार करता है, तो यह सिद्ध है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति ही सरलता और कोमलतामूलक है। अर्थात् प्राकृत भाषा उसीका नाम है जो संस्कृत के कर्कश शब्दों को कोमल स्वरूप में ग्रहण कर जन-साधारण के सम्मुख यथाकाल उपस्थित हुई है,और ऐसी अवस्था मे यह निर्विवाद है कि संस्कृत भाषा से प्राकृत कोमल और कान्त होगी । मै इस युक्ति को सर्वाश में स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नही हूँ। यह सत्य है कि प्राकृत भाषा में अनेक शब्द ऐसे है जो संस्कृत के कर्कश स्वरूप को छोड़ कर कोमल हो गये है। किन्तु कितने शब्द ऐसे है जो संस्कृत शब्दो का मुख्य रूप त्याग कर उच्चारण-विभेद से नितान्त कर्ण-कटु हो गये है और यही शब्द मेरे विचार मे प्राकृत वाक्यो को संस्कृत वाक्यो से अधिकांश स्थलो पर कोमल नहीं होने देते ।

निम्नलिखित शब्द ऐसे है जो संस्कृत का कर्कश रूप छोड़ कर प्राकृत में कोमल और कान्त हो गये है——


संस्कृत
धर्म
गन्धर्ब
प्रशसन्ति


प्राकृत
धम्म
गन्धब्ब
पससन्ति


सस्कृत
गर्ब
दर्शिन
प्रमाद


प्राकृत
गब्ब
दस्सिनो
प्रमादो


संस्कृते
पुत्र
अप्रमादेन
सर्व


प्राकृत
पुत्त
अप्पमादेन
सब्ब

[ २२ ]किन्तु निम्नलिखित शब्द नितान्त श्रुति-कटु हो गये है——


संस्कृत
प्रियवयस्येन
वृद्ध
खलु
राजा
नव
जन
सलिल
उधाने
उपनिमंत्रितेन


प्रकृत
पिअवअस्सेण
बुड्ढा
क्खु
रणा
णव
जण
शलिल
उज्जाणे
उबणिमन्तिदेण


संस्कृत
बृद्धेन
कदानु
कुपितेन
पालकेन
मिब
योग्येन
पानीयै
उपबंध
स्त्रातोह


प्राकृत
बुड्टेण
कदाणु
कुबिदेण
पालयेण
बिअ
जोग्गेण
पाणिएहि
उबबण
हादेह

इन दोनो प्रकार के उद्धृत शब्दों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो गया कि प्राकृत में सस्कृत के यदि अनेक शब्द कर्कश से कोमल हो गये है, तो उच्चारण-विभिन्नता, जल-वायु और समय-स्रोत के प्रभाव से बहुत से शब्द कोमल बनने के स्थान पर परम कर्ण-कटु बन गये है। संस्कृत के न, द्ध, व, य इत्यादि के स्थान पर प्राकृत भाषा में ण, ड, ढ, ब, अ इत्यादि का प्रयोग उसको बहुत ही श्रुति-कटु कर देता है, और ऐसी अवस्था मे जिस युक्ति का उल्लेख किया गया है, वह केवल एकाश में मानी जा सकती है सर्वाश में नही। और जब यह युक्ति सर्वाश मे गृहीत नहीं हुई, तो जिस सिद्वान्त का प्रतिपादन मै ऊपर से करता आया हूँ वही निर्विवाद ज्ञात होता है, और हमको इस बात के स्वीकार करने के लिये बाध्य करता है कि प्राकृत भाषा से संस्कृत भाषा परुष नहीं है। तथापि राजशेखर जैसा वावदूक विद्वान् उसको प्राकृत से परुप बतलाता है, इसका क्या कारण है ?

मै समझता हूॅ इसके निम्नलिखित कारण है——

[ २३ ]१——एक संस्कार जो सहस्रो वर्ष तक भारतवर्ष में फैला था, और जो प्राकृत को संस्कृत की जननी और उससे उत्तम बतलाता था।

२——प्राकृत का सर्वसाधारण की भाषा अथवा अधिकांश उसका निकटवर्ती होना।

३——बोलचाल मे अधिक आने के कारण प्राकृत का संस्कृत की अपेक्षा वोधगम्य होना।

और इसी लिये मेरा यह विचार है कि पदावली की कान्तता, कोमलता और मधुरता केवल पदावली में ही सन्निहित नहीं है। वरन् उसका बहुत कुछ सम्बन्ध सस्कार और हृदय से भी है। सम्भव है कि मेरा यह विचार इन कतिपय पंक्तियो द्वारा स्पष्टतया प्रतिपादित न हुआ हो। इसके अतिरिक्त यह कदापि सर्वसम्मत न होगा कि प्राकृत से संस्कृत परुष नहीं है, अतएव मैं एक दूसरे पथ से अपने इस विचार को पुष्ट करने की चेष्टा करता हूँ।

जिस प्राकृत भाषा के विषय में यह सिद्धान्त हो गया था कि——

सा मागधी मूलभाषा नरेय आदि कप्पिक ।
ब्राह्मणमसूटल्लाप समबुद्धच्चापि भाषरे ।।

पतिसम्विध अत्तय, नामक पाली ग्रन्थ में जिस भाषा के विषय में लिखा गया है कि “यह भाषा देवलोक, नरलोक प्रेतलोक और पशु जाति मे सर्वत्र ही प्रचलित है, किरात, अन्धक,योणक, दामिल प्रभृति भाषा परिवर्तनशील है । किन्तु मागधी, आर्य और ब्राह्मणगण की भाषा है, इसलिये अपरिवर्तनीय और चिरकाल से समानरूपेण व्यवहृत है। मागधी भाषा को सुगम समझ कर बुद्धदेव ने स्वयं पिटकनिचय को सर्वसाधारण के बोध-सौकर्य के लिये इस भाषा में व्यक्त किया था।" जिस प्राकृत को राजशेखर जैसा असाधारण विद्वान् संस्कृत से कोमल और मधुर होने का प्रशसापत्र देता है, काल पाकर वह अनाहत क्यो हुई ? उसका प्रचार इतना न्यून
[ २४ ]
क्यो हो गया कि उसके ज्ञाताओ की संख्या उँगलियो पर गिनी जाने योग्य हो गई ? मधुरता, कोमलता, कान्तता किसको प्यारी नहीं है, सुविधा का आदर कौन नहीं करता, फिर सुविधामूलक मधुर कोमलकान्त भाषा का व्यवहार क्यो कवियो की रचनाओ आदि में दिन दिन अल्प होता गया ? कहा जावेगा कि प्राकृत भाषा की प्रिय-द्वहिता परम सरला और मनोहरा हिन्दी भाषा का प्रचार ही इस ह्रास का कारण है । परन्तु प्रश्न तो यह है कि यह प्रिय-दुहिता अपनी जन्मदायिनी से इतनी विरक्त क्यो हो गई कि दिन-दिन उसके शब्दो को त्याग कर संस्कृत शब्दों को ग्रहण करने लगी; काल पाकर क्यो थोड़े प्राकृत शब्द भी अपने मुख्य रूप में उसमे शेष न रहे, और उस संस्कृत के अनेक शब्द उसमे क्यो भर गये जो कि परुप कही जाती है।

उस काल के ग्रन्थो में केवल एक ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो, अब हम लोगो को प्राप्त है, अतएव मैं उसी ग्रन्थ के कुछ पद्यो को यहाँ उद्धृत करता हूँ। आप लोग इनको पढकर देखिये कि किस प्रकार उस समय प्राकृत भाषा के शब्दो का व्यवहार न्यून और कैसे संस्कृत के शब्दो का समादर अधिक हो चला था।आज कल प्राकृत भाषा हम लोगो की इतनी अपरिचिता है कि उसके बहुत से शब्दों का व्यवहार करने के कारण ही, हम लोग अनुराग के साथ ‘पृथ्वीराज रासो' को नही पढ़ सकते और उससे घबड़ाते है।

श्लोक
आसामही कब्बी नवनव कित्तिय सग्रह ग्रंथ ।
सागरसरिसतरगी वोहय्थय उक्तियं चलय ॥
दोहा
काव्य समुद कविचन्द कृत युगति समापन ज्ञान ।
राजनीति वोहिथ सुफल पार उतारन यान ।।

[ २५ ]

सत्त सहस नष सिष सरस सकल आदि मुनि दिप्य ।
घट बढ़ मत कोऊ पढौ मोहि दूसन न वसिष्य ।।

चन्द की रचना में तो प्राकृत शब्द मिलते भी है, वरन् कही कही अधिकता से मिलते है, किन्तु महाकवि चन्द. के पश्चात् के जितने कवियो की कविताये मिलती है उनमे प्राकृत भाषा के शब्दो का व्यवहार बिल्कुल नहीं पाया जाता । कारण इसका यह है कि इस समय प्राकृत भाषा का व्यवहार उठ गया था और हिन्दी का राज्य हो गया था। इस काल की रचना मे अधिकांश हिन्दी-शब्द ही पाये जाते है, हिन्दी शब्द के साथ आते है तो संस्कृत के शब्द आते है, प्राकृत के शब्द बिल्कुल नहीं आते । महात्मा तुलसीदास, भक्तवर सूरदास और कविवर केशवदास की रचना मे तो कहीं कही हिन्दी-शब्दो से भी अधिक संस्कृत शब्दो का प्रयोग हुआ है।

पहले आप इन तीनो महोदयो के प्रथम की रचनाओ को देखिये——

तरवर से एक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया ।
बाप का उसके नाम जो पूछा आधा, नाम बताया ।।

 
सर्व सलोना सब गुन नीका । वा बिन सब जग लागे फीका ॥
वाके सिर पर होवे कोन । ए सखि साजन? ना सखि लोन ।। सिगरी रैन मोहि सँग जागा । भोर भया तो बिछुरन लागा ।। वाके बिछुरत फाटत हीया । ए सखि साजन? ना सखि दीया ।।

——अमीर खुसरो


क्या पढियै क्या गुनियै । क्या वेद पुराना सुनियै ।।
पढे' सुने क्या होई । जो सहज न मिलियो सोई ।।
हरि का नाम न जपसि गॅवारा । क्या । सोचै बारम्बारा ।।
अँधियारे दीपक चहिवै, । इक वस्तु अगोचर लयैि ।।
वस्तु अगोचर पाई । घट दीपक रह्यो समाई ।।
कह कबीर अब जाना । जब जाना तो मन माना ।।

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हृदय कपट मुख ज्ञानी । झूठे कहा बिलोबसि पानी ॥
काया माजसि कौन गुना । जो घट भीतर है मलना ॥
लौकी अठ सठ तीरथ न्हाई । कौरापन तऊ न जाई ॥
कह कबीर बीचारी । भवसागर तार मुरारी ।।

——कबीर साहब

 नागमती चितौर पथ हेरा । पिउ जो गये फिर कीन न फेरा ॥
सुआ काल ह्वै लैगा पीऊ । पीउ न जात जात बरु जीऊ ॥
भयो नरायन बावन करा । राज करत राजा बलि छरा ॥
करन बान लीनो कै छंदू । भरथहि भो झलमला अनदू ॥
लै कतहि भा गरुर अलोपी । विरह वियोग जियहि किमि गोपी ॥
का सिर बरनो दिपइ मयकू । चाँद कलकी वह निकलकू ॥
तेही लिलार पर तिलकु बईठा । दुइज पास मानो ध्रुव डीटा ॥

——मलिक महम्मद जायसी

अब आप उक्त तीनो महोदयो की रचनाओ को देखिये। इनमें संस्कृत शब्दो की कितनी प्रचुरता है—

जमुना जल बिहरति ब्रज-नारी ।

तट ठाढे देखत नँदनन्दन मधुर-मुरलि कर धारी ॥
मोर मुकुट श्रवनन मणि कुण्डल जलज-माल उर भ्राजत ।
सुन्दर सुभग श्याम तन नव घन बिच बग-पाँति विराजत ॥
उर बनमाल सुभग बहु भाँतिन सेत लाल सित पीत ।
मानो सुरसरि तट बैठे शुक बरन बरन तजि भीत ॥
पीतांबर कटि मैं छुद्रावलि बाजत परम रसाल ।
सूरदास मनो कनकभूमि ढिग बोलत रुचिर मराल ॥

——भक्तवर सूरदास


सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥
सरद चद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जीके ॥

[ २७ ]

चितवन चारु मार मद हरनी । भावत हृदय जात नहि बरनी ॥ कलकपोल श्रुति कुण्टल लोला । चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला ।। कुमुद-वधु कर निन्दक हॉसा । भृकुटी विकट मनोहर नासा ।। भाल विशाल तिलक झलकाही । कच विलोकि अलि अवलिलजाहीं।
रेखा रुचिर कम्बु कल ग्रीवा । जनु त्रिभुवन सोभा की सीवा ।।

——महात्मा तुलसीदास

हरि कर मडन सकल दुख खडन
मुकुर महि मडल को कहत अखण्ड मति ।
परम सुबास पुनि पीयुख निवास
परिपूरन प्रकास केसोदास भू अकाश गति ॥
बदन मदन कैसो श्री जू को सदन जहें,
सोदर सुभोदर दिनेस जू को मीत अति ।
सीता जू के मुख सुखमा की उपमा को
कहि कोमल न कमल अमल न रजनिपति ।।

——कविवर केशवदास

यदि अभिनिविष्ट चित्त से इस विषय मे विचार किया जावे तो स्पष्टतया यह बात हृदयङ्गम होगी कि संस्कृत-शब्दों के समादर और प्राकृत शब्दों में अप्रीति का मुख्य कारण बौद्ध-धर्म को पराजित कर पुन वैदिक धर्म का प्रतिष्ठा-लाभ करना है, जिसने संस्कृत की ममता पुन जागरित कर दी। जब वैदिक-धर्म के साथ-साथ | संस्कृत-भाषा का फिर आदर हुआ, तब यह असम्भव था कि प्राकृत शब्दों के स्थान पर फिर सस्कृत-शब्दो से अनुराग न प्रकट किया जाता। सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा का त्याग असम्भव था, किन्तु यह सम्भव था कि उसमें उपयुक्त संस्कृत-शब्द ग्रहण कर लिये जावे । निदान उस काल और उसके परवर्ती काल के कवियो की रचनाये मैने जो ऊपर उद्धत की है उनमे आप ये ही बाते पावेगे।
[ २८ ]प्राकृत, कोमल, कान्त और मधुर होकर भी क्यो त्यक्त हुई ? इस लिये कि सर्वसाधारण का संस्कार और हृदय उसके अनुकूलन रहा, इस लिये कि वह बोलचाल की भाषा, से दूर जा पडी और बोधगम्य न रही । संस्कृत के शब्द बोलचाल की भाषा से और भी दूर पड गये थे, और वह भी बोधगम्य नहीं थे, किन्तु धार्मिक-संस्कार ने उसके साथ सहानुभूति की, और इस सहानुभूति-जनितहृदय-ममता ने उसको पुन समादर का पान दिया। एक बात और है—मुख-सुविधा और श्रवन-सुखदाता मानसिक श्रम के सम्मुख आहत और वांछनीय नहीं होती, और कान्तता एवं कोमलता धार्मिक किवा जाति-भाषा-मूलक-संस्कार और तज्जनित-हृदय-ममता के सामने स्थान और सम्मान नहीं पाती। मुख और श्रवण मन के अनुचर है । जिस कविता के पठन करने में मुख को सुविधा हुई, सुनने में कान को आनन्द हुआ, किन्तु समझने में मन को श्रम करना पड़ा, तो वह कविता अवश्य उद्वेगकर होगी, और यदि अपार श्रम करके भी मन उसको न समझ सका तो उसकी कान्तता और कोमलता उसकी दृष्टि में कठोरता, दुरूहता और जटिलता की मूर्ति छोड़ और क्या होगी? इसके विपरीत वह यदि लिखने पढने किवा बोलचाल की भाषा की निकटवर्तिनी हो, मन के श्रम का आधार न हो, और उसमे मुख-सुविधाकारक अथच श्रवण-सुखद शब्द पर्याप्त न भी पाये जावे तो भी वह कविता आहत और गृहीत होगी, और उसके श्रवण-कटु एव मुख-असुविधाकारक शब्द कोमल और कान्त वन जावेगे, क्योकि सुविधा ही प्रधान है।

जब इस व्यापार में धार्मिक किवा जातिभाषा-मूलक संस्कार भी आकर सम्मिलित हो जाता है तब इसका रंग और गहरा हो जाता है । ब्रजभाषा ऐसी मधुर भाषा दुसरी नहीं मानी जाती,किन्तु कुछ लोगो का विचार है कि फारसी के समान मधुर भाषा संसार
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में दूसरी नहीं है । इस भाषा का प्रसिद्ध विद्वान और कवि अली हजी जब हिन्दुस्तान में आया, तो उसको व्रजभाषा के माधुर्य की प्रशसा सुन कर कुछ स्पर्धा हुई । वह ब्रज-प्रान्त में इस कथन की सत्यता की परीक्षा के लिये गया। मार्ग में उसको एक ग्वालिन जल ले जाते हुए मिली, जिसके पीछे पीछे एक छोटी कोमल वालिका यह कहती हुई दोड़ रही थी, ‘मायरे माय गैल सॉकरी पगन मैं कॉकरी गडतु हैं।' इस बालिका का कथन सुनकर वे चक्कर में आ गये और सोचा कि जहाँ की गॅवार बालिकाओं का ऐसा सरस भाषण है, वहाँ के कवियो की वाणी का क्या कहना परन्तु उनके सहधर्मियो ने इसी परम लावण्यवती, कोमला अथच मनोहरा ब्रज-भाषा का क्या समादर किया, उन्होने चुन-चुन कर इसके शब्दों को अपनी कविता में से निकाल बाहर किया और उनके स्थान पर फारसी अरबी के अकोमल और श्रुति-कटु शब्दों को भर दिया।

सबसे पहले मुसलमान कवि जिन्होने हिन्दी-भाषा में कविता करने के लिये लेखनी उठाई, अमीर खुसरो थे। यह कवि तेरहवे शतक में हुआ है। इसकी कविता का रंग देखिये——

खालिकवारी सिरजनहार । वाहिद एक वेदॉ करतार ।
रसूल पयम्बर जान बसीठ । यार दोस्त बोली जा ईट ।।
जेहाल मिस्कों मक्नु तगाफुल । दुराय नैना बनाय वतियाँ ।
किताबें हिजरा न दारम् ऐ जॉ। न लेहु काहे लगाय छतियों ।।

दक्षिण का सादी नामक एक आदिम उर्दू कवि बतलाया जाता है। उसकी कविता का नमूना यह है——

हम तुम्हन को दिल दिया, तुम दिल लिया औ दुख दिया ।
हम यह किया तुम वह किया, ऐसी भली यह पीत है ।।

वली भी उर्दू का आदिम कवि है, उसकी कविता का भी उदाहरण अवलोकन कीजिये—— [ ३० ]

दिल वली का ले लिया दिल्ली ने छीन ।
जा कहो कोई मुहम्मद शाह सो ।।

इन दोनो के उपरान्त ही शाह मुवारक का समय है, उसकी कविता का ढग यह है——

मत कह्न सेती हाथ में ले दिल हमारे को ।
जलता है क्यो पकड़ता है जालिम अॅगारे को ।।

ऊपर की कविताओ से प्रकट है कि पहले मुसलमान कवियो ने जो रचना की है उसमे या तो हिन्दी-पदो और शब्दो को बिल्कुल फारसी पदो या शब्दों से अलग रखा है, या फारसी या अरबी शब्दों को मिलाया है तो बहुत ही कम, अधिकांश हिन्दी-शब्दों से ही काम लिया है, किन्तु आगे चल कर समय ने पलटा खाया और निम्नलिखित प्रकार की कविता होने लगी——

नूर पैदा है जमाले यार के साया तले ।
गुल है शरमिन्दा रुखे दिलदार के साया तले ।।

——नासिख

आफतावे हश्र है या रब कि निकला गर्म गर्म ।
कोई ऑसू दिलजलो के दीदये गमनाक से ।।
न लौह गोर पै मस्तो के हो न हो तावीज ।
जो हो तो खिश्ते खुमे मै कोई निशॉ के लिये ।।

——जौक

खमोशी में निहाँ खूंँगश्ता लाखो आरजूये हैं ।
चिरागे मुर्दा हूँ मै बेजबॉ गोरे गरीबों का ।।
नक्श नाज़े बुतेतन्नाज ब आगोश रकीब ।
पायताऊस पये जामये मानी माँगे ।
यह तूफागाह जोशेइजतिरावे शाम तनहाई ।

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शोआये आफ्तावे सुब् हमहगरतारे बिस्तर है ।।
लवे ईसा की जुम्बिश करती है गहवारा जुॅबानी ।
कयामत कुस्तये लाले वुता का ख्वावे सगी है ।।

——गालिब

अब प्रश्न यह है कि वह कौन सी बात है कि जिसके कारण ब्रज भाषा का, कि जिसके माधुर्य पर अलीहजी ऐसा उदार हृदय पारसी कवि लोट पोट हो गया था, पीछे मुसलमान कवियो द्वारा तिरस्कार हुआ। क्यो उन्होने उसके कोमल कान्त पदोके स्थान पर फारसी और अरबी के श्रुति-कटु शब्दों का व्यवहार करना उचित समझा ? क्यो उन्होने ब्रज भाषा के सुविधापूर्वक उच्चारित वाले ग, ख, ज, फ, इत्यादि अक्षरो से निर्मित शब्दों के स्थान पर गैन, खे, जे, के, इत्यादि श्रुतिकठ-विदीर्णकारी अक्षरों से मिलित शब्दो का आदर किया ? इसका उत्तर इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि अरबी और फारसी भाषा में उसके अक्षरो और शब्दो में, उनके धार्मिक और जातिभाषामूलक सस्कार ही ने उन्हे उनसे आहत बनाया, इनमे जो उनकी हृदय-ममता है उसीने उन्हे इनको अगीकृत करने के लिये वाध्य किया।

जो कुछ अब तक कहा गया, उससे यह बात भली प्रकार सिद्ध हो गई कि किसी पदावली की कोमलता, कान्तता, मधुरता का बहुत कुछ सम्बन्ध, संस्कार और हृदय से है। इस अवसर पर यह कहा जा सकता है कि कोमलता, कान्तता इत्यादि का सम्बन्ध हृदय या संस्कार से नहीं है, वास्तव में उसका सम्बन्ध पदावली से ही है। हॉ, उसके आहत या अनाहत होने का सम्बन्ध निस्सन्देह संस्कार और हृदय से है। क्योकि यदि दो बालक ऐसे उपस्थित किये जावे कि जिनमे एक सुन्दर हो और दूसरा असुन्दर, तो निज अपत्य होने के कारण असुन्दर बालक मे पिता की हृदय-
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ममता हो सकती है, उसका स्वाभाविक संस्कार उसे निज पुत्र को आदर और सम्मान दृष्टि से देखने के लिये वाध्य कर सकता है, किन्तु इससे वह सुन्दर नहीं हो जावेगा, सुन्दर बालक को ही सुन्दर कहा जावेगा। इसी प्रकार किसी अकान्त और अकोमल पद को किसीका संस्कार और हृदय-भाव कान्त और कोमल नहीं बना सकता, क्योकि न्याय दृष्ठि कोमल और कांत को ही कोमल और कांत कह सकती है । जब सबको अपना ही अपत्य सुन्दर ज्ञात होता है तो इससे यह सिद्ध है कि उसको दूसरे के अपत्य के सौन्दर्य्य की अनुभूति नहीं होती, और जब अनुभूति नहीं होती, तो उसकी दृष्टि में उसका सौन्दर्य ही क्या ? इसी प्रकार जब किसी पदावली की कान्तता, मधुरता और कोमलता की अनुभूति ही नहीं होती, तो उसकी कान्तता, मधुरता, कोमलता ही क्या ? वास्तव में बात यह है कि ऐसे स्थानो पर संस्कार और हृदय ही प्रधान होता है।

पीयूपवर्षी कवि बिहारीलाल के निम्नलिखित दोहे कितने सुन्दर और मनोहर है——

बडे बडे छबि छाकु छकि छिगुनी छोर छुटैन ।
रहे सुरंग रंग रॅग वहीं, नहॅदी महॅदी नैन ।।
सतर भौह रुखे बचन,करति कठिन मन नीठि ।
कहा कहौ है जात हरि हेरि हॅसोही डीठि ।।
वतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय ।
सौह करें भौहनि हॅसै,देन कहै, नदि जाय ॥
यक भीगे चहले परे, बूड़े बहे हजार ।
किते न ओंगुन जग करे, नै चै चढती बार ॥

परन्तु आधुनिक पाठशालाओ के विद्यार्थियो और वर्तमान खडी बोली के अनुरागियो के सामने इनको रखिये, देखिये वह
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इनका कितना आदर करते हैं। मैने देखा है कि आज कल के खडी बोली के रसिक ब्रजभाषा की कविता से उतना ही घबड़ाते हैं, जितना कि वह किसी अपरिचित किंवा अल्प परिचित भाषा की कविता से घबडा सकते है । कारण इसका क्या है ? कारण इसका यही है कि लिखने पढ़ने और बोलचाल की भाषा-से वह दूर पड़ गई है। इन दोहो का माधुर्य, लालित्य और कोमलता अथच कान्तता निर्विवाद है, किन्तु जब वह इनको समझते ही नहीं, यदि समझने की चेष्टा करते हैं तो मन को विशेष श्रम करना पड़ता है, फिर उनकी दृष्टि में इनकी कोमलता और कान्तता ही क्या ? किन्तु यदि इन दोहो के स्थान पर कोई संस्कृत गर्भित खड़ी बोली की कविता रख दीजिये, तो देखिये वह उसको पढ़ कर कितना मुग्ध होते है और कितना आनन्दानुभव करते हैं, अतएव उनको उसी में कोमलता और कान्तता दृष्टिगत होती है। और यही कारण है कि आजकल सस्कार और हृदय-ममता दोनो खड़ी बोली की ओर आकर्षित हो गई है, कि जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण खड़ी बोली की कविता का समधिक प्रचार है।

जिन प्राचीन विद्वान् सज्जनो का संस्कार ब्रजभाषा के माधुर्य और कान्तता के विषय मे दृढ हो गया है, और इस कारण उसकी ममता उनके हृदय मे वद्धमूल है, वे यदि कहे कि खड़ी बोली की कविता कर्कश होती है, तो इसमे आश्चर्य ही क्या । ऐसे ही जिन्होने ब्रज भाषा का अभूतपूर्व रस आस्वादन नही किया है, जो ब्रज भाषा की रचना मे दुर्बोधता उपलब्ध करते है, वे यदि खड़ी बोली का समादर और प्यार करे और उसे ही कान्त और कोमल समझे तो इसमे भी कोई आश्चर्य नहीं, सदा ऐसा ही होता आया है और आगे भी ऐसा ही होगा। अब मुझे केवल इतना ही कहना है कि समय का प्रवाह खड़ी बोली के अनुकूल है, इस समय खडी
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बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है। अतएव मैने भी ‘प्रियप्रवास' को खड़ी बोली में ही लिखा है। संभव है कि उसमे अपेक्षित कोमलता और कान्तता न हो, परन्तु उससे यह सिद्धान्त नहीं हो सकता कि खड़ी बोली में सुन्दर कविता हो ही नहीं सकती । वास्तव बात यह है कि यदि उसमे कान्तता और मधुरता नहीं आई है तो यह मेरी विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का दोष है, खड़ी बोली का नहीं।

ग्रन्थ का विषय

इस ग्रन्थ का विषय श्रीकृष्णचन्द्र की मथुरा-यात्रा है, और इसीसे इसका नाम ‘प्रियप्रवास' रखा गया है। कथा-सूत्र से मथुरायात्रा के अतिरिक्त उनकी और ब्रज-लीलायें भी यथास्थान इसमे लिखी गई है। जिस विषय के लिखने के लिये महर्षि व्यासदेव, कवि-शिरोमणि सूरदास और भाषा के उपर मान्य कवियो तथा विद्वानो ने लेखनी की परिचालना की है, उसके लिये मेरे जैसे मढधी का लेखनी उठाना नितान्त मूढता है। परन्तु जैसे रघुवंश लिखने के लिये लेखनी उठा कर कवि-कुल-गुरु कालिदास ने कहा था, “मणौवज्रसमुत्कीर्णो सूत्रस्येवास्ति में गति.।" उसी प्रकार इस अवसर पर मैं भी स्वच्छ हृदय से यही कहूँगा “अति अपार जे सरित वर, जो नृप सेतु कराहि । चढ़ि पिपीलिका परम लघु, विनु श्रम पारहि जाहि ॥" रहा यह कि वास्तव में मै पार जा सका हूँ या बीच ही में रह गया हूँ, किंवा उस पावन सेतु पर चलने का साहस करके निन्दित वना हूँ, इसकी मीमांसा विवुध जन करे । मेरा विचार तो यह है कि मैंने इस मार्ग में भी अनु- चित दुस्साहस किया है, अतएव तिरस्कृत और कलकित होने की ही आशा है। हॉ, यदि म्मर्मज्ञ विद्वज्जन इसको उदार दृष्टि से पढ कर उचित संशोधन करेगे, तो आशा है कि किसी
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समय में इस ग्रन्थ का विषय भी रसिको के लिये आनन्दकारक होगा।

हम लोगो का एक संस्कार है, वह यह कि जिनको हम अवतार मानते है, उनका चरित्र जब कही दृष्टिगोचर होता है तो हम उसकी प्रति पंक्ति में या न्यून से न्यून उसके प्रति पृष्ठ में ऐसे शब्द या वाक्य अवलोकन करना चाहते है, जिसमें उसके ब्रह्मत्व का निरूपण हो । जो सज्जन इस विचार के हो, वे मेरे प्रेमाम्बुप्रश्रवण,प्रेमाम्बुप्रवाह और प्रेमाम्बुवारिधि नामक ग्रन्थों को देखे; उनके लिये यह ग्रन्थ नहीं रचा गया है। मैने श्रीकृष्णचन्द्र को इस ग्रन्थ में एक महापुरुष की भॉति अंकित किया है, ब्रह्म कर के नहीं। अवतारवाद की जड़ मै श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक मानता हूँ “यद् यद् विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छत्व ममतेजोशसभवम्", अतएव जो महापुरुष है, उसका अवतार होना निश्चित है। मैने भगवान् श्रीकृष्ण का जो चरित अंकित किया है, उस चरित का अनुधावन करके आप स्वय विचार करे कि वे क्या थे, मैने यदि लिख कर आपको बतलाया कि वे ब्रह्म थे, और तब आपने उनको पहचाना तो क्या बात रही । आधुनिक विचारो के लोगो को यह प्रिय नहीं है कि आप पक्ति-पंक्ति मे तो भगवान् श्रीकृष्ण को ब्रह्म लिखते चले और, चरित्र लिखने के समय “कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तु समर्थ प्रभु." के रंग में रॅग कर ऐसे कार्यों का कर्त्ता उन्हे बनावे कि जिनके करने में एक साधारण विचार के मनुष्य को भी घृणा होवे। संभव है कि मेरा यह विचार समीचीन न समझा जावे, परन्तु मैने, उसी विचार को सम्मुख रख कर इस ग्रन्थ को लिखा है, और कृष्णचरित को इस प्रकार अंकित किया है जिससे कि आधुनिक लोग भी सहमत हो सके। आशा है कि आप लोग दयार्द्र हृदय से मेरे उद्देश्य के
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समझने की चेष्टा करेगे और मुझको वृथा वाग्बाण का लक्ष्य न बनावेगे।

वर्णन-शैली

रुचि-वैचित्र्य स्वाभाविक है। कोई संक्षेप वर्णन को प्यार करता है कोई विस्तृत वर्णन को । किसी को कालिदास की प्रणाली प्रिय है, किसी को भवभूति की। संक्षेप वर्णन से जो हृदय पर क्षणिक गहरा प्रभाव पडता है कोई उसको आदर देता है, कोई उस विस्तृत वर्णन से मुग्ध होता है, जिसमे कि पूरी तौर पर रस का परिपाक हुआ हो । निदान किसी ग्रन्थ की वर्णन-शैली का प्रभाव किसी मनुष्य पर उसकी रुचि के अनुसार पड़ता है। जो विस्तृत वर्णन को नहीं प्यार करता वह अवश्य किसी ग्रन्थ के विस्तृत वर्णन को पढ कर ऊब जावेगा, इसी प्रकार जिसको किसी रस का संक्षेप वर्णन प्रिय नहीं, वह अवश्य एक ग्रन्थ के संक्षेप वर्णन को पढ़ कर अतृप्त रह जावेगा। और यही कारण है कि प्रतिष्ठित ग्रन्थकारो की समालोचनाये भी नाना रूपो में होती है । मैने अपने ग्रन्थ में वर्णन के विषय में मध्य-पथ ग्रहण किया है, किन्तु इस दशा में भी संभव है कि किसी सज्जन को कोई प्रसंग संक्षेप में वर्णन किया जान पड़े और किसी को कोई कथा भाग अनुचित विस्तार से लिखा गया ज्ञात हो । मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूँगा, यदि ग्रन्थ के सहृदय पाठकगण इस विषय में मुझे समुचित सम्मति देगे, जिसमे कि दूसरी आवृत्ति में मै अपने वर्णनो पर उचित मीमासा कर सकूॅ।

कवितागत कतिपय शब्द

अब मै इस ग्रन्थ की कविता में व्यवहृत किये गये कुछ-शब्दो के विषय में विचार करना चाहता हूँ। सब भाषाओं में गद्य की भाषा से पद्य की भाषा मे कुछ अन्तर होता है, कारण यह है कि
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छन्द के नियम में बँध जाने से ऐसी अवस्था प्राय उपस्थित हो जाती है, कि जब उसमे शब्दो को तोड़-मरोड़ कर रखना पड़ता है, या उसमें कुछ ऐसे शब्द सुविधा के लिये रख देने पड़ते हैं, जो गद्य में व्यवहृत नहीं होते। यह हो सकता है कि जो शब्द तोड़ या मरोड़ कर रखना पड़े वह, या गद्य में अव्यवहत शब्द कविता में से निकाल दिया जावे, परन्तु ऐसा करने में बड़ी भारी कठिनता का सामना करना पड़ता है; और कभी-कभी तो यह दशा हो जाती है कि ऐसे शब्दो के स्थान पर दश शब्द रखने से भी काम नहीं चलता । इस लिये कवि उन शब्दो को कविता में रखने के लिये वाध्य होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि उन शब्दो के पर्यायवाची दूसरे शब्द उसी भाषा में मौजूद होते हैं, और यदि वे शब्द उन शब्दो के स्थान पर रख दिये जावे, तो किसी शब्द को विकलांग बना कर या गद्य में अव्यवहृत शब्द रखने के दोष से कवि मुक्त हो सकता है, परन्तु लाख चेष्टा करने पर भी कवि को समय पर वे शब्द स्मरण नहीं आते, और वह विकलांग अथवा गद्य में अव्यवहृत शब्द रख कर ही काम चलाता है। और यही कारण है कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है । कवि-कर्म बहुत ही दुरूह है। जब कवि किसी कविता का एक चरण निर्माण करने में तन्मय होता है, तो उस समय उसको बहुत ही दुर्गम और संकीर्ण मार्ग में होकर चलना पड़ता है। प्रथम तो छन्द की गिनी हुई मात्रा अथवा गिने हुए वर्ण उसका हाथ पॉव बॉध देते है, उसकी क्या मजाल कि वह उसमे से एक मात्रा घटा या बढा देवे, अथवा एक गुरु को लघु के स्थान पर या एक गुरु के स्थान पर एक लघु को रख देवे। यदि वह ऐसा करे तो वह छंद-रचना का अधिकारी नहीं। जो इस विषय में सतर्क हो कर वह आगे बढ़ा, तो हृदय के भावो
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और विचारो को उतनी ही मात्रा वा उतने ही वर्गों में प्रकट करने का झगड़ा सामने आया, इस समय जो उलझन पड़ती है, उसको कवि-हृदय ही जानता है। यदि विचार नियत मात्रा अथवा वर्गों में स्पष्टतया न प्रकट हुआ, तो उसको यह दोष लगा कि उसका वाच्यार्थ साफ नहीं, यदि कोमल वर्णो मे वह स्फुरित न हुआ, तो कविता श्रुति-कटु हो गई। यदि उसमे कोई घृणाव्यञ्जक शब्द आ गया तो अश्लीलता की उपाधि शिर पर चढ़ी, यदि शब्द तोड़े-मरड़े गये तो च्युत-दोष ने गला दबाया, यदि उपयुक्त शब्द न मिले तो सौ सौ पलटा खाने पर भी एक चरण का निर्माण दुस्तर हो गया, यदि शब्द यथास्थान न पड़े तो दूरान्वय दोष ने ऑखे दिखायी। कहाँ तक कहे, ऐसी कितने बातें हैं, जो कविता रचने के समय कवि को उद्विग्न और चिन्तित करती हैं, और यही कारण है कि प्रसिद्ध ‘बहारदानिश' ग्रन्थ के रचयिता ने बड़ी सहृदयता से एक स्थान पर यह शेर लिखा है——

बराय पाकिये लफ़्जे शवे बरोज आरन्द ।
कि मुर्ग माही वाशन्द खुफता ऊवेदार ॥

इसका अर्थ यह है कि “कवि एक शब्द को परिष्कृत करने के लिये उस रात्रि को जाग कर दिन मे परिणत करता है, जिसको चिड़ियाँ और मछलियॉ तक निद्रा देवी के शान्ति-मय अङ्क में शिर रख कर व्यतीत करती है।" यदि कवि-कर्म इतना कठोर न होता, तो कवि-कुल-गुरु कालिदास जैसे असाधारण विद्वान् और विद्या-बद्धि निधान, ‘त्रयम्बकम् संयमिन ददर्श' इस श्लोक-खण्ड में ‘त्र्यम्बकम्' के स्थान पर ‘त्रयम्बकम्' न लिख जाते, जो कि ‘त्र्यम्बकम' का अशुद्ध रूप है । यदि इस त्रयम्बकम् के स्थान पर बहु त्रिलोचनम् लिखते तो कविता सर्वथा निर्दोष होती, किन्तु उन्होने ऐसा नहीं किया, जिससे यह सिद्ध होता है, कि कविता करने के समय बहुत

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चेष्टा करने पर भी उनको यह शुद्ध और कोमल शब्द स्मरण नहीं आया, और इसीसे उन्होने एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया जो च्युत-दोष से दूषित-है। किसी किसीने लिखा है कि उस काल में एक ऐसा व्याकरण प्रचलित था कि जिसके अनुसार ‘त्रयम्बकम्' शब्द भी अशुद्ध नहीं है, किन्तु यह कथन ऐसे लोगो का उस समय तक मान्य नहीं है, जब तक कि वह व्याकरण का नाम बतला कर उस सूत्र को भी न बतला दे कि जिसके द्वारा यह प्रयोग भी शुद्ध सिद्ध हो । इस विचार के लोग यह समझते है कि यदि कवि-कुलगुरु कालिदास की रचना में कोई अशुद्धि मान ली गई, तो फिर उनकी विद्वत्ता सर्वमान्य कैसे होगी। उनकी वह प्रतिष्ठा जो संसार की दृष्टि में एक चकितकर वस्तु है, कैसे रहेगी। अतएव येनकेन प्रकारेण वे लोग एक साधारण दोष को छिपाने के लिये एक बहुत बड़ा अपराध करते है, जिसको विबुध समाज नितान्त गर्हित समझता है।

इस विचार के लोग भाव-राज्य के उस मनोमुग्धकर-उपवन पर दृष्टि नहीं डालते, कि जिसके अंक में सदाशय और सद्विचार रूपी हृदय-विमोहक प्रफुल्ल-प्रसूनो के निकटवर्ती दो चार दोषकण्टको पर कोई दृष्टिपात ही नहीं करता । कवि किसी भाषा-हीन शब्द को यथाशक्ति तो रखता नहीं; जब रखता है तो विवश होकर रखता है। जिसकी रचना अधिकांश सुन्दर है, जिसके भाव लोक विमुग्धकर और उपकारक है, उसकी रचना में यदि कही कोई दोष आ जावे तो उस पर कौन सहृदय दृष्टिपात करता है, और यदि दृष्टिपात करता है तो वह सहृदय नही ।

“जड़ चेतन गुन दोष मय, विश्व कीन्ह करतार ।
सत हस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार ।।"

संसार में निर्दोष कौन वस्तु है ? सभी में कुछ न कुछ दोष है,
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जो शरीर बड़ा प्यारा है, उसीको देखिये, उसमे कितना मल है। चन्द्रमा में कंलक है, सूर्य में धब्बे है, फूल में कीड़े है, तो क्या ये संसार की आदरणीय वस्तुओ में नहीं है ? वरन् जितना इनका आदर है अन्य का नही है । कवि-कर्म-कुशल कालिदास की रचना। इतनी अपूर्व और प्यारी है, इतनी सरस और सुन्दर है, इतनी उप-देशमय और उपकारक है, कि उसमे यदि एक दोष नहीं सैकड़ो दोष होवे, तो भी वे स्निग्ध-पत्रावली-परिशोभित, मनोरम-पुष्पफल-भार-विनम्र पादप के, दश पॉच नीरस, मलीन, विकृत पत्तो समान दृष्टि डालने योग्य न होगे। फिर उन दोषों के विषय में बात बनाने से क्या लाभ ? मैं यह कह रहा था कि कवि कर्म नितान्त दुरूह है। अलौकिक प्रतिभाशाली कालिदास जैसे जगन्मान्य कवि भी इस दुरूहता-वारिधि-सन्तरण में कभी-कभी क्षम नहीं होते। जिनका पदानुसरण करके लोग साहित्य-पथ में पॉव रखना सीखते हैं, उन हमारे संस्कृत और हिन्दी के धुरन्धर और मान्य साहित्याचार्यों की मति भी इस सकीर्ण स्थल पर कभी-कभी कुण्ठित होती है,और जब ऐसो की यह गति है तो साधारण कवियो की कौन कहे ? मैं कवि कहलाने योग्य नही, टूटी-फूटी कविता करके कोई कवि नहीं हो सकता, फिर यदि मुझसे भ्रम प्रमाद हो, यदि मेरी कविता में अनेक दोष होवे तो क्या आश्चर्य । अतएव आगे जो मै लिखूॅगा, उसके लिखने का यह प्रयोजन नहीं है, कि मै रूपान्तर से अपने दोषों को छिपाना चाहता हूँ——प्रत्युत, उसके लिखने का उद्देश्य कतिपय शब्दों के प्रयोग पर प्रकाश डालना मात्र है।

कतिपय क्रिया

हिन्द गद्य में देखने के अर्थ में अधिकांश देखना धातु के रूपो का ही व्यवहार होता है, कोई-कोई कभी अवलोकना, विलोकना, दरसना, जोहना, लखना धातु के रूपो को भी प्रयोग करते हैं,
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किन्तु इसी अर्थ के द्योतक निरखना और निहारना धातु के रूपो का व्यवहार विल्कुल नहीं होता। अतएव इन कतिपय क्रियाओ के रूपों का व्यवहार कोई कोई खड़ी बोली के पद्य में करना उत्तम नहीं समझते, किन्तु मेरा विचार है कि इन कतिपय क्रियाओ से भी यदि खडी बोली के पद्यो में सकीर्ण स्थलो पर काम लिया जाये तो उसके विस्तार और रचना मे सुविधा होगी। मैं ऊपर दिखला चुका हूँ कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है, अतएव इनको ब्रज भाषा की क्रिया समझ कर तज देना मुझे उचित नहीं जान पड़ता और इसी विचार से मैने अपनी कविता में देखने के अर्थ मे इन क्रियाओ के रूपो का व्यवहार भी उचित स्थान पर किया है। ऐसी ही कुछ और क्रियाये है, जो ब्रज भाषा की कविता में तो निस्सन्देह व्यवहृत होती है, परन्तु खड़ी बोली के गद्य में इनका व्यवहार सर्वथा नहीं होता, या यदि होता है तो बहुत न्यून । किन्तु मैने अपनी कविता मे इनको भी निस्संकोच स्थान दिया है। मेरा विचार है कि इन क्रियाओ के व्यवहार से खड़ी बोली का पद्य-भाण्डार सुसम्पन्न और ललित होने के स्थान पर क्षति-अस्त और असुन्दर न होगा। ये क्रियाये लसना, विलसना, रचना, विराजना, सोहना, बगरना, वलजोना, तजना इत्यादि है। आधुनिक खड़ी बोली के कविता-लेखकों में से यद्यपि कई एक अपर सज्जनो को भी इनको काम मे लाते देखा जाता है, किन्तु इन लोगो में अधिकांश वे सज्जन है, जो ब्रज भाषा से कुछ परिचित है। जिन्होने ब्रज भाषा का कोमलकान्त-बदन बिल्कुल नहीं देखा, उनको कवितामे इन क्रियाओ का प्रयोग कथञ्चित् होता है। मैं अपने कथन की पुष्टि गद्य के अवतरणो और आधुनिक वर्तमान कवियो की कविताओ का अपेक्षित अंश उठा कर, कर सकता हूँ——किन्तु ऐसा करने मे यह लेख बहुत विस्तृत हो जावेगा। ब्रज भाषा की क्रियाओ
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का प्रयोग खडी बोली में उसके नियमानुसार होना चाहिये, व्रज भाषा के नियमानुसार नहीं, अन्यथा वह अवैध और भ्रामक होगा।

कुछ वर्गों का हलन्त प्रयोग

हिन्दी भाषा के कतिपय सुप्रसिद्ध गद्य-पद्य लेखको को देखा जाता है कि ये इसका, उसका, इत्यादि को इस्का,उस्का इत्यादि और करना, धरना, इत्यादि को कर्ना, धर्ना, इत्यादि लिखने के अनुरागी हैं। पद्य में ही संकीर्ण स्थलो पर वे ऐसा नहीं करते, गद्य में भी इसी प्रकार इन शब्दों का व्यवहार वे उचित समझते है। खड़ी वाली की कविता के लब्धप्रतिष्ठ प्रधान लेखक श्रीयुत पं० श्रीधर पाठक लिखित नीचे की कतिपय गद्य-पद्य की पंक्तियो को देखिये——

“यह एक प्रेम कहानी आज आपको भेंट की जाती है——निस्सन्देह इस्में ऐसा तो कुछ भी नहीं जिस्से यह आपको एक ही बार में अपना सके।"

“नम्रभाव से कीनी उस्ने विनय समेत प्रणाम"
“चला साथ योगी के हर्षित जहँ उस्का विश्राम"
“नहीं बडाभण्डार मढी में कीजै जिस्की रखवाली"
“दोनो जीव पधारे भीतर जिन्के चरित अमोल"

——एकान्तवासी योगी

हमारे उत्साही नवयुवक पण्डित लक्ष्मीधर जी वाजपेयी ने भी अपने ‘हिन्दी मेघदूत' मे कई स्थानों पर इस प्रणाली को ग्रहण किया है, नीचे के पद्यो को अवलोकन कीजिये:

“उस्का नीला जल पट तट श्रोणि से तू हरेगा"
“उस्के शातीहर शिखर पै तू लखेगा सखा यों"
“जिस्की सेवा उचित रति के अंत में मत्करो से"

वाजपेयी जी की कविता वर्णवृत्त मे लिखी गई है, जिसमे लघु
[ ४३ ]
गुरु नियत संख्या से आते है, इस लिये यदि उन्होने दो दीर्घ रखने के लिये कविता मे उसका, उसके, जिसकी के स्थान पर उस्का, उस्के, जिस्की लिखा तो उनका यह कार्य विवशतावश है। ऐसे स्थलों पर यह प्रयोग अधिक निन्दनीय नहीं है, किन्तु गद्य में अथवा वहाँ, जहाँ कि शुद्ध रूप में ये शब्द लिखे जा सकते हैं, इन शब्दो का सयुक्त रूप से प्रयोग में उचित नहीं समझता, इसके निम्न लिखित कारण है——

१——यह कि गद्य की भाषा में जो शब्द जिस रूप में व्यवहृत होते है, मुख्य अवस्थाओ को छोडकर पद्य की भाषा में भी उन शब्दो का उसी रूप मे व्यवहृत होना समीचीन, सुसंगत और बोधगम्य होगा।

२——यह कि उसको, जिसमे, जिसको इत्यादि शब्दो को प्राचीन और आधुनिक अधिकांश गद्य-पद्य-लेखक इसी रूप में लिखते आते है, फिर कोई कारण नहीं है कि इस प्रचलित प्रणाली का बिना किसी मुख्य हेतु के परित्याग किया जावे।

३——यह कि हिन्दी भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति यथा संभव सयुक्ताक्षरत्व से बच कर रहने की है, अतएव उसके सर्वनामो इत्यादि को जो कि समय-प्रवाह-सूत्र से संयुक्त रूप में नहीं हैं, संयुक्त रूप में परिणत करना दुर्बोधता और क्लिष्टता सम्पादन करना होगा।

अब रही यह बात कि यदि वास्तव में हिन्दी में कुछ अकारान्त वर्ण, शब्द-खण्ड और धातु-चिह्न के प्रथम के अक्षर हलन्तवत् बोले जाते है, तो कोई कारण नहीं है, कि उच्चारण के अनुसार वे लिखे न जावे । इस विषय में मेरा यह निवेदन है कि इन वर्गों, शब्द-खण्डो और धातु-चिह्नो के प्रथम के अक्षरों का ऐसा उच्चारण हिन्दी के जन्म-काल से ही है, या कुछ काल से हो गया है ? और यदि जन्मकाल से ही है, तो इसके व्याकरण-रचयिताओ और
[ ४४ ]
लेखको ने इस विषय में अमनोनिवेश क्यो किया ? यदि उन्होंने मनोनिवेश नहीं भी किया तो एक वास्तव और युक्तिसंगत बात के ग्रहण करने में इस समय संकोच क्या ? और यदि उसके ग्रहण में संकोच उचित नहीं, तो केवल पद्म में ही वे क्यो ग्रहण किये जावे, गद्य में भी क्यो न गृहीत हो? इन प्रश्नो के उत्तर में अधिक न लिखकर मैं केवल इतना ही कहूँगा कि इन वर्गों, शब्द-खडों और धातु-चिह्नों के प्रथम के अक्षरो को भाषाव्याकरण कर्त्ताओ ने स्वर-संयुक्त माना है, हलन्तवत् नही । क्योकि हलन्तवत् क्या? कोई व्यञ्जन या तो स्वर-संयुक्त होगा या हलन्त, और जब उन्होने उनको स्वर-संयुक्त मान कर ही उनके सब रूप बनाये है, तो अब उनके विषय मे एक नवीन पद्धति स्थापित करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, क्योकि व्याकरण उच्चारण के अनुकूल ही बनता है, उसके प्रतिकूल नहीं। समय पाकर उच्चारण में भिन्नता अवश्य हो जाती है और उस समय व्याकरण भी बदलता है, परन्तु इन वर्णों, शब्द-खंडो और धातु-चिह्नो के प्रथम के अक्षर के लिये अभी वे दिन नहीं आये है। सोचिये, यदि इसको, जिसको इत्यादि को इस्को, जिस्को लिखे और करना, धरना, चलना इत्यादि को कर्ना, धर्ना, चल्ना इत्यादि लिखने लगे, तो हिन्दी भाषा में कितना बड़ा परिवर्तन उपस्थित होगा।

समादरणीय पाठक जी का एक लेख खड़ी बोली की कविता पर प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यविवरण मे मुद्रित हुआ है, उसके पृष्ठ ३२ मे एक स्थान पर उन्होने इस विषय पर विचार करते हुए ऐसे शब्दो के विषय मे यह लिखा है——

“भाषा के शील संरक्षण की दृष्टि से पद्य लिखने में आवश्य- कतानुसार बोलने की रीति अवलम्बन करने से कोई आपत्ति तो नहीं उपस्थित होती।"
[ ४५ ]‘इस सब जगड़बाल के प्रदर्शन से मेरा अभिप्राय यह नहीं है, कि हमारी भाषा के पद्य मे इस प्रकार शब्द व्यवहार करना चाहिये, किन्तु बुधजनो के विचार के लिये यह मेरी केवल एक प्रस्तावना मात्र है।"

ये दोनो वाक्य यह स्पष्ट बतला देते है कि प्रशंसित पाठक जी भी गद्य में इस प्रकार शब्दो को लिखना उचित नहीं समझते, पद्य में भी वह आवश्यकतानुसार ऐसा प्रयोग आपत्ति-रहित मानते है। पाठक जी के निम्न लिखित वाक्यांशो से भी यही बात सिद्ध होती है।

“आज कल मैं ऐसे स्थान पर हूँ कि उदाहरण नहीं दे सकता।",

“दूसरा वह जिसमे भाषा का यह गुण उपेक्षित सा देखने मे आता है", “मिश्रित वा खिचड़ी भाषा के पद्य मे यह योग्यता नहीं आ सकती", “ऐसी भाषा का प्रयोग उत्कृष्ट काव्य मे कदापि न करना चाहिये।

हि० सा० स० वि० प्रथम भाग पृष्ठ २९

“उसके मन में सर्वोचम है उसका ही प्रिय जन्मस्थान"

“उनके उर के मध्य मूर्खता का अंकुर भी बोता है"

——आन्तपथिक पृष्ठ ४,१३

अब मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि कुछ अकारान्त वर्ण जैसे बस, अब जतन इत्यादि के स, ब, न आदि, कुछ ऐसे शब्द-खण्ड के अन्त्याक्षर जिन पर बोलने में आघात सा पड़ता है जैसे गलबाही, मनभावना इत्यादि के गल और मन आदि, कुछ ऐसे वर्ण जो धातु-चिह्न के पहले रहते हैं जैसे करना, धरना, चलना इत्यादि के र, ल, आदि यदि आवश्यकतानुसार उच्चारण का ध्यान कर के पद्य में हलन्त कर लिये जावे तो उससे कुछ सुविधा होगी या नही ? और ऐसे प्रयोग का हिन्दी भाषा के पद्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? मै प्रशंसित पाठक जी के उक्त लेख में से ही एक पद्य यहाँ उठाता हूँ, आप इसे अवलोकन कीजियेः——
[ ४६ ]

पर इ्त्ने पर् भी तो नहिं मन हुआ शान्त उनका।
बस् अब् क्या करना था जब जतन कोई नहिं चला।

इस पद्य में इतने को इत्ने्, पर को पर्, बस को बस् और अब को अब् किया गया है। यह संस्कृत का शिखरिणी छंद है। यगण, भगण, नगण, सगण, मगण लघु गुरु का शिखरिणी छंद होता है। श्रुतबोध में इसका लक्षण यह लिखा है——

यदि प्राच्यो ह्रस्वत्तुलितकमले पञ्चगुरवः।
ततो वर्णा पञ्च प्रकृतिसुकुमाराङ्गि लघव॥
त्रयोन्ये चोपान्त्या सुतनुजघने भोगसुभगे।
रसैरीशै यस्या भवति विरति सा शिखरिणी॥

इस लिये यदि ऊपर के दोनो चरण निम्नलिखित रीति से लिखे जावे तो निर्दोष होगे, जैसे वे लिखे गये हैं, उस रीति से लिखने मे छन्दो-भङ्ग होता है।

परित्ने पर् भी तो नहिं मन हुआ शान्त उनका।
बसब क्या कर्ना था जब जतन कोई नहिं चला॥

प्रथम प्रकार से लिखने में पहले चरण में दो लघु के उपरान्त चार गुरु पड़ते है, किन्तु उक्त नियमानुसार एक लघु के पश्चात् पाँच गुरु होने चाहिये। इस लिये यदि यह चरण खण्ड 'परित्ने पर भी' कर दिया जावे तो दोषनिवृत्त हो जाता है। इसी प्रकार 'बस् अब क्या करना था। यो लिखने से दूसरे चरण के प्रथम खण्ड में पहले तीन गुरु फिर दो लघु और बाद को दो गुरु पड़ते है, अतएव यह चरण-खण्ड भी सदोष है, यह जब यो लिखा जावे कि 'वसब क्या कर्ना था' तो ठीक होगा। किन्तु यह बतलाइये कि इस प्रकार शब्दविन्यास कहाँ तक समुचित होगा। सस्कृत के यत्, तत् की भाँति पर को पर्, बस को बस् और अब को अब् लिख कर एक गुरु बना लेना कहाँ तक युक्ति-संगत और हिन्दी भाषा की प्रणाली के अनुकूल
[ ४७ ]
है, इसको सहृदय पाठक स्वयं विचारें। इन्हीं दोनो चरणों मे मन, उनका, जब, और जतन भी हैं, किन्तु ये मन्, उन्का, जब और जतन नहीं बनाये गये। मुख्य कारण यह है कि ऐसा करने से छन्द और सदोप हो जाता, तथा उसकी भगता का पारा और ऊँचा चढ़ जाता। इस लिये उनके रूप परिवर्तन की आवश्यकता नहीं हुई। यदि यह प्रणाली भाषा पद्य मे चलाई जावे तो उसमे कितनी जटिलता और दुरूहता आ जावेगी इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं, कथित दोना वाते ही इसका पर्याप्त प्रमाण है। हिन्दी भाषा की प्रकृति हलन्त को प्राय सस्वर बना लेने की है। यदि उसकी इस प्रकृति परष्टि न रख कर उसके सस्वर वर्णों को भी हलन्त बना कर उसे संस्कृत का रूप दिया जाने लगे तो उसका हिन्दीपन तो नष्ट हो ही जायगा, साथ ही वह संस्कृत भाषा के हलन्त वर्षों के समान संधि साहाय्य से सौंदर्य सम्पादन करने के स्थान पर नितान्त असुविधामूलक पद्धति ग्रहण करेगी और अपनी स्वाभाविक सरलता खो देगी।

संस्कृत के निम्नलिखित पद्यो को देखिये, इनमे किस प्रकार हलन्त वर्णों ने सस्वर व्यञ्जनका रूप ग्रहण किया है और इस परि. वर्तन से इन पदो मे कितना माधुर्य्य आ गया है। हिन्दी मे किसी हलन्त वर्ण को यह सुयोग कदापि प्राप्त नहीं हो सकता, क्योकि उसकी प्रकृति ही ऐसी नहीं है । उदाहरण के लिए नीचे की कविता के दोनो चरण ही पर्याप्त हैं।

वसुधामपि हस्तगामिनीमकरोदिन्दुमती मिवापराम् ।
इति यथाक्रममाविरभून्मधुमवतीमवतीयं वनस्थलीम् ।

——रघुवश

मामपि दहत्येकायमहर्निशिमनल इवापत्यतासमुद्भव. शोक ।
शून्यमिव प्रतिभाति मे जगत् अफलमिव पश्यामि राज्यम् ।

——कादम्बरी

जो उर्दू के ढंग का पद्य सुधी पाठक जी ने संगीत शाकुन्तल
[ ४८ ]
से उठाया है, उसको भी मै नीचे लिखता हूँ, आप लोग इसे भी देखिये——

पर इस्से पूछ ले क्या इसका मन है ।
तू सोचे जा न कर चिन्ता कुछ इसकी ।।

इस पद्य में इससे को इस्से कर दिया गया है, किन्तु दोनों की ही चार मात्राये है, इस लिये इस पद्य मे यदि इस्से के स्थान पर 'इससे ही रहता तो भी कोई अन्तर न पड़ता जैसा कि पद्य के दूसरे चरण के इसकी, और इसी चरण के ‘इसका' के इसी । रूप मे लिखे जाने से कोई अन्तर नहीं पड़ा। यह उन्नीस मात्रा का, मात्रिक छन्द है, इसके चरणो में दो दो मात्रा अधिक है। इससे । जो तौल कर न पढ़ा जावे, तो इनमे छन्दोभङ्ग होता है। परन्तु यह छन्दोभङ्ग-दोष उनमे के इससे इसका, इसकी को इस्से, इस्का, इस्की कर देने से दूर नहीं हो सकता, क्योकि मात्रा दोनो रूपो मे ही समान है फिर उसको यह रूप देने से क्या लाभ ? हॉ, यदि वे निम्नलिखित प्रकार से लिखे जावे तो निस्सन्देह उनकी सदोषता दूर हो जावेगी, परन्तु ऐसी अवस्था मे शब्दार्थ के समझने मे कितनी उलझन होगी, यह अविदित नही है।

प, इससे पूछ ले क्या इसक मन है ।
तु सोचे जा, न कर चिन्ता कुछिसकी ।।

संस्कृत के वर्णवृत्त और हिन्दी के मात्रिक छन्दो की नियमावली इतनी सुन्दर और तुली हुई है, और उसमे लघु गुरु वर्णों के संस्थान और मात्राओ की सख्या इस रीति से नियत की गई है कि यदि सावधानी से कार्य किया जावे, तो उनकी रचता मे छन्दोभङ्ग हो ही नहीं सकता। दूसरी बात यह कि जब पद्य-रचना हो गई तो जैसे चाहिये पढ़िये, दूसरे से पढ़वाइये, उसके पढने में उलझन
[ ४९ ]
होहीगी नहीं। क्योकि उसमे एक लघु गुरु अक्षर का हेर फेर नहीं, एक मात्रा घट बढ नहीं, फिर छन्दोभङ्ग कैसे होगा, और जब छन्दोभन नहीं होगा तो उलझन क्यो होगी? किन्तु उर्दू पद्योकी रचना वजन पर होती है, न उनमे लघु, गुरु का नियम है, न मात्राओ का; केवल कुछ वजन नियत है, उन्ही वजनो को कैंडा मान कर उसी कैडे पर उसमे कविता की जाती है । जैसे, एक वजन बताया गया, “मफऊलफायलातुन मफऊलफायलातुन" अब इसी वजन पर उर्दू के कवि को कविता करनी पड़ती है, उसको यह ज्ञात नहीं है कि कितने अक्षर और मात्रा से इस वजन का छन्द बनेगा। यह प्रणाली उसने अरबी और फारसी से ली है। अभ्यास एक अद्भुत वस्तु है, उससे सब कुछ हो सकता है, और उसी के द्वारा केवल वजन के आश्रय से अरबी फारसी में बिना छन्दोभङ्ग के बड़ी सुन्दर कविताये लिखी गई हैं। उनमे एक मात्रा की भी घटी-बढ़ी नहीं पाई जाती, वजन पर ही उनकी अधिकांश कविता छन्दो-गति विषय में सर्वथा निर्दोष हैं। परन्तु उर्दू में केवल वजन ने बड़ी उलझन पैदा की है, मुख्य कर उन लोगो के लिये जो वर्णवृत्त और मातृक छन्द पढ़ने के अभ्यस्त है। उर्दू कवियों ने वजन पर काम किया है, इसलिये भाषा की क्रियाओ और शब्दों को बेतरह दबा-दुबू और तोड़-फोड़ डाला है । क्योकि वजन के कैडे पर वे प्राय. ठीक नहीं उतर सके। उर्दू भाषा में लिखे गये छन्द को कोई मनुष्य उस समय तक शुद्धता से कदापि नही पढ़ सकता, जब तक कि उसको वजन न ज्ञात हो । यदि कोई अक्षरों और मात्राओ के सहारे शब्दो का शुद्ध उच्चारण करके उर्दू के पद्यो को पढ़ना चाहेगा, तो अधिकांश स्थलों पर उसका पतन होगा। मिर्जा गालिब का एक शेर है——

यह कहाँ की दोस्ती है जो बने हैं दोस्त नासेह ।
कोई चाराकार होता कोई गम गुसार होता ॥

[ ५० ]यह शेर यदि निम्नलिखित प्रकार से लिख दिया जावे तब तो उसको सव शुद्धतापूर्वक पढ़ लेगे, अन्यथा बिना वजन पर दृष्टि डाले उसका ठीक-ठीक पढ़ना असभव है——

य कहाँ की दोस्ती है जुबनेह दोस्त नासह ।
को चारकार ' होता को गम गुसार होता ।।

यह हिन्दी-भाषा का २४ मात्रा का दिग्पाल छन्द है, जिसमे बारह बारह मात्राओं पर विराम होता है। किन्तु आप देखे, चौवीस मात्रा का छन्द बना कर लिखने में उक्त शेर के कुछ शब्द कितने विकृत हुए है और किस प्रकार उनमे दुर्बोधता आ गई है। अतएव बोध के लिये शब्दों का शुद्ध रूप में लिखा जाना ही समुचित और आवश्यक ज्ञात होता है। हॉ, पढ़ने के लिये उस वजन का अवलम्बन करना पडेगा जो कि दिग्पाल छन्द का है, चाहे शब्दों और रसना को कितना ही दबाना पड़े, निदान यही प्रणाली प्रचलित भी है। जब उर्दू बह्र में लिखे गये शेर, या हिन्दी-भाषा के पद्य, लिखे चाहे जिस प्रकार से जावे, पढ़े वजन के अनुसार ही जावेगे तो फिर शब्दो को विकृत करने से क्या प्रयोजन ? मै समझता हूँ इस विषय मे वही पद्धति अवलम्बनीय है, जो अब तक प्रचलित और सर्वसम्मत है।

मै यह स्वीकार करता हूँ कि कभी-कभी मात्रिक छन्दो में भी स्वरसयुक्त वर्ण को हलन्तवत् पढ़ने से ही छन्द की गति निर्दोष रहती है, और कही-कहीं इस छन्द में भी वर्णवृत्त के समान नियमित स्थान पर नियत रीति से लघु, गुरु रखने से ही काम चलता है। किन्तु उर्दू बह्र के वजन ही जब इस काम को पूरा कर देते है, तो शब्दो को विकृत कर के बोध में व्याघात उत्पन्न करना युक्तिसगत नही जान पड़ता। वजन के अनुकूल शब्दों को विकृत करके कविता को ठीक कर लेना यद्यपि छन्द की गति के लिये
[ ५१ ]
अवश्य उपयोगी होगा, परन्तु उससे जो शब्दों में विकृति होगी, वह बड़ी ही दुर्बोधता और जटिलतामूलक होगी, अतएव ऐसी अवस्था मे वजन का आश्रय ही वांछनीय है, शब्द की विकृति नही, निदान इस समय यही प्रणाली प्रचलित और गृहीत है।

मैंने इन्ही बातो पर दृष्टि रख कर ‘प्रियप्रवास' में इसको, जिसको, करना इत्यादि को इसी रूप मे लिखा है, उनको सयुक्ताक्षर का रूप नही दिया है। न, जन, मन, मदन बस, अब इत्यादि के अंतिम अक्षरो को कही गुरु बनाने के लिये हलन्त किया है, आशा है मेरी यह प्रणाली बुधजन द्वारा अनुमोदित समझी जावेगी।

हलन्त वर्णों का सस्वर प्रयोग

मैं ऊपर लिख आया हूँ कि हिन्दी भाषा की यह स्वाभाविकता है कि वह प्राय युक्त वर्गों को सारल्य के लिये अयुक्त बना लेती है और हलन्त वर्ण को सस्वर कर लेती है, गर्व, मर्म, धर्म, दर्प,मार्ग इत्यादि का गरब, मरम, धरम, दरप, मारग इत्यादि लिखा जाना इस बात का प्रमाण है । यद्यपि आजकल की भाषा अर्थात् गद्य में ये शब्द प्राय. शुद्ध रूप मे ही लिखे जाते है, किन्तु साधारण बोलचाल मे वे अपभ्रंश रूप में ही काम देते है। खड़ी बोलचाल की कविता में गद्य के संसर्ग से वे शुद्ध रूप में भी लिखे जाने लगे हैं। किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उनके अपभ्रंश रूप से भी काम लिया जाता है। मेरे विचार में यह दोनो प्रणाली ग्राह्य है। हलन्त वर्ण को सस्वर करके लिखने और युक्त वर्ण को अयुक्त वर्ण का रूप देने की प्रथा प्राचीन है उसके पास आचार्यों और प्रधान काव्य-कर्ताओ द्वारा व्यवहार किये जाने की सनद भी है, जैसा कि निम्नलिखित पद्य-खण्डो के अवलोकन करने से अवगत होगा:——
[ ५२ ]

शुक से मुनि शारद से बकता,
चिरजीवन लोमस से अधिकाने।

——गोस्वामी तुलसीदास

आपने करम करि उतरोगो पार,
तो पै हम करतार करतार तुम काहे को।

——सेनापति

राति ना सुहात ना सुहात परभात आली,
जब मन लागि जात काहू निरमोही सो ।

——पद्माकर

जो विपति हूँ मै पालि पूरब प्रीति काज सँवारहीं।
ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं सशय नहीं ।

——भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (मुद्राराक्षस)

निदान इसी प्रणाली का अवलम्बन करके मैंने भी ‘प्रियप्रवास' में मरम इत्यादि शब्दो का प्रयोग संकीर्ण स्थलो पर किया है। ऐसा प्रयोग मेरी समझ में उस दशा में यथाशक्ति न करना चाहिये, जहाँ वह परिवर्तित रूप में किसी दूसरे अर्थ का द्योतक होवे। जैसा कि कविवर विहारीलाल के निम्नलिखित पद्य का समर शब्द है, जो स्मर का अशुद्ध रूप है और कामदेव के अर्थ में ही प्रयुक्त है, परन्तु अपने वास्तव अर्थ सग्राम की ओर चित्त को आकर्षित करता है।

“धस्यो मनो हिय घर समर ड्योढी लसत निसान"

हिन्दी-भाषा की कथित प्रकृति पर दृष्टि रख कर ही प्राचीन कतिपय लेखको ने पद्य क्या गद्य में भी अनेक शब्दो के हलन्त वर्ण को सस्वर लिखना प्रारम्भ कर दिया था। मुख्यतः वे उस हलन्त वर्ण को प्राय सस्वर करके लिखते थे जो कि किसी शब्द के अन्त मे होता था। इस बात को प्रमाणित करने के लिये मैं मार्मिक लेखक स्वर्गीय श्रीयुत पंडित प्रतापनारायण मिश्र लिखित कतिपय पंक्तियाँ उनके प्रसिद्ध ‘ब्राह्मण' मासिक पत्र के खण्ड ४ संख्या १, २ से नीचे अविकल उद्धृत करता हूँ:——
[ ५३ ]“तो कदाचित कोई परमेश्वर का नाम भी न ले"

“आप को चन्द्र- सूर्य इन्द्र करण व हातिम बनाया करते हैं

“छोटे बड़े दरिद्री धनी मूर्ख विद्वान सब का यही सिद्धान्त है"

——पृष्ठ सख्या १०

“सभी या तो प्रत्यक्ष ही विषवत या परम्परा द्वारा कुछ न कुछ नाश करनेवाले"

“बधनरहित होने पर भी भगवान का नाम दामोदर क्यो पड़ा"

——सख्या २ पृष्ठ

“द्रुपदतनया को केशाकरषण एवं वनवास आदि का दुख सहना पडा।

“यदि थोड़े से लोग उसके चाहनेवाले हैं भी तो निर्बल निरधन बदनाम"

——सख्या २ पृष्ठ ३

“यद्यपि कभी कभी विद्वान, धनवान और प्रतिष्ठावान लोग भी उसके यहाँ जा रहते हैं"

——सख्या २ पृष्ठ ५

“उसके चाहनेवाले उसे सारे जगत की भाषा से उत्तम माने बैठे हैं"

——सख्या २ पृष्ठ ६

“इस से निरलज हो के साफ साफ लिखते हैं।

——सख्या १ पृष्ठ ४

किन्तु आज कल गद्य में किसी हलन्त वर्ण को सस्वर लिखना तो उठता ही जा रहा है, प्रत्युत पद्य में भी इसका प्रचार हो चला है। मध्य के हलन्त वर्ण की बात तो दूर रही इन दिनो किसी शब्द के अन्त्यस्थित हलन्त को, भी कतिपय आधुनिक प्रधान लेखक सस्वर लिखना नहीं चाहते । कदाचित् , विद्वान् , विषवत् , भगवान , धनवान् , प्रतिष्ठावान , जगत इत्यादि शब्दो के अन्तिम वर्ण को भी वे अब सस्कृत की रीति के अनुसार हलन्त ही लिखते
[ ५४ ]
है। आज कल वही लोग ऐसा नहीं करते जो संस्कृत कम जानते है अथवा प्राचीन प्रणाली के अनुमादक हैं, अन्यथा प्राय हिन्दी लेखक इसी पथ के पान्थ हैं। मैं यह कहूँगा कि इस प्रथा का जितना अधिक सामयिक पत्र-पत्रिकाओ में प्रचार हो रहा है, उतना ही संस्कृत से अनभिज्ञ लेखक को हिन्दी लिखना एक प्रकार से दुम्तर हो चला है और इस मार्ग में कठिनता उत्पन्न हो गई है परन्तु समय के प्रवाह को कौन रोक सकता है ? पद्य में अब भी यह प्रणाली सर्वतोभावेन गृहीत नहीं हुई है, उदाहरण स्वरुप निम्नलिखित पद्यो पर दृष्टिपात कीजिय——

“मित्र बन्धु विद्वान साधु-समुदाय एक सपना पाया ।"
“इस प्रकार हो विन जगत में नहीं किसी पर मरता हूॅ ।"
“तो भी किन्तु कदाचित यदि बहु देशों का हम परे मिलाना ।"
“परिमित इच्छावान वहाँ के योग्य वहाँ का है वासी ।'
“दीन उसे बेचे है औ धनवान मोल का मॉगै है ।'

——प० श्रीधर पाठक ( श्रान्तपथिक )

“धे नियग विद्या विनय के भीर हम विद्वान थे ।
धर्मनिष्ठा भी सभी गुणवान थे श्रीमान थे ‌।।

——सरस्वती, भाग १४ खड २ गल्या ५ पृष्ट ६३३

मैंने भी ‘प्रियप्रवास में कदाचित, महन् इत्यादि शब्दों का प्रयोग आवश्यक स्थलों पर उनके अन्तिम हलत वर्ग को सस्वर बना कर किया है। मेरा विचार है कि कविता के लिये इतनी सुविधा आवश्यक है, यो तो हिन्दी की गठन-प्रणाली का ध्यान करके इनका गद्य में भी इस प्रकार लिसा जाना सर्वथा असगत नहीं है ।

  1. जहाँ से यह ग्रन्थ छपा है वहीं से 'वैदेही-वनवास' भी छापा गया है।