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प्रियप्रवास/द्वितीय सर्ग

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ७९ से – ८९ तक

 

द्रुतविलम्बित छन्द

गत हुई अव थी द्वि - घटी निशा।
तिमिर - पूरित थी सब मेदिनी ।
बहु विमुग्ध करी वन थी लसी ।
गगन मण्डल तारक - मालिका ।।१।।

तम ढके तरु थे दिखला रहे ।
तमस - पादप से जन - बुन्द को ।
सकल गोकुल गेह - समूह भी ।
तिमिर-निर्मित सा इस काल था ॥२॥

इस तमो - मय गेह - समूह का ।
अति - प्रकाशित सर्व - सुकक्ष था ।
विविध ज्योति-निधान-प्रदीप थे ।
तिमिर - व्यापकता हरते जहाँ ॥३॥

इस प्रभा - मय- मजुल- कक्ष मे ।
सदन की करके सकला क्रिया ।
कथन थी करती कुल - कामिनी ।
कलित कीर्ति ब्रजाधिप-तात की ॥४॥

सदन-सम्मुख के कल ज्योति से ।
ज्वलित थे जितने वर-बैठके ।
पुरुष-जाति वहाँ समवेत हो ।
सुगुण-वर्णन में अनुरक्त थी ॥५॥

रमणियाँ सब ले गृह–बालिका ।
पुरुष लेकर बालक – मंडली ।
कथन थे करते कल – कंठ से ।
ब्रज – विभूषण की विरदावली ॥६॥

सब पड़ोस कहीं समवेत था ।
सदन के सब थे इकठे कहीं ।
मिलित थे नरनारि ़ हुए ।
चयन को कुसुमावलि कीर्ति की॥७॥

रसवती रसना बल से कहीं ।
कथित थी कथनीय गुणावली ।
मधुर राग सधे स्वर ताल में ।
कलित कीर्ति अलापित थी कहीं ॥८॥

बज रहे मृदु मंद मृदंग थे ।
ध्वनित हो उठता करताल था ।
सरस वादन से वर बीन के ।
विपुल था मधु-वर्षण हो रहा ॥९॥

प्रति निकेतन से कल - नाद की ।
निकलती लहरी इस काल थी ।
मधुमयी गलियाँ सब थीं बनी ।
ध्वनित सा कुल गोकुल-ग्राम था ।१०॥

सुन पड़ी ध्वनि एक इसी घडी ।
अति - अनर्थकरी इस ग्राम मे ।
विपुल वादित वाद्य - विशेष से ।
निकलती अव जो अविराम थी ॥११॥

मनुज एक विघोषक वाद्य की ।
प्रथम था करता वहु ताडना ।
फिर मुकुन्द - प्रवास - प्रसग यो ।
कथन था करता स्वर - तार से ।।१२।।

अमित - विक्रम कस नरेश ने ।
धनुष - यज्ञ विलोकन के लिये ।
कल समादर से ब्रज - भूप को ।
कुँवर संग निमंत्रित है किया ॥१३॥

यह निमंत्रण लेकर आज ही ।
सुत - स्वफल्क समागत है हुए ।
कल प्रभात हुए मथुरापुरी ।
गमन भी अवधारित हो चुका ॥१४॥

इस सुविस्तृत - गोकुल ग्राम मे ।
निवसते जितने वर - गोप है ।
सकल को उपढौकन आदि ले ।
उचित है चलना मथुरापुरी ॥१५।।

इसलिये यह भूपनिदेश है ।
सकल - गोप समाहित हो सुना ।
सव प्रबन्ध हुआ निशि मे रहे ।
कल प्रभात हुए न विलम्ब हो ॥१६॥

निमिप मे यह भीपण घोपणा ।
रजनि - अक-कलंकित - कारिणी ।
मृदु - समीरण के सहकार से ।
अखिल गोकुल - ग्राममयी हुई ।।१७।।

कमल - लोचन कृष्ण-वियोग की ।
अशनि - पात - समा यह सूचना ।
परम - आकुल - गोकुल के लिये ।
अति - अनिष्टकरी - घटना हुई ॥१८॥

चकित भीत अचेतन सी बनी ।
कॅप उठी कुलमानव - मण्डली ।
कुटिलता कर याद नृशस की ।
प्रवल और हुई उर वेदना ।।१९।।

कुछ घड़ी पहले जिस भूमि मे ।
प्रवहमान प्रमोद - प्रवाह था ।
अब उसी रस - प्लावित भूमि मे ।
बह चला खर स्रोत विषाद का ॥२०॥

कर रहे जितने कल गान थे ।
तुरत वे प्रति - कुण्ठित हो उठे ।
अब अलाम अलौकिक कठ के ।
ध्वनित थे करते न दिगन्त को ‌‌।।२१।।

उतर तार गये बहु वीन के ।
मधुरता न रही मुरजादि मे ।
विवशता - वश वादक - बुन्द के ।
गिर गये कर के करताल भी ।।२२।।

सकल - ग्रामवधू कल कठता ।
परम - दारुण - कातरता वनी ।
हृदय की उनकी प्रिय - लालसा ।
विविध - तर्क वितर्क - मयी हुई ।।२३।।

दुख भरी उर - कुत्सित - भावना ।
मथन मानस को करने लगी ।
करुण - प्लावित लोचन कोण मे ।
झलकने जल के कण भी लगे ॥२४॥

नव - उमंग - मयी पुर - बालिका ।
मलिन और सशकित हो गई ।
अति- प्रफुल्लित वालक - वृन्द का ।
वदन - मण्डल भी कुम्हला गया ।।२५।।

ब्रज - धराधिप तात प्रभात ही ।
कल हमे तज के मथुरा चले ।
असहनीय जहाँ सुनिये वही ।
बस यही चरचा इस काल थी ।।२६।।

सब परस्पर थे कहते यही ।
कसल - नेत्र निमंत्रित क्यो हुए ।
कुछ स्ववन्धु समेत ब्रजेश का ।
गमन ही, सव भॉति यथेष्ट था ।।२७॥

पर निमंत्रित जो प्रिय है हुए ।
कपट भी इसमे कुछ है सही ।
दुरभिसंधि नृशंस - नृपाल कीक्ष।
अव न है व्रज - मण्डल मे छिपी ॥२८॥

विवश है करती विधि वामता ।
कुछ बुरे दिन हैं मज - भूमि के ।
हम सभी श्रनिहीं - हतभाग्य हैं ।
उपजती नित जो नव - व्याधि है ।।२९।।

किन परिश्रम और प्रयन्न से ।
कर सुरोत्तम की परिमेवना ।
इस जराजित - जीवन - काल मे ।
महर को सुत का मुख्य है दिन्या ॥३०॥

सुअन भी सुर विप्र प्रसाद से ।
प्रति अपूर्व अलौकिक है मिला ।
निज गुणाबलि ने इम काल जो ।
ब्रज - धरा - जन जीवन-प्राण है ॥३१॥

पर बड़े दुख की यह बात है ।
विपद जो अब भी टलती नहीं ।
अग्रह है कहते बनती नहीं ।
परम - दग्धकरी उर की व्यथा ॥३२॥

जनम की तिथि में बलवीर की ।
बहु - उपद्रय है प्रज में ।
विकटना जिन की अब भी नहीं ।
हदय में अपसारित हो सकी ॥३३॥

पग्म - पातक की प्रतिमृति सी ।
पति पावनतामय - पृतना ।
पग - अपेय पिला कर श्याम को।
कर चुकी ब्रज भूमि विनाश थी ।।३४।।

पर किसो चिर-संचित-पुण्य से ।
गरल अमृत अर्भक को हुआ ।
विष-मयी वह हो कर आप ही ।
कवल काल - भुजंगम का हुई ॥३५॥

फिर अचानक धूलिमयी महा ।
दिवस एक प्रचंड हवा चली ।
श्रवण से जिस की गुरु - गर्जना ।
कॅप उठा सहसा उर दिग्वधू ॥३६॥

उपल वृष्टि हुई तम छा गया ।
पट गई महि कंकर - पात से ।
गड़गड़ाहट वारिद - व्यूह की।
ककुभ से परिपूरित हो गई ॥३७।।

उखड़ पेड़ गये जड़ से कई ।
गिर पड़ी अवनी पर डालियाँ ।
शिखर भग्न हुए उजड़ी छते ।
हिल गये सब पुष्ट निकेत भी ॥३८।।

बहु रजोमय आनन हो गया ।
भर गये युग - लोचन धूलि से ।
पवन - वाहित - पांशु - प्रहार से ।
गत बुरी ब्रज - मानव की हुई ॥३९॥

घिर गया इतना तम - तोम था ।
दिवस था जिससे निशि हो गया ।
पवन - गजेन औ धन-नाद से ।
कप उठी व्रज - सर्व वसुन्धरा ॥४०॥

प्रकृति थी जब यो कुपिता महा ।
हरि अदृश्य अचानक हो गये ।
सदन में जिन से ब्रज- भूप के ।
अनि - भवानककन्दन हो उठा ॥४१॥

सकल - गोकुल था या ना दुखी ।
प्रयल - वेग प्रभंजन आदि में ।
अब दशा सुन नन्द - निकेत की ।
परि - समारत सा वह हो गया ॥४२॥

पर व्यतीत हुए द्विवटी टली ।
यह उणावरतीय विटन्चना ।
पवन - वंग रुका नम भी हटा ।
जलय - जाल तिराहिन हा गया ।।४३॥

प्रकृति शान्त हुई पर व्योम में ।
चमकने रवि की फिरण लगी ।
निफट ही नित सुन्दर सत्य के ।
बिलख हसी हरि भी मिले ॥४४॥

प्रति पुगतन - गुण्य ब्रजेश का।
उदय या हम काल स्वयं हुआ ।
पतिन हो खर वायु - प्रकोप में ।
कुसुम कोमल बालक जो बचा ।‌।४२।।

संकरट - पान प्रजाधिप पास ही ।
पनन अर्जून में नरः गज का ।
पकाना मनापम सच से ।
सब बकासूर एवं बलवीर को ।।४३॥

वधन - उद्यम दुर्जय - वत्स का ।
कुटिलता अघ - संज्ञक - सर्प की ।
विकट घोटक की अपकारिता ।
हरि निपातन यत्न ‘अरिष्ट' का ॥४७॥

कपट - रूप - प्रलम्ब प्रवचना ।
खलपना - पशुपालक - व्योम का ।
अहह ए सब घोर अनर्थ थे। ।
व्रज - विभूषण है जिनसे बचे ॥४८॥

पर दुरन्त - नराधिप कंस ने ।
अब कुचक्र भयंकर है रचा ।
युगल - बालक सग ब्रजेश जो ।
कल निमंत्रित है मुख मे हुए ॥४९।।

गमन जो न करे बनती नहीं ।
गमन से सब भॉति विपत्ति है ।
जटिलता इस कौशल जाल की ।
अहह है अति कष्ट-प्रदायिनी ॥५०॥

प्रणतपाल कृपानिधि श्रीपते ।
फलद है प्रभु का पद - पद्म ही ।
दुख-पयोनिधि का वही ।
जगत मे परमोत्तम पोत है ।।५१।।

विषम संकट में व्रज है पड़ा ।
पर हमे अवलम्बन है वही ।
निबिड़ पामरता, तम हो चला ।
पर प्रभो वल है नख - ज्योति का ॥५२॥

विपद ज्यो बहुधा कितनी टली।
प्रभु कृपावल त्यो यह भी टले।
दुखित मानस का करुणानिधे।
अति विनीत निवेदन है यही॥५३॥

ब्रज-विभाकर ही अवलम्ब है।
हम सशंकित प्राणि-समूह के।
यदि हुआ कुछ भी प्रतिकूल तो।
ब्रज-धरा तमसावृत हो चुकी॥५४॥

पुरुष यो करते अनुताप थे।
अधिक थी व्यथिता ब्रज-नारियाँ।
वन अपार-विषाद-उपेत वे।
विलख थीं दृग-वारि विमोचती॥५५॥

दुख प्रकाशन का क्रम नारि का।
अधिक था नर के अनुसार ही।
पर विलाप कलाप विसूरना।
विलखना उन मे अतिरिक्त था॥५६॥

ब्रज-धरा-जन की निशि साथ ही।
विकलता परिवर्ध्दित हो चली।
तिमिर साथ विमोहक-शोक भी।
प्रबल था पलही पल हो रहा ॥५७॥

विशद-गोकुल बीच विपाद की।
अति-असयत जो लहरे उठी।
बहु विवर्ध्दित हो निशि-मध्य ही।
ब्रज-धरातलव्यापित वे हुई॥५८॥

विलसती अब थी न प्रफुल्लता ।
न वह हास विलास विनोद था ।
हृदय कम्पित थी करती महा ।
दुखमयी ब्रज-भूमि - विभीपिका ।।५९।।

तिमिर था घिरता बहु नित्य ही ।
पर घिरा तम जो निशि आज की ।
उस विषाद - महातम से कभी ।
रहित हो न सकी ब्रज की धरा ॥६०॥

बहु - भयंकर थी यह यामिनी ।
बिलपते ब्रज भूतल के लिये ।
तिमिर मे जिसके उसका शशी ।
बहु - कला युत होकर खो चला ॥६१।।

घहरती घिरती दुख की घटा ।
यह अचानक जो निशि मे उठी ।
वह ब्रजांगण मे चिरकाल ही ।
बरसती बन लोचनवारि थी ॥६२।।

ब्रज-धरा-जन के उर मध्य जो ।
विरह - जात लगी यह कालिमा ।
तनिक धो न सका उस को कभी ।
नयन का वहु - वारि - प्रवाह भी ।।६।।

सुखद थे बहु जो जन के लिये ।
फिर नही ब्रज के दिन वे फिरे ।
मलिनता न समुज्वलता हुई ।
दुख-निशा न हुई सुख की निशा ॥६४॥
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