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प्रियप्रवास/चतुर्दश सर्ग

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ २६१ से – २८५ तक

 

मन्दाक्रान्ता छन्द

कालिन्दी के पुलिन पर थी एक कुंजातिरम्या।
छोटे - छोटे सु · द्रुम उसके मुग्ध - कारी बड़े थे।
ऐसे न्यारे प्रति - विटप के अंक मे शोभिता थी।
लीला - शीला - ललित-लतिका पुष्पाभारावनम्रा ।।१॥

बैठे ऊधो मुदित - चित से एकदा थे इसीमे ।
लीलाकारी सलिल सरि का सामने सोहता था।
धीरे - धीरे तपन - किरणे फैलती थी दिशा मे।
न्यारी - क्रीड़ा उमग करती वायु थी पल्लवो से ॥२॥

बालाओ का यक दल इसी काल आता दिखाया।
आशाओ को ध्वनित करके मंजु - मंजीरको से।
देखी जाती इस छविमयी मण्डली संग मे थी।
भोली - भाली कतिपय बड़ी - सुन्दरी -बालिकाये॥३।।

नीला - प्यारा उदक सरि का देख के एक श्यामा ।
बोली हो के विरस - वदना अन्य - गोपांगना से ।
कालिन्दी का पुलिन मुझको उन्मना है बनाता।
लीला - मग्ना जलद • तन की मत्ति है याद आती ॥४॥

श्यामा - बाते श्रवण कर के बालिका एक रोई ।
रोते - रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनो ।
ज्यो ज्यो लज्जा - विवश वह थी रोकती वारि-धारा ।
त्यो त्यो आँसू अधिकतर थे लोचनो मध्य आते ॥५॥

ऐसा रोता निरख उसको एक मर्मज्ञ बोली ।
यो रोवेगी भगिनि यदि तू बात कैसे बनेगी ।
कैसे तेरे युगल - हग ए ज्योति - शाली रहेंगे ।
तू देखेगी वह छविमयी - श्यामली - मूर्ति कैसे ॥६॥

जो यो ही तू बहु - व्यथित हो दग्ध होती रहेगी ।
तेरे सूखे - कृशित - तन मे प्राण कैसे रहेगे ।
जी से प्यारा - मुदित - मुखड़ा जो न तू देख लेगी ।
तो वे होगे, सुखित न कभी स्वर्ग मे भी सिधा के ॥७॥

मर्मज्ञा का कथन सुन के कामिनी एक बोली ।
तू रोने दे अयि मम सखी खेदिता - बालिका को ।
जो बालाये विरह - दव मे दग्धिता हो रही है ।
ऑखो का ही उदक उनकी शान्ति की औषधी है ॥ ८॥
 
वाष्प - द्वारा बहु - विध - दुखो वर्द्धिता -वेदना के ।
बालाओ का हृदय - नभ जो है समाच्छन्न होता ।
तो निर्द्धता तनिक उसकी म्लानता है न होती ।
पर्जन्यो सा न यदि बरसे वारि हो, वे ढ्ढगो से ॥९॥

प्यारी बातें श्रवण जिसने की किसी काल में भी ।
न्यारा - प्यारा - वदन जिसने था कभी देख पाया ।
वे होती हैं बहु - व्यथित जो श्याम है याद आते ।
क्यो रोवेगी न वह जिसके जिवनाधार वे हैं ॥१०॥

प्यारे - भ्राता - सुत - स्वजन सा श्याम को चाहती है ।
जो बालाये व्यथित वह भी आज है उन्मना हो ।
प्यारा - न्यारा - निज- हृदय जो श्याम को दे चुकी है ।
हा! क्यो बाला न वह दुख से दग्ध हो रो मरेगी ॥११॥

ज्यो ए बाते व्यथित - चित से गोपिका ने सुनाई ।
त्यो सारी ही करुण - स्वर से रो उठी कम्पिता हो ।
ऐसा न्यारा - विरह . उनका देख उन्माद - कारी ।
धीरे ऊधो निकट उनके कुंज को त्याग आये ॥१२॥

ज्यो पाते ही सम - तल धरा वारि - उन्मुक्त -धारा ।
पा जाती है प्रमित - थिरता त्याग तेजस्विता को ।
त्योही होता प्रबल दुख का वेग विभ्रान्तकारी ।
पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व - गोपी - जनो का ॥१३॥

प्यारी - बाते स - विध कह के मान-सम्मान - सिक्ता ।
ऊधो जी को निकट सबने नम्रता से बिठाया ।
पूछा मेरे कुँवर अब भी क्यो नहीं गेह आये ।
क्या वे भूले कमल - पग की प्रेमिका गोपियो को ॥१४॥

ऊधो बोले समय - गति है गूढ़ - अज्ञात बेड़ी ।
क्या होवेगा कब यह नहीं जीव है जान पाता ।
आवेगे या न अब ब्रज मे आ सकेगे बिहारी ।
हा! मीमांसा इस दुख - पगे प्रश्न की क्यो. करूँ मै ॥१५॥

व्यारा वृन्दा - विपिन उनको आज भी पूर्व - सा है ।
वे भले है न प्रिय - जननी औ न प्यारे - पिता-को ।
वैसी ही है सुरति करते , श्याम गोपांगना की ।
वैसी ही है प्रणय - प्रतिमा- बालिका याद आती ॥१६॥

प्यारी - बाते कथन करके बालिका - बालको की ।
माता की औ प्रिय - जनक की गोप - गोपांगना की ।
मैंने देखा अधिकतर है श्याम को मुग्ध होते ।
उच्छ्वासो से व्यथित - उर के नेत्र में वारि लाते ॥१७॥

सायं - प्रातः प्रति - पल - घटी है उन्हे याद आती ।
सोते मे भी ब्रज - अवनि का स्वप्न वे देखते हैं ।
कुंजों मे ही मन मधुप सा सर्वदा घूमता है ।
देखा जाता तन भर वहाँ मोहिनी - मूर्ति का है ॥१८॥

हो के भी वे व्रज - अवनि के चित्त से यो सनेही ।
क्यो आते हैं न प्रति - जन का प्रश्न होता यही है ।
कोई यो है कथन करता तीन ही कोस आना ।
क्यो है मेरे कुँवर - वर को कोटिश कोस होता ॥१९॥

दोनो आँखे सतत जिनकी दर्शनोत्कण्ठिता हो ।
जो वारो को कुँवर - पथ को देखते हैं बिताते ।
वे हो हो के विकल यदि हैं पूछते बात ऐसी ।
तो कोई है न अतिशयता औ न आश्चर्य ही है ॥२०॥

ऐ संतप्ता - विरह - विधुरा गोपियो किन्तु कोई ।
थोड़ा सा भी कुँवर - वर के मर्म का है न ज्ञाता ।
वे जी से हैं अवनिजन के प्राणियो. के हितैषी ।
प्राणो से है अधिक उनको विश्व का प्रेम प्यारा ॥२१॥

स्वार्थों को औ विपुल - सुख को तुच्छ देते बना है ।
जो आ जाता जगते-हित है सामने लोचनो के ।
हैं योगी सा दमन करते लोक-सेवा निमित्त ।
लिप्साओ से भरित उर की सैकड़ो लालसायें ॥२२॥
१३

ऐसे - ऐसे जगत - हित के कार्य हैं चक्षु आगे ।
हैं सारे ही विषय जिनके सामने श्याम भूले ।
सच्चे जी से परम - व्रत के वे व्रती हो चुके ।
निष्कामी से अपर - कृति के कूल - वर्ती अतः हैं ॥२३॥

मीमांसा है प्रथम करते स्वीय कर्त्तव्य ही की ।
पीछे वे हैं निरत उसमे धीरता साथ होते ।
हो के वांछा - विवश अथवा लिप्त हो वासना से ।
प्यारे होते न च्युत अपने मुख्य - कर्त्तव्य से है ॥२४॥

घूमूॅ जा के कुसुम - वन मे वायु - आनन्द मैं लूँ ।
देखें प्यारी सुमन - लतिका चित्त यो चाहता है ।
रोता, कोई व्यथित उनको जो तभी दीख जावे ।
तो जावेगे न उपवन मे शान्ति देगे उसे वे ॥२५॥

जो सेवा हो कुँवर करते स्वीय - माता-पिता की ।
या वे होवे स्व - गुरुजन को बैठ सम्मान देते ।
ऐसे बेले यदि सुन.. पड़े आर्त - वाणी उन्हे तो ।
वे देवेगे शरण उसको त्याग सेवा बड़ो की ॥२६॥

जो वे बैठे सदन करते कार्य होवे अनेको ।
औ कोई आ कथन उनसे यों करे व्यग्र हो के ।
गेहो को है दहन करती वर्धिता.- ज्वाल - माला ।
तो दौड़ेगे तुरत तज वे कार्य प्यारे - सहस्रो ।।२७।।

कोई प्यारा-सुहृद उनका या स्व - जातीय - प्राणी ।
दुष्टात्मा हो, मनुज - कुल का शत्रु हो, पातकी हो ।
तो वे सारी हृदय - तल की भूल के वेदनाये ।
शास्ता हो के उचित उसको दण्ड औ शास्ति देंगे ।।२८।।

हाथों मे जो प्रिय - कुँवर के न्यस्त हो कार्य कोई ।
पीड़ाकारी सकल - कुल का जाति का बांधवों का ।
तो हो के भी दुखित उसको चे सुखी हो करेगे ।
जो देखेगे निहित उसमे लोक का लाभ' कोई ॥२९॥

अच्छे - अच्छे वहु - फलद औ सर्व - लोकोपकारी ।
कार्यों की है अवलि अधुना सामने लोचनो के ।
पूरे - पूरे निरत उनमे सर्वदा है। बिहारी ।
जी से प्यारी ब्रज - अवनि मे है इसीसे न आते ॥३०॥

हो जावेगी बहु - दुखद जो स्वल्प शैथिल्य द्वारा ।
जो देवेगी सु - फल मति के साथ सम्पन्न हो के ।
ऐसी नाना- परम-जटिला राज की नीतियाँ भी ।
वाधाकारी कुँवर चित की वृत्ति मे हो रही हैं ।।३१।।

तो भी मैं हूँ न यह कहता नन्द के प्राण - प्यारे ।
आवेगे ही न अब ब्रज मे औ उसे भूल देगे ।
जो है प्यारा परम उनका चाहते वे जिसे हैं ।
निर्मोही हो अहह उसको श्याम कैसे तजेंगे ॥३२॥

हाँ! भावी है परम - प्रवला दैव - इच्छा बली है ।
होते होते जगत कितने काम ही हैं न होते ।
जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी - मध्य आये ।
तो थोड़ा भी हृदय - वल को, गोपियो ! खो न देना ॥३३॥

जो संतप्ता - सलिल - नयना - बालिकाये कई हैं ।
ऐ प्राचीना - तरल - हृदया- गोपियो. स्नेह-द्वारा ।
शिक्षा देना समुचित इन्हे कार्य होगा तुमारा ।
होने पावे न वह जिससे मोह - माया - निमग्ना ।।३४।।

जो बूझेगा न ब्रज कहते लोक - सेवा किसे है।
जो जानेगा न वह, भव के, श्रेय का मर्म क्या है।
जो सोचेगा न गुरु - गरिमा लोक के प्रेमिको की।
कर्तव्यों मे कुँवर - वर को तो बड़ा - क्लेश होगा ॥३५।।

प्रायः होता हृदय - तल है एक ही मानवो का।
जो पाता है न सुख यक तो अन्य भी है न पाता।
जो पीड़ाये - प्रबल बन के एक को है सताती।
तो होने, से व्यथित बचता दूसरा भी नहीं है ॥३६।।

जो ऐसी ही रुदन करती बालिकाये रहेगी।
पीड़ाये भी विविध उनको जो इसी भॉति होगी।
यो ही रो - रो सकल ब्रज जो दग्ध होता रहेगा।
तो आवेगा ब्रज - अधिप के चित्त को चैन कैसे ॥३७॥

जो होवेगा न चित उनका शान्त स्वच्छन्दचारी।
तो वे कैसे जगत - हित को चारुता से करेंगे।
सत्कार्यों मे परम - प्रिय के अल्प भी विघ्न - वाधा।
कैसे होगी, उचित, चित मे गोपियो, सोच देखो ॥३८॥

धीरे - धीरे भ्रमित - मन को योग - द्वारा सम्हालो ।
स्वार्थों को भी जगत - हित के, अर्थ सानन्द त्यागो।
भलो मोहो न तुम लख के वासना मतियो को।
यो होवेगा,- दुख शमन औ, शान्ति न्यारी मिलेगी ॥३९

ऊधो बाते, हृदय,- तल..की वेधिनी गूढ प्यारी।
खिन्ना हो हो स-विनय सुना सर्व गोपी - जनो ने।
पीछे बोली अति - चकित हो म्लान हो उन्मना हो।
कैसे मूर्खा अधम हम सी आपकी बात बूझे ॥४०॥

हो जाते है भ्रमित जिसमे भूरि - ज्ञानी - मनीषी ।
कैसे होगा, सुगम - पथ सो मंद-धी नारियो को ।
छोटे - छोटे सरित - सर मे डूबती जो तरी है ।
सो भू - व्यापी सलिल - निधि के मध्य कैसे तिरेगी ॥४१॥

वे त्यागेगी सकल - सुख औ स्वार्थ - सारा तजेंगी ।
औ रक्खेगी निज- हृदय मे वासना भी न कोई ।
ज्ञानी- ऊधो जतन इतनी बात ही का बता दो ।
कैसे त्यागे हृदय - धन को प्रेमिका - गोपिकाये ॥४२॥

भोगों को औ भुवि - विभव को लोक की लालसा को ।
माता- भ्राता स्वप्रिय - जन को बन्धु को बांधवो को ।
वे भूलेंगी स्व - तन - मन को स्वर्ग की सम्पदा को ।
हा! भूलेगी जलद - तन की श्यामली मूर्ति कैसे ॥४३॥

जो प्यारा है अखिल - ब्रज के प्राणियो का बड़ा ही ।
रोमो की भी अवलि जिसके रंग ही मे रॅगी है ।
कोई देही बन अवनि मे भूल कैसे उसे दे ।
जो प्राणो मे हृदय - तल मे लोचनो मे रमा हो ॥४४॥

भूला जाता वह स्वजन है चित्त में जो बसा हो ।
देखी जा के सु - छवि जिसकी लोचनो मे रमी हो ।
कैसे भूले कुँवर जिनमे चित्त ही जा बसा है ।
प्यारी - शोभा निरख जिसकी आप ऑखें रमी है ॥४५॥

कोई ऊधो यदि यह कहे काढ़ दे गोपिकायें ।
प्यारा - न्यारा निज - हृदय तो वे उसे काढ़ देगी ।
हो पावेगा न यह उनसे देह मे प्राण होते ।
उद्योगी हो हृदय - तल से श्याम को काढ़ देवे ॥४६॥

मीठे-मीठे वचन जिसके, नित्य ही मोहते, थे ।
हा! कानो से श्रवण करती हूँ उसीकी कहानी ।
भूले से भी न छवि उसकी आज हूँ देख पाती ।
जो निर्मोही कुँवर बसते लोचनो मे सदा थे ॥४७॥

मै रोती हूँ व्यथित बन के कूटती हूँ कलेजा ।
या ऑखो से पग - युगल की माधुरी देखती थी ।
या है ऐसा कु - दिन इतना हो गया भाग्य खोटा ।
मै प्यारे के चरण - तल की धूलि भी हूँ न पाती ।।४८।।

ऐसी कुंजें ब्रज - अवनि मे है अनेको ,जहाँ जा ।
आ जाती है द्दग - युगल के सामने मूर्ति - न्यारी ।
प्यारी - लीला उमग जसुदा - लाल ने है जहाँ की ।
ऐसी ठौरो ललक दृग है आज भी लग्न होते ॥४९॥

फूली डाले सु - कुसुममयी नीप की देख आँखो ।
आ जाती है हृदय धन की मोहनी मूर्ति आगे ।
कालिन्दी के पुलिन पर आ देख नीलाम्बु न्यारा ।
हो जाती है उदय उर मे माधुरी अम्बुदो सी ॥५०॥

सूखे न्यारा सलिल सरि का दग्ध हो कुंज - पुंजे ।
फूटे ऑखे, हृदय - तल भी ध्वंस हो गोपियो का ।
सारा वृन्दा - विपिन उजड़े नीप निर्मूल होवे ।
तो भूलेगे प्रथित - गुण के पुण्य - पाथोधि माधो ॥५१॥

आसीना जो मलिन - वदना बालिकाये कई है ।
ऐसी ही है व्रज - अवनि मे बालिकाये अनेको ।
जी होता है व्यथित जिनका देख उद्विग्न हो हो ।
रोना - धोना विकल बनना दग्ध होना न सोना ॥५२॥

पूजायें त्यो विविध - व्रत औ सैकड़ो ही क्रियाये।
सालो की है परम - श्रम से भक्ति - द्वारा उन्होने ।
व्याही जाऊँ कुँवर - वर से एक वांछा यही थी।
सो वांछा है विफल बनती दग्ध वे क्यो न होगी ।।५३।।

जो वे जी से कमल - हग की प्रेमिका हो चुकी है।
भोला - भाला निज-हृदय जो श्याम को दे चुकी है।
जो आँखो मे सु-छवि बसती मोहिनी-मूर्ति की है।
प्रेमोन्मत्ता न तब फिर क्यो वे धरा - मध्य होगी ॥५४॥

नीला प्यारा- जलद जिनके लोचनो मे रमा है।
कैसे होगी अनुरत कभी धूम के पुंज मे वे ।
जो आसत्ता स्व - प्रियवर मे वस्तुतः हो चुकी है।
वे देवेगी हृदय - तल में अन्य को स्थान कैसे ।।५५।।

सोचो उधो यदि रह गई वालिकाये कुमारी।
कैसी होगी ब्रज -अवनि के प्राणियो को व्यथाये।
वे होवेगी दुखित कितनी और कैसी विपन्ना।
हो जावेगे दिवस, उनके कंटकाकीर्ण कैसे । ॥५६।।

सर्वागो मे लहर उठती यौवनाम्भोधि की है।
जो है घोरा परम-प्रबला औ महोछ्वास - शीला।
तोड़े देती प्रबल - तरि जो ज्ञान औ बुद्धि की है।
घातो से है दलित जिसके धैर्य का शैल होता ॥५७॥

ऐसे ओखे - उदक - निधि मे है पड़ी बालिकाये।
झोके से है पवन बहती काल की बामता की।
आवर्त्तों मे तरि - पतित है नौ - धनी है न कोई।
हा! कैसी है विपद कितनी संकटापन्न वे है ।।५८।।

शोभा देता सतत उनकी दृष्टि के सामने था।
वांछा पुष्पाकलित सुख का एक उद्यान फूला।
हा! सो शोभा - सदन अब है नित्य उत्सन्न होता।
सारे प्यारे कुसुम - कुल भी हैं न उत्फुल्ल होते ॥५९।।

जो मर्यादा सुमति, कुल की लाज को है जलाती।
फूँके देती परम - तप से प्राप्त सं - सिद्धि को है।
ए बालाये परम - सरला सर्वथा अप्रगल्भा ।
कैसे ऐसी मदन - दव की तीव्र - ज्वाला सहेगी ॥६०॥

चक्री होते चकित जिससे कॉपते हैं पिनाकी ।
जो वज्री के हृदय - तल को क्षुब्ध देता बना है।
जो है पूरा व्यथित करता विश्व के देहियो को।
कैसे ऐसे रति - रमण के वाण से वे बचेंगी ।।६१।।

जो हो के भी परम - मृदु है वज्र का काम देता।
जो हो के भी कुसुम, करता शेल की सी क्रिया है ।
जो हो के भी मधुर बनता है महा - दग्ध - कारी।
कसे ऐसे मदन - शर से रक्षिता वे रहेंगी ॥६२।।

प्रत्यंगो मे प्रचुर जिसकी व्याप जाती कला है।
जो हो जाता अति विषम है काल - कूटादिको सा।
मद्यो से भी अधिक जिसमे शक्ति उन्मादिनी है।
कैसे ऐसे मदन - मद से वे न उन्मत्त होगी ।।६३।।

कैसे कोई अहह उनको देख आँखो सकेगा।
वे होवेगी विकटतम औ घोर रोमांच - कारी।
पीड़ाये जो ‘मदन' हिम के प्रात के तुल्य देगा।
स्नेहोत्फुल्ला - विकच - वदना बलिकांभोजिनी को ॥६४।।

मेरी बाते श्रवण करके आप जो पूछ बैठे।
कैसे प्यारे - कुँवर अकले व्याहते सैकड़ो को।
तो है मेरी विनय इतनी आप सा उच्च - ज्ञानी ।
क्या ज्ञाता है न बुध - विदिता प्रेम की अंधता का ॥६५॥

आसक्ता हैं विमल - विधु की तारिकायें अनेकों ।
हैं लाखो ही कमल - कलियाँ भानु की प्रेमिकाये।
जो बालाये विपुल हरि मे रक्त हैं चित्र क्या है ?
प्रेमी का ही हृदय गरिमा जानता प्रेम की है ॥६६॥

जो धाता ने अवनि - तल मे रूप की सृष्टि की है।
तो क्यो ऊधो न वह नर के मोह का हेतु होगा।
माधो जैसे रुचिर जन के रूप की कान्ति देखे।
क्यों मोहेगी न बहु - सुमना - सुन्दरी - बालिकाये ॥६७।।

जो मोहेगी जतन मिलने का न कैसे करेंगी।
वे होवेगी न यदि सफला क्यो न उद्भ्रान्त होगी।
ऊधो पूरी जटिल -इनकी हो गई है समस्या ।
यो तो सारी ब्रज - अवनि ही है महा शोक - मन्ना ।।६८।।

जो वे आते न व्रज बरसो, टूट जाती न आशा।
चोटे खाता न उर उतना जी न यो ऊब जाता।
जो वे जा के न मधुपुर मे वृष्णि - वंशी कहाते ।
प्यारे बेटे न यदि बनते श्रीमती देवकी के ॥६९।।

ऊधो वे हैं परम सुकृती भाग्यवाले वड़े हैं।
ऐसा न्यारा - रतन जिनको आज यो हाथ आया।
सारे प्राणी व्रज - अवनि के हैं बड़े ही अभागे।
जो पाते ही न अब अपना चारु चिन्तामणी हैं ॥७॥

भोली-भाली ब्रज-अवनि क्या योग, की रीति जाने ।
कैसे बूझे अ- बुध अबला, ज्ञान - विज्ञान बाते ।
देते क्यो हो कथन कर के बात ऐसी व्यथाये ।
देखूॅ प्यारा वदन जिनसे यत्न ऐसे। बता दो ॥७१।।

न्यारी - क्रीड़ा ब्रज - अवनि में आ पुनः वे करेंगे ।
ऑखे होगी सुखित फिर भी गोप, गोपांगना की ।
वंशी होगी ध्वनित फिर भी कुंज मे काननों मे ।
आवेंगे वे दिवस फिर भी, जो अनूठे बड़े हैं ॥७२॥

श्रेयःकारी सकल ब्रज की है यही एक आशा ।
थोड़ा किम्वा अधिक इससे शान्ति पाता सभी है ।
ऊधो तोड़ो न तुम कृपया ईदृशी चारु आशा ।
क्या पाओगे अवनि ब्रज की जो समुत्सन्न होगी ।।७३॥

देखो सोचो दुखमय - दशा श्याम - माता - पिता की ।
प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको ।
गोपो को औ विकल लख के गोपियो को पसीजो ।
ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को जिला दो ॥७४।।

वसन्ततिलका छन्द
बोली स - शोक अपरा यक गोपिका यो ।
ऊधो अवश्य कृपया ब्रज को जिलाओ ।
जाओ तुरन्त मथुरा करुणा दिखाओ ।
लौटाल श्याम - घन को ब्रज - मध्य लाओ ।।७५।।

अत्यन्त-लोक - प्रिय विश्व-विमुग्ध-कारी ।
जैसा तुम्हे चरित मै अब हूँ, सुनाती ।
ऐसी करो ब्रज लखे फिर कृत्य वैसा ।
लावण्य - धाम फिर दिव्य - कला दिखावे ॥७६।।

भू में रमी शरद की कमनीयता थी ।
नीला अनन्त - नभ निर्मल हो गया था ।
थी छा गई ककुभ मे अमिता सिताभा ।
उत्फुल्ल सी प्रकृति, थी प्रतिभात होती ॥७७॥

होता सतोगुण प्रसार दिगन्त मे है ।
है विश्व - मध्य सितता अभिवृद्धि पाती ।
सारे स - नेत्र जन को यह थे वताते ।
कान्तार - काश, विकसे सित - पुष्प - द्वारा ॥७८॥

शोभा - निकेत अति - उज्वल कान्तिशाली ।
था वारि - विन्दु जिसका नव मौक्तिको सा ।
स्वच्छोदका विपुल ; मंजुल - वीचि,- शीला ।
थी भन्द - मन्द बहती सरितातिभव्या ।।७९।।

उच्छवास था न अब कूल विलीनकारी ।
था वेग भी न अति - उत्कट कर्ण - भेदी ।
आवत जाल अव था न धरा- विलोपी ।
धीरा, प्रशान्त, विमलाम्बुवती, नदी थी ।।८०।।

था मेघ शून्य नभ उज्वल - कान्ति वाला ।
मालिन्य - हीन मुदिता नव - दिग्वधू थी ।
थी भव्य - भूमि गत - कर्दम स्वच्छ रम्या ।
सर्वत्र धौत जल निमलता लसी थी ।।८१।‌।

शा कान्तार मे सरित - तीर सुगहरो मे ।
थे मंद - मंद बहते जल स्वच्छ - सोते ।
होती अजस्त्र उनमे ध्वनि थी अनूठी ।
वे थे कृती शरद की कल - कीत्ति गाते ।।८२‌।।

नाना नवागत - विहंग - वरूथ - द्वारा ।
वापी तड़ाग सर- शोभित हो रहे थे ।
फूले सरोज मिष हर्षित लोचनो से। ।
वे हो विमुग्ध जिनको अवलोकते थे ।।८३।।

नाना - सरोवर खिले - नव - पंकजो को ।
ले अंक मे विलसते मन - मोहते थे ।
मानों पसार अपने शतशः करो को ।
वे माँगते शरद से सु-विभतियाँ थे ॥८४॥

प्यारे सु - चित्रित सितासित रंगवाले ।
थे दीखते चपल - खंजन प्रान्तरो मे ।
बैठी मनोरम सरो पर सोहती थी ।
आई स-मोद ब्रज • मध्य मराल - माला ।।८५।।

प्रायः निरम्बु कर पावस - नीरदों को ।
पानी सुखा प्रचुर - प्रान्तर औ पथों का ।
न्यारे - असीम - नभ मे मुदिता मही में ।
व्यापी नवोदित - अगस्त नई - विभा थी ॥८६॥

था कार-मास निशि थी अति-रम्य-राका ।
पूरी कला - सहित शोभित चन्द्रमा था ।
ज्योतिमयी विमलभत दिशा बना के ।
सौदर्य साथ लसती क्षिति में सिता थी ॥८७॥

शोभा - मयी शरद की ऋतु पा दिशा मे ।
निर्मेघ - व्योम - तल मे सु - वसुंधरा मे ।
होती सु - संगति अतीव - मनोहरा थी ।
न्यारी कलाकर - कला नव स्वच्छता की ।।८८॥

प्यारी - प्रभा रजनि - रंजन की नगो को ।
जो थी असंख्य नव - हीरक से लसाती ।
तो वीचि मे तपन की प्रिय - कन्यका के ।
थी चारु - चूर्ण-मणि मौक्तिक के मिलाती ॥८९॥

थे स्नात से सकल - पादप चन्द्रिका से ।
प्रत्येक - पल्लव प्रभा - मय दीखता था ।
फैली लता विकच - वेलि प्रफुल्ल - शाखा ।
डूबी विचित्र - तर निर्मल - ज्योति मे थी ॥९०॥

जो मेदिनी रजत - पत्र - मयी, हुई थी ।
किम्बा पयोधि - पय से यदि प्लाविता थी ।
तो पत्र - पत्र पर पादप - वेलियो के ।
पूरी हुई प्रथित - पारद प्रक्रिया थी ।।९१।।

था मंद - मंद हसता विधु व्योम - शोभी ।
होती प्रवाहित धरातल मे सुधा थी ।
जो पा प्रवेश हग मे प्रिय - अंशु - द्वारा ।
थी मत्त - प्राय करती मन - मानवो का ||९२।।

अत्युज्वला पहन तारक - मुक्त - माला ।
दिव्याबरा बन अलौकिक- कौमुदी से ।
शोभा - भरी परम - मुग्धकरी हुई, थी ।
राका कलाकर - मुखी रजनी - पुरन्ध्री ।।९३।।

पूरी समुज्वल हुई सित - यामिनी थी ।
होता प्रतीत रजनी - पति भानु सा था ।
पीती कभी परम - मुग्ध बनी सुधा थी ।
होती कभी चकित थी चतुरा - चकोरी ॥९४॥

ले पुष्प - सौरभ तथा पय - सीकरो को।
थी मन्द - मन्द बहती पवनाति प्यारी।
जो थी मनोरम अतीव - प्रफुल्ल - कारी।
हो सिक्त सुन्दर सुधाकर की सुधा से ॥९५।।

चन्द्रोज्वला रजत - पत्र- वती मनोज्ञा।
शान्ता नितान्त - सरसा सु - मयूख सिक्ता ।
शुभ्रांगिनी सु - पवना सुजला सु- कूला।
सत्पुष्पसौरभवती वन मेदनी थी॥९६।।

ऐसी अलौकिक अपूर्व वसुंधरा मे।
ऐसे मनोरम - अलंकृत काल को पा।
वंशी अचानक बजी अति ही रसीली।
आनन्द - कन्द ब्रज - गोप - गणाग्रणी की ।।९७॥

भावाश्रयी मुरलिका स्वर मुग्ध - कारी।
आदौ हुआ मरुत साथ दिगन्त - व्यापी।
पीछे पड़ा श्रवण मे बहु - भावुको के।
पीयूष के प्रमुद - वर्द्धक - विन्दुओ सा ॥९८॥

पूरी विमोहित हई यदि गोपिकाये।
तो गोप - वृन्द अति - मुग्ध हुए स्वरो से।
फैली विनोद - लहरे ब्रज - मेदिनी में।
आनन्द - अंकुर उगा उर मे जनो के ॥९९।।

वंशी - निनाद सुन त्याग निकेतनो को।
दौड़ी अपार जनताति : उमंगिता हो।
गोपी समेत बहु गोप तथांगनाये।
आई विहार - रुचि से वन - मेदिनी मे ॥१००॥

उत्साहिता विलसिता बहु - मुग्ध - भूता ।
आई विलोक जनता अनुराग - मग्ना ।
की श्याम ने रुचिर - क्रीड़न की व्यवस्था ।
कान्तार मे पुलिन पै तपनांगजा के ॥१०१।।

हो हो विभक्त बहुशः दल मे सबों ने ।
प्रारंभ की विपिन मे कमनीय - क्रीड़ा ।
बाजे बजा अति - मनोहर - कण्ठ से गा ।
उन्मत्त - प्राय बन चित्त - प्रमत्तता से ॥१०२॥

मंजीर नूपुर मनोहर - किंकिणी की ।
फैली मनोज्ञ - ध्वनि मंजुल वाद्य की सी ।
छेड़ी गई फिर स-मोद गई बजाई ।
अत्यन्त कान्त कर से कमनीय - वीणा ।।१०३।।

थापे मृदंग पर जो पड़ती सधी थी ।
वे थीं स - जीव स्वर - सप्तक को बनाती ।
माधुर्य - सार बहु - कौशल से मिला के ।
थीं बाद को श्रुति मनोहरती सिखाती ॥१०४॥

मीठे - मनोरम - स्वरांकित वेणु नाना ।
हो के निनादित विनोदित थे बनाते ।
थी सर्व मे अधिक - मंजुल - मुग्धकारी ।
वंशी महा - मधुर केशव कौशली की ॥१०५॥

हो - हो सुवादित मुकुन्द सदंगुली से ।
कान्तार मे मुरलिका जब गूॅजती थी ।
तो पत्र - पत्र पर था कल - नृत्य होता ।
रागांगना - विधु - मुखी चपलांगिनी का ॥१०६॥

भू,- व्योम - व्यापित कलाधर की सुधा मे ।
न्यारी - सुधा मिलित,हो मुरली - स्वरो की ।
धारा अपूर्व.- रस की महि में वहा के ।
सर्वत्र थी अति - अलौकिकता लसाती ॥१०७।।

उत्फुल्ल थे विटप - वृन्द. विशेप होते ।
माधुर्य था विकच, पुष्प - समूह पाता ।
होती विकाश - मय मंजुल - वेलियाँ थी ।
लालित्य - धाम बनती नवला लता थी ।।१०८।।

क्रीड़ा-मयी ध्वनि-मयी कल-ज्योतिवाली ।
धारा अश्वेत सरि की अति तद्गता थी ।
थी नाचती उमगती अनुरक्त होती ।
उल्लासिता विहसिताति प्रफुल्लिता थी ।।१०९।।

पाई अपूर्व - स्थिरता मृदु - वायु ने थी ।
मानो अचंचल विमोहित हो बनी थी ।
वंशी मनोज्ञ - स्वर से बहु - मोदिता हो ।
माधुर्य - साथ हॅसती सित - चन्द्रिका थी ॥११०।।

सत्कण्ठ साथ नर - नारि - समूह - गाना ।
उत्कण्ठ था न किसको महि मे बनाता ।
ताने उमंगित - करी कल - कण्ठ जाता ।
तंत्री रही जन - उरस्थल की बजाती ।।१११।।

ले वायु कण्ठ - स्वर, वेणु - निनाद-न्यारा ।
प्यारी मृदंग - ध्वनि, मंजुल बीन - मीड़े ।
सामोद घूम बहु - पान्थ खगो मृगो को ।
थी मत्तप्राय नर - किन्नर को बनाती ।।११२।।

हीरा समान बहु - स्वर्ण - विभूषणो में ।
नाना विहंग - रव में पिक काकली सी ।
होती नही मिलित थी अति थी निराली ।
नाना - सुवाद्य - स्वन में हरि - वेणु - ताने ॥११३।।

ज्यो ज्यो हुई अधिकता कल - वादिता की ।
ज्यो ज्यो रही सरसता अभिवृद्धि पाती ।
त्यो त्यो कला विवशता सु-विमुग्धता की ।
होती गई समुदिता उर मे सबो के ॥११४॥

गोपी समेत “अतएव समस्त - ग्वाले ।
भूले स्व - गात - सुधि हो मुरली - रसाई ।
गाना रुका सकल - वाद्य रुके स-वीणा ।
वंशी - विचित्र - स्वर केवल गूंजता था ॥११५।।

होती प्रतीति उर में उस काल यो थी ।
है मंत्र साथ मुरली अभिमंत्रिता सी ।
उन्माद - मोहन - वशीकरणादिको के ।
है मंजु - धाम उसके ऋजु - रंध्र - सातो ॥११६।।

पुत्र - प्रिया - सहित मंजुल - राग गा-गा ।
ला - ला स्वरूप उनकी जन - नेत्र -आगे ।
ले-ले अनेक उर-वेधक - चारु - ताने ।
की श्याम ने परम - मुग्धकरी क्रियाये ॥११७।।

पीछे अचानक रुकी वर- वेणु ताने ।
चावी समेत सबकी सुधि लौट आई ।
आनंद - नादमय कंठ - समूह द्वारा ।
हो-हो पड़ी ध्वनित बार कई दिशाएँ ।।११८।।

१४

माधो विलोक सबको मुद - मत्त बोले ।
देखो छटा - विपिन की कल - कौमुदी मे ।
आना करो सफल कानन में गृहो से ।
शोभामयी - प्रकृति की गरिमा विलोको ॥११९॥

बीसों विचित्र - दल केवल. नारि का था ।
यो ही अनेक दल केवल थे नरो के ।
नारी तथा नर मिले दल थे सहस्रो ।
उत्कण्ठ हो सब उठे सुन श्याम - बाते ॥१२०॥

सानन्द सर्व- दल कानन - मध्य फैला ।
होने लगा सुखित दृश्य विलोक नाना ।
देने लगा उर कभी नवला - लता को ।
गाने लगा कलित - कीर्ति कभी कला की ॥१२१।।

आभा-अलौकिक दिखा निज - वल्लभाको ।
पीछे कला - कर - मुखी कहता उसे था ।
तोभी तिरस्कृत हुए छवि- गर्विता से ।
होता प्रफुल्ल तम था दल - भावुको का ॥१२२॥

जा कूल स्वच्छ - सर के नलिनी दलो मे ।
आबद्ध देख हग से अलि - दारु - वेधी ।
उत्फुल्ल हो समझता अवधारता था ।
उद्दाम - प्रेम - महिमा दल - प्रेमिको का ॥१२३॥

विच्छिन्न हो स्व - दल से बहु - गोपिकाये ।
स्वच्छन्द थी विचरती रुचिर - स्थलो मे ।
या बैठ चन्द्र - कर-धौत - धरातलो मे ।
वे थी स-मोद करती मधु - सिक्त बाते ॥१२४।।

कोई प्रफुल्ल - लतिका कर से हिला के ।
वो- प्रसून चय की कर मुग्ध होता ।
कोई स-पल्लव स - पुष्प मनोज्ञ - शाखा ।
था प्रेम साथ रखता कर मे प्रिया के ॥१२५॥

आ मंद-मंद मन-मोहन मण्डली मे ।
वाते बड़ी-सरस थे सबको सुनाते ।
हो भाव - मत्त - स्वर मे मृदुता मिला के ।
या थे महा - मधु - मयी - मुरली बजाते ॥१२६॥

आलोक - उज्वल दिखा गिरि - शृंग - माला ।
थे यो मुकुन्द कहते छवि- दर्शको से ।
देखो गिरीन्द्र - शिर पै महती - प्रभा का ।
है चन्द्र-कान्त-मणि-मण्डित - क्रीट कैसा ॥१२७॥

धारा - मयी अमल श्यामल - अर्कजा मे ।
प्रायः स - तारक विलोक मयंक - छाया ।
थे सोचते खचित - रत्न असेत शादी ।
है पैन्ह ली प्रमुदिता वन - भू-वधू ने ॥१२८।।

ज्योतिर्मयी - विकसिता - हसिता लता को ।
लालित्य साथ लपटी तरु से दिखा के ।
थे भाखते पति - रता - अवलम्बिता का ।
कैसा प्रमोदमय जीवन - है दिखाता ॥१२९।।

आलोक से लसित पादप - वृन्द नीचे ।
छाये हुए तिमिर को कर से दिखा के ।
थे यो मुकुन्द कहते मलिनान्तरो का ।
है वाह्य रूप बहु - उज्वल दृष्टि आता ॥१३०॥

ऐसे मनोरम - प्रभामय - काल मे भी ।
म्लाना नितान्त अवलोक सरोजिनी को ।
थे यो ब्रजेन्दु कहते कुल - कामिनी को ।
स्वामी बिना सब तमोमय है दिखाता ।।१३१।।

फूले हुए कुमुद देख सरोवरो मे ।
माधो सु - उक्ति यह थे सबको सुनाते ।
उत्कर्ष देख निज अंकपले.- शशी का ।
है वारि - राशि कुमुदो मिष हृष्ट होता ॥१३२।।

फैली विलोक सब ओर मयंक - आभा ।
आनन्द साथ कहते यह थे बिहारी ।
है कीर्ति, भू ककुभ मे अति - कान्त छाई ।
प्रत्येक धूलि - कणरंजन - कारिणी की ॥१३३।।

फूलो दलो पर विराजित ओस - बूंदे ।
जो श्याम को दमकती द्युति से दिखाती ।
तो वे समोद कहते वन - देवियो ने ।
की है कला पर निछावर मंजु - मुक्ता ॥१३४।।

आपाद - मस्तक खिले कमनीय पौधे ।
जो देखते मुदित होकर तो बताते ।
होके सु-रंजित सुधा-निधि की कला से ।
फूले नही नवल - पादप है समाते ॥१३५।।

यो थे कलाकर दिखा कहते बिहारी ।
है स्वर्ण - मेरु यह मंजुलता-धरा का ।
है कल्प - पादप मनोहरताटवी का ।
आनन्द - अंबुधि महामणि है मृगांक ॥१३६।।

है ज्योति - आकर पयोनिधि है सुधा का ।
शोभा-निकेत प्रिय वल्लभ है निशा का ।
है भाल का प्रकृति के अभिराम भूषा ।
सर्वस्व है परम - रूपवती कला का ॥१३७॥

जैसी मनोहर हुई यह यामिनी थी ।
वैसी कभी न जन-लोचन ने विलोकी ।
जैसी बही रससरी इस शर्वरी मे ।
वैसी कभी न ब्रज - भूतल मे बही थी ॥१३८।।

जैसी बजी मधुर - बीन मृदंग - वंशी ।
जैसा हुआ रुचिर नृत्य विचित्र गाना ।
जैसा बॅधा इस महा-निशि मे समाँ था ।
होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा ॥१३९।।

न्यारी छटा वदन की जिसने विलोकी ।
वंशी - निनाद मन दे जिसने सुना है ।
देखा विहार जिसने इस यामिनी मे ।
कैसे मुकुन्द उसके उर से कढ़ेगे ॥१४०।।

हो के विभिन्न, रवि का कर, ताप त्यागे ।
देवे मयंक - कर को तज माधुरी भी ।
तो भी नहीं ब्रज - धरा-जन के उरो से ।
उत्फुल्ल - मूर्ति मनमोहन की कढ़ेगी ॥१४१।।

धारा वही जल वही यमुना वही है ।
है कुंज - वैभव वही वन - भू वही है ।
है पुष्प - पल्लव वही व्रज भी वही है ।
ए है वही न घनश्याम चिना जनाते ॥१४२॥

कोई दुखी - जन विलोक पसीजता है ।
कोई विषाद - वश रो पड़ता दिखाया ।
कोई प्रबोध कर, ‘है, परितोष देता ।
है किन्तु सत्य हित - कारक व्यक्ति कोई ॥१४३।।

सच्चे हितू तुम बनो ब्रज की धरा के ।
ऊधो यही विनय है मुझ सेविका की ।
कोई दुखी न व्रज के जन- तुल्य होगा ।
ए है अनाथ - सम भूरि - कृपाधिकारी ।।१४४।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
बातो ही मे दिन गत हुआ किन्तु गोपी न ऊवी ।
वैसे ही थी कंथन करती वे व्यथाये स्वकीया ।
पीछे आई पुलिन पर जो सैकड़ो गोपिकाये ।
वे कष्टो को अधिकतर हो उत्सुका थी सुनाती ॥१४५।।

वंशस्थ छन्द
परन्तु संध्या अवलोक आगता ।
मुकुन्द के बुद्धि - निधान बंधु ने ।
समस्त गोपी-जन को प्रबोध दे ।
समाप्त आलोचित - वृत्त को किया ॥१४६॥

द्रुतविलम्बित छन्द
तदुपरान्त अतीव सराहना ।
कर अलौकिक - पावन प्रेम की ।
व्रज - वधू - जन की कर सान्त्वना ।
ब्रज - विभूषण - बंधु बिदा हुए ॥१४७॥