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प्रियप्रवास/त्रयोदश सर्ग

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ २४३ से – २६० तक

 

वंशस्थ छन्द
विशाल - वृन्दावन भव्य - अंक मे ।
रही धरा एक अतीव - उर्वरा ।
नितान्त - रम्या तृण- राजि - संकुला ।
प्रसादिनी प्राणि - समूह दृष्टि की ।।१।।

कहीं कही थे विकसे प्रसून भी ।
उसे बनाते रमणीय जो रहे ।
हरीतिमा मे तृण - राजि - मंजु की ।
बड़ी छटा थी सित - रक्त - पुष्प की ॥२॥

विलोक शोभा उसकी समुत्तमा ।
समोद होती यह कान्त - कल्पना ।
सजा - विछौना हरिताभ है विछा ।
वनस्थली बीच विचित्र - वस्त्र का ॥३॥

स - चारुता हो कर भरि - रंजिता ।
सु - श्वेतता रक्तिमता - विभूति से ।
विराजती है. अथवा हरीतिमा ।
स्वकीय - वैचित्र्य विकाश के लिये ॥४॥

विलोकनीया इस मंजु - भूमि मे ।
जहॉ तहाँ पादप थे हरे-भरे ।
अपूर्व-छाया जिनके सु - पत्र की ।
हरीतिमा को करती प्रगाढ़ थी ॥५॥

कही कही था विमलाम्बु भी भरा ।
सुधा समासादित संत चित्त सा ।
विचित्र - क्रीड़ा जिसके सु-अंक मे ।
अनेक - पक्षी करते स - मत्स्य थे ॥६॥

इसी धरा मे बहु - वत्स वृन्द ले ।
अनेक - गाये चरती समोद थी ।
अनेक बैठी । वट - वृक्ष के तले ।
शनैः शनै. थी करती जुगालियाँ ॥७॥

स - गर्व गंभीर - निनाद को सुना ।
जहाँ तहाँ थे वृष मत्त घूमते ।
विमोहिता धेनु - समूह को बना ।
स्व-गात की पीवरता- प्रभाव से ॥८॥

बड़े सधे - गोप - कुमार सैकड़ो ।
गवादि के रक्षण मे प्रवृत्त थे ।
बजा रहे थे कितने विषाण को ।
अनेक गाते गुण थे मुकुन्द का ॥९॥

कई अनूठे - फल तोड़ तोड़ खा ।
विनोदिता थे रसना बना रहे ।
कई किसी सुन्दर - वृक्ष के तले ।
स - बन्धु बैठे करते प्रमोद थे ॥१०॥

इसी घड़ी कानन - कुंज देखते ।
वहाँ पधारे बलवीर - बन्धु भी ।
विलोक आता उनको सुखी बनी ।
प्रफुल्लिता गोपकुमार - मण्डली ॥११॥

बिठा बड़े-आदर - भाव से उन्हे ।
सभी लगे माधव - वृत्त पूछने ।
बड़े - सुधी ऊधव भी प्रसन्न हो ।
लगे सुनाने ब्रज - देव की कथा ॥१२॥

मुकुन्द की लोक-ललाम - कीर्ति को ।
सुना सबो ने पहले विमुग्ध हो ।
पुनः बड़े व्याकुल एक ग्वाल ने ।
व्यथा बढ़े यों हरि - बंधु से कहा ॥१३॥

मुकुन्द चाहे वसुदेव - पुत्र हो ।
कुमार होवे अथवा ब्रजेश के ।
बिके उन्हीके कर सर्व - गोप है ।
वसे हुए है मन प्राण में वही ॥१४॥

अहो यही है व्रज - भूमि जानती ।
ब्रजेश्वरी है जननी मुकुन्द की ।
परन्तु तो भी ब्रज - प्राण है वही ।
यथार्थ माँ है यदि देवकांगजा ॥१५॥

मुकुन्द चाहे यदु - वंश के बने ।
सदा रहे या वह गोप - वंश के ।
न तो सकेगे ब्रज - भूमि भूल वे ।
न भूल देगी ब्रज - मेदिनी उन्हे ॥१६॥

वरंच न्यारी उनकी गुणावली ।
बता रही है यह, तत्त्व तुल्य ही ।
न एक का किन्तु मनुष्य - मात्र का ।
समान है स्वत्व मुकुन्द - देव मे ॥१७॥



अपूर्व - आदर्श दिखा नरत्त्व का ।
प्रदान की है पशु को मनुष्यता ।
सिखा उन्होने चित की समुच्चता ।
बना दिया मानव गोप - वृन्द को ॥२४॥

मुकुन्द थे पुत्र ब्रजेश - नन्द के ।
गऊ चराना उनका न कार्य था ।
रहे जहाँ सेवक सैकड़ो वहाँ ।
उन्हे भला कानन कौन भेजता ।।२५।।

परन्तु आते वन मे स - मोद वे ।
अनन्त - ज्ञानार्जन के लिये स्वयं ।
तथा उन्हें वांछित थी नितान्त ही ।
वनान्त मे हिस्रक - जन्तु - हीनता ।।२६।‌।

मुकुन्द आते जब थे अरण्य मे ।
प्रफुल्ल हो तो करते विहार थे ।
विलोकते थे सु - विलास वारि का ।
कलिन्दजा के कल कूल पै खड़े ॥२७॥

स - मोद बैठे गिरि - सानु पै कभी ।
अनेक थे सुन्दर - दृश्य देखते ।
बने महा - उत्सुक वे कभी छटा ।
विलोकते निर्भर - नीर की रहे ।।२८।।

सु - वीथिका मे कल - कुंज - पुंज में ।
शनैः शनैः वे स-विनोद घूमते ।
विमुग्ध हो हो कर थे विलोकते ।
लता - सपुष्पा मृदु - मन्द - दलिता ॥२९॥

पतंगजा - सुन्दर स्वच्छ - वारि मे ।
स - बन्धु थे मोहन तैरते कभी ।
कदम्ब - शाखा पर बैठ मत्त हो ।
कभी बजाते निज - मंजु - वेणु वे ॥३०॥

चनस्थली उर्वर - अंक उद्भवा ।
अनेक बूटी उपयोगिनी - जड़ी ।
रही परिज्ञात मुकुन्द देव को ।
स्वकीय - संधान-करी सु-बुद्धि से ॥३१॥

वनस्थली मे यदि थे विलोकते ।
किसी परीक्षा - रत-धीर- व्यक्ति को ।
सु - बूटियो का उससे मुकुंद तो ।
स - मर्म थे सर्व - रहस्य जानते ॥३२॥

नवीन - दूर्वा फल - फूल - मूल क्या ।
वरंच वे लौकिक तुच्छ - वस्तु को ।
विलोकते थे खर - दृष्टि से सदा ।
स्व-ज्ञान-मात्रा अभिवृद्धि के लिये ।।३३।।

तृणाति साधारण को उन्हें कभी ।
विलोकते देख निविष्ट चित्त से ।
विरक्त होती यदि ग्वाल - मण्डली ।
उसे बताते यह तो मुकुन्द थे ॥३४।।

रहस्य से शून्य न एक पत्र है ।
न विश्व में व्यर्थ बना तृणेक है ।
करो न संकीर्ण विचार - दृष्टि को ।
न धूलि की भी कणिका निरर्थ है ॥३५।।

वनस्थली मे यदि थे विलोकते ।
कहीं बड़ा भीषण - दुष्ट - जन्तु तो ।
उसे मिले घात मुकुन्द मारते ।
स्व-वीर्य से साहस से सु-युक्ति से ॥३६॥

यही बड़ा - भीषण एक व्याल था ।
स्वरूप जो था विकराल - काल का ।
विशाल काले उसके शरीर की ।
करालता थी मति - लोप - कारिणी ॥३७॥

कभी फणी जो पथ - मध्य वक्र हो ।
कॅपा स्व-काया चलता स - वेग तो ।
वनस्थली में उस काल त्रास का ।
प्रकाश पाता अति - उग्र - रूप था ॥३८॥

समेट के स्वीय विशालकाय' को ।
फणा उठा, था जब व्याल बैठता ।
विलोचनो को उस काल दूर से ।
प्रतीत होता वह स्तूप · तुल्य था ॥३९॥

विलोल जिह्वा मुख से मुहुर्मुहुः ।
निकालता था जब सपे क्रुद्ध हो ।
निपात होता तब भूत - प्राण था ।
विभीषिका - गर्त नितान्त गूढ़ मे ॥४०॥

प्रलम्ब आतंक - प्रसू, उपद्रवी ।
अतीव मोटा यम - दीर्घ - दण्ड सा ।
कराल ' आरक्तिम - नेत्रवान औ ।
विषाक्त - फूत्कार निकेत सर्प था ।।४१॥

विलोकते ही उसको वराह की ।
विलोप होती वर - वीरता रही ।
अधीर हो के बनता अ - शक्त था ।
वड़ा - बली वज्र - शरीर केशरी ॥४२॥

असह्य होती तरु - वृन्द को सदा ।
विपाक्त - सॉसे दल दग्ध - कारिणी ।
विचूर्ण होती बहुशः शिला रही ।
कठोर - उद्वन्धन - सर्प - गात्र से ॥४३।।

अनेक कीड़े खग औ मृगादि भी ।
विदग्ध होते नित थे पतंग से ।
भयंकरी प्राणि - समूह - ध्वसिनी ।
महादुरात्मा अहि - कोप - वह्नि थी ।।४४।।

अगम्य कान्तार गिरीन्द्र खोह मे ।
निवास प्राय. करता भुजंग था ।
परन्तु आता वह था कभी कभी ।
यहाँ बुभुक्षा - वश उग्र - वेग से ॥४५।।

विराजता सम्मुख जो सु - वृक्ष है ।
बड़े - अनूठे जिसके प्रसून है ।
प्रफुल्ल बैठे दिवसेक श्याम थे ।
तले इसी पादप के स - मण्डली ॥४६॥

दिनेश ऊँचा वर - व्योम मध्य हो ।
वनस्थली को करता प्रदीप्त था ।
इतस्ततः थे बहु गोप घूमते ।
असंख्य - गाये चरती समोद थी ॥४७।।
१२

विनष्ट होते शतशः शशादि थे।
सु - पुष्ट मोटे सुम के प्रहार से।
हुए पदाघात बलिष्ट - अश्व का।
विदीर्ण होता वपु वारणादि का ॥६०॥

बड़ा - बली उन्नत - काय - बैल भी।
विलोक होता उसका विपन्न सा।
नितान्त - उत्पीड़न - दंशनादि से।
न त्राण पाता सुरभी - समूह था ।।६१।।

पराक्रमी वीर बलिष्ठ - गोप भी।
न सामना थे करते तुरंग का।
वरंच वे थे बनते विमूढ़ से।
उसे कहीं देख भयाभिभूत हो ॥६२॥

समुच्च - शाखा पर वृक्ष की किसी।
तुरन्त जाते चढ़ थे स - व्यग्रता।
सुन कठोरा - ध्वनि अश्व - टाप की।
समस्त - आभीर अतीव - भीत हो ॥६३।।

मनुष्य आ सम्मुख स्वीय - प्राण को।
बचा नहीं था सकता प्रयत्न से।
दुरन्तता थी उसकी भयावनी ।
विमूढ़कारी रव था तुरंग का ॥६४॥

मुकुन्द ने एक विशाल - दण्ड ले।
स - दर्भ घेरा यक बार वाजि को ।
अनन्तराघांत अजस्र से उसे।
प्रदान की वांछित प्राण - हीनता ॥६५।।

विलोक ऐसी बलवीर - वीरता ।
अशंकता साहस कार्य - दक्षता ।
समस्त - आभीर विमुग्ध हो गये ।
चमत्कृता हो जन - मण्डली उठी ।।६६।।

वनस्थली कण्टक रूप अन्य भी ।
कई बड़े - क्रूर बलिष्ठ - जन्तु थे ।
हटा उन्हे भी निज कौशलादि से ।
किया उन्होने उसको अकण्टका ॥६७॥

बड़ा- वली - वालिश व्योम नाम का ।
वनस्थली मे पशु - पाल एक था ।
अपार होता उसको विनोद था ।
बना महा - पीड़ित प्राणि - पुंज को ।।६८।।

प्रवंचना से उसकी प्रवंचिता ।
विशेष होती ब्रज की वसुंधरा ।
अनेक - उत्पात पवित्र - भूमि मे ।
सदा मचाता यह दुष्ट - व्यक्ति था ॥६९।।

कभी चुराता वृष - वत्स - धेनु था ।
कभी उन्हें था जल - बीच बोरता ।
प्रहार - द्वारा गुरु - यष्टि के कभी ।
उन्हे बनाता वह अंग - हीन था ॥७०।।

दुरात्मता थी उसकी भयंकरी ।
न खेद होता उसको कदापि था ।
निरीह गो - वत्स - समूह को जला ।
वृथा लगा पावक कुंज - पुंज में ।।७१।।

अवोध - सीधे बहु - गोप - वाल को ।
अनेक देता वन - मध्य कष्ट था ।
कभी कभी था वह डालता उन्हें™।
डरावनी मेरु - गुहा समूह मे ॥७२॥

विदार देता शिर था प्रहार से ।
कॅपा कलेजा हग फोड़ डालता ।
कभी दिखा दानव सी दुरन्तता ।
निकाल लेता बहु - मूल्य - प्राण था ।।७३।।

प्रयत्न नाना ब्रज - दव ने किये ।
सुधार चेष्टा हित - दृष्टि साथ की ।
परन्तु छूटी उसकी न दुष्टता ।
न दूर कोई कु - प्रवृत्ति हो सकी ।।७४॥

विशुद्ध होती, सु - प्रयत्न से नहीं ।
प्रभूत - शिक्षा उपदेश आदि से ।
प्रभाव - द्वारा बहु - पूर्व पाप के ।
मनुष्य - आत्मा स - विशेप दूपिता ।।७५।।

निपीड़िता देख स्व - जन्मभूमि को ।
अतीव उत्पीड़न से खलेन्द्र के ।
समीप आता लख एकदा उसे ।
स - क्रोध बोले बलभद्र - बंधु यो ॥७६॥

सुधार - चेष्टा बहु - व्यर्थ हो गई ।
न त्याग तू ने कु - प्रवृत्ति को किया ।
अतः यही है अब युक्ति उत्तमा ।
तुझे वधु मैं भव - श्रेय - दृष्टि से ॥७७॥

अवश्य हिसा अति - निद्य - कर्म है ।
तथापि कर्तव्य - प्रधान है यही ।
न सद्म हो पूरित सर्प आदि से ।
वसुंधरा में पनपे न पातकी ।।७८।।

मनुष्य क्या एक पिपीलिका कभी ।
न वध्य है जो न अश्रेय हेतु हो ।
न पाप है किच पुनीत - कार्य है ।
पिशाच - कर्मी-नर की वध-क्रिया ।।७९।।

समाज - उत्पीड़क धर्म - विप्लवी ।
स्व - जाति का शत्रु दुरन्त - पातको ।
मनुष्य - द्रोही भव - प्राणि - पुंज का ।
न है क्षमा - योग्य वरंच वध्य है ।।८०॥

क्षमा नहीं है खल के लिये भली ।
समाज - उत्सादक दण्ड योग्य है ।
कु - कर्म - कारी नर का उबारना ।
सु - कर्मियो को करता विपन्न है ।।८१।।

अतः अरे पामर सावधान हो ।
समीप तेरे अब काल आ गया ।
न पा सकेगा खल आज त्राण तू ।
सम्हाल तेरा वध वांछनीय है ।।८२॥

स - दर्प बातें सुन श्याम - मृत्ति की ।
हुआ महा क्रोधित व्योम विक्रमी ।
उठा स्वकीया - गुरु - दीर्घ यष्टि को ।
तुरन्त मारा उसने ब्रजेन्द्र को ।।८३।।

अपूर्व - आस्फालन साथ श्याम ने।
अतीव - लांबी वह यष्टि छीन ली।
पुनः उसीके प्रवल - प्रहार से।
निपात उत्पात - निकेत का किया ।।८४।।

गुणावली है गरिमा विभूपिता।
गरीयसी गौरव - मूर्ति - कीर्ति है।
उसे सदा संयत · भाव साथ गा।
अतीव होती चित - बीच शान्ति है ।।८५।।

वनस्थली मे पुर मध्य ग्राम मे।
अनेक ऐसे थल है सुहावने ।
अपूर्व - लीला व्रज - देव ने जहाँ।
स - मोद की है मन मुग्धकारिणी ।।८६।।

उन्हीं थलो को जनता शनैः शनैः ।
वना रही है ब्रज - सिद्ध पीठ सा।
उन्ही थलो की रज श्याम - मूर्ति के।
वियोग मे है बहु - बोध - दायिनी ।।८७||

अपार होगा उपकार लाडिले ।
यहाँ पधारे यक बार और जो।
प्रफुल्ल होगी व्रज - गोप - मण्डली ।
विलोक आँखो वदनारविन्द को ।।८८।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
श्रीदामा जो अति - प्रिय सखा श्यामली मूर्ति का था।
मेधावी जो सकल - ब्रज के बालको मे बड़ा था।
पूरा ज्योही कथन उसका हो गया मुग्ध सा हो।
बोला त्योही मधुर - स्वर से दूसरा एक ग्वाला ।।८९।।

मालिनी छन्द
विपुल - ललित लीला - धाम आमोद - प्याले ।
सकल - कलित - क्रीड़ा कौशलो मे निराले ।
अनुपम - वनमाला को गले बीच डाले ।
कब उमग मिलेंगे लोक - लावण्य - वाले ॥९०।।

कव कुसुमित - कुंजो मे बजेगी बता दो ।
वह मधु - मय - प्यारी - बॉसुरी लाडिले की ।
कब कल - यमुना के कूल वृन्दाटवी मे ।
चित - पुलकितकारी चार आलाप होगा ।।९१।।

कब प्रिय विहरेगे आ पुनः काननो मे ।
कव वह फिर खेलेग चुने - खेल - नाना ।
विविध - रस-निमग्ना भाव सौदर्य - सित्ता ।
कब वर - मुख - मुद्रा लोचनो मे लसेगी ।।९२।‌।

यदि ब्रज - धन छोटा खेल भी खेलते थे ।
क्षण भर न गॅवात चित्त - एकाग्रता थे ।
बहु चकित सदा थी वालको को बनाती ।
अनुपम - मृदुता में छिपता की कलाये ।।९३।।

चकितकर अनूठी-शक्तियाँ श्याम में हैं ।
वर सब - विपयों मे जो उन्हें है बनाती ।
अति - कटिन - कला मे कलि - क्रीड़ादि मे भी ।
वह मुकुट सवा के थे मनोनीत होते ।।९४।।

सवल कुशल क्रीड़ावान भी लाडिल को ।
निज छल बल - द्वारा था नहीं जीत पाता ।
बहु अवसर ऐन अॉख से है विलोके ।
जब कुंवर अकले जीतते थे शतो को ।।९५।।



तदपि चित बना है श्याम का चारु ऐसा ।
वह निज - सुहृदो से थे स्वयं हार खाते ।
वह कतिपय जीते - खेल को थे जिताते ।
सफलित करने को बालको की उमंगें ।।९६॥

वह अतिशय - भूखा देख के बालकों को ।
तरु पर चढ़ जाते थे बड़ी- शीघ्रता से ।
निज - कमल - करो से तोड़ मीठे - फलो को ।
वह स-मुद खिलाते थे उन्हे यत्न - द्वारा ॥९७॥

सरस - फल अनूठे - व्यंजनो को यशोदा ।
प्रति - दिन वन मे थी भेजती सेवको से ।
कह कह मृदु - बाते प्यार से पास बैठे ।
ब्रज - रमण खिलाते थे उन्हें गोपजो को ।।९८॥

नव किशलय किम्वा पीन - प्यारे - दलो से ।
वह ललित - खिलौने थे अनेको बनाते ।
वितरण कर पीछे भूरि - सम्मान द्वारा ।
वह मुदित बनाते ग्वाल की मंडली को ॥९९।।

अभिनव - कलिका से पुष्प से पंकजो से ।
रच अनुपम - माला भव्य - आभूषणो को ।
वह निज - कर से थे बालको को पिन्हाते ।
बहु - सुखित बनाते यो सखा - वृन्द को थे ॥१००॥

वह विविध - कथाये देवता - दानवो की ।
अनु दिन कहते थे मिष्टता मंजुता से ।
वह हंस - हॅस बाते थे अनूठी सुनाते ।
सुखकर - तरु - छाया में समासीन हो के ॥१०१।।

व्रज - धन जव क्रीड़ा - काल में मत्त होते ।
तव अभि मुख होती मूर्ति - तल्लीनता की ।
बहु थल लगती थी बोलने कोकिलाये ।
यदि वह पिक का सा कुंज मे कूकते थे ॥१०२॥

यदि वह पपिहा की शारिका या शुकी की ।
श्रुति - सुखकर - बोली प्यार से बोलते थे ।
कलरव करते तो भूरि - जातीय - पक्षी ।
ढिग - तरु पर आ के हो बैठते थे ॥१०३।।

यदि वह चलते थे हंस की चाल प्यारी ।
लख अनुपमता तो चित्त था मुग्ध होता ।
यदि कलित कलापी - तुल्य वे नाचते थे ।
निरुपम पटुता तो मोहती थी मनो को ।।१०४।।

यदि वह भरते थे चौकड़ी एण की सी ।
मृग - गण समता की तो न थे ताव लाते ।
यदि वह वन मे थे गर्जते केशरी सा ।
थर - थर कॅपता तो मत्त - मातढ्ग भी था ।।१०५।।

नवल - फल - दलो औ पुष्प - संभार - द्वारा ।
विरचित कर के वे राजसी - वस्नुयो को ।
यदि बन कर राजा बैठ जाते कहीं तो ।
वह छवि बन आती थी विलोके द्दिगो से ॥१०६॥

यह अवगत होता है वहाँ वधु मेरे ।
कल कनक बनाये दिव्य - आभूषणों को ।
स - मुकुट मन - हारी सर्वदा पैन्हते हैं ।
सु - जटित जिनमे है रल पालोकशाली ॥१०७॥

शिर पर उनके है राजता छत्र - न्यारा ।
सु - चमर दुलते है, पाट है रत्न शोभी ।
परिकर - शतशः है वस्त्र औ वेशवाले ।
विरचित नभ - चुम्बी सद्म है स्वर्ण - द्वारा ॥१०८॥

इन सब विभवो की न्यूनता थी न यॉ भी ।
पर वह अनुरागी पुष्प ही के बड़े थे। ।
यह हरित - तृणो से शोभिता भूमि रम्या ।
प्रिय - तर उनको थी स्वर्ण - पर्यक से भी ॥१०९।।

यह अनुपम - नीला - व्योम प्यारा उन्हे था ।
अतुलित छविवाले चारु - चन्द्रातपो से ।
यह कलित निकुंजे थी उन्हे भरि - प्यारी ।
मयहृदय - विमोही - दिव्य - प्रासाद से भी ॥११०।।

समधिक मणि - मोती आदि से चाहते थे ।
विकसित - कुसुमो को मोहिनी मूर्ति मेरे ।
सुखकर गिनते थे स्वर्ण आभूषणो से ।
वह सुललित पुष्पो के अलंकार ही को ॥१११॥

अब हृदय हुआ है और मेरे सखा का ।
अहह वह नही तो क्यो सभी भूल जाते ।
यह नित नव - कुंजे भमि शोभा-निधाना ।
प्रति - दिवस उन्हे तो क्यो नही याद आती ॥११२॥

सुन कर वह प्राय. गोप के बालको से ।
दुखमय कितने ही गेह की कष्ट - गाथा ।
वन तज उन गेहो मध्य थे शीघ्र जाते ।
नियमन करने को सर्ग - संभूत वाधा ॥११३॥

यदि अनशन होता अन्न औ द्रव्य देते ।
रुज - ग्रसित दिखाता औषधी तो खिलाते ।
यदि कलह वितण्डावाद की वृद्धि होती ।
वह मृदु - वचनो से तो उसे भी भगाते ॥११४॥

‘बहु नयन, दुखी हो वारि - धारा बहा के ।
पथ प्रियवर' का ही आज भी देखते है ।
पर सुधि उनकी भी हा! उन्होने नही ली ।
वह प्रथित दया का धाम भूला उन्हे क्यो ।।११५।।

पद - रज ब्रज - भू है चाहती उत्सुका हो ।
कर परस प्रलोभी वृन्द है पादपो का ।
अधिक बढ़ गई है लोक के लोचनो की ।
सरसिज मुख - शोभा देखने की पिपासा ॥११६॥

प्रतपित - रवि तीखी - रश्मियो से शिखी हो ।
प्रतिपल चित से ज्यो मेघ को चाहता है ।
ब्रज - जन बहु तापों से महा तप्त हो के ।
बन घन- तन-स्नेही है समुत्कण्ठ त्योही ॥११७।।

नव - जल - धर - धारा ज्यो समुत्सन्न होते ।
कतिपय तरु का है जीवनाधार होती ।
हितकर दुख - दग्धो का उसी भॉति होगा ।
नव - जलद शरीरी श्याम का सद्म आना ।।११८॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कथन यो करते ब्रज की व्यथा ।
गगन - मण्डल लोहित हो गया ।
इस लिये वुध - ऊधव को लिये ।
सकल ग्वाल गये निज - गेह को ॥११९॥