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प्रियप्रवास/प्रथम सर्ग

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प्रियप्रवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ ७० से – ७८ तक

 
प्रथम सर्ग

द्रुतविलम्बित छन्द
दिवस का अवसान समीप था ।
गगन था कुछ लोहित हो चला ।
तरु-शिखा पर थी अब राजती ।
कमलिनी-कुल-बल्लभ की प्रभा ।।१।।

विपिन धीर विहंगम - पृन्न का ।
पनिनाद विवर्तित था हुया ।
ध्वनिमयी - विविधा विदगावली ।
राही नभ - गण्टल मध्य धी ॥२॥

अधिक और ई नभ - लालिमा ।
दसों दिशा पनुर्गजन हो गई ।
सफल - पादप - पुष्प हरीतिगा ।
चरगिमा विनिमरिजन मी हुई ॥३॥

झलकने पुलिनों पर भी लगी ।
गगन के तल की यह लालिमा ।
मरि सरोवर के जल मे पडी ।
अरुणता अतिही रमणीय थी ॥४॥

अचल के शिखरो पर जा चढ़ी ।
किरण पादप-शीश-विहारिणी ।
तरणि - विम्ब तिरोहित हो चला ।
गगन - मण्डल मध्य शनै: शनै: ॥५॥

ध्वनि-मयी कर के गिरि - कन्दरा ।
कलित-कानन केलि निकुञ्ज को ।
बज उठी मुरली इस काल ही ।
तरणिजा-तट-राजित-कुञ्ज मे ॥६॥

क्वणित मंजु विषाण हुए कई ।
रणित श्रृंग हुए बहु साथ ही ।
फिर समाहित -प्रान्तर - भाग मे ।
सुन पडा स्वर धावित - धेनु का ॥७॥

निमिष मे वन-व्यापित-वीथिका ।
विविध - धेनु - विभूषित हो गई ।
धवल-धूसर-वत्स-समूह भी ।
विलसता जिनके दल साथ था ।।८॥

जब हुए समवेत शनैः शनैः ।
सकल गोप सधेनु समण्डली ।
तब चले ब्रज - भूषण को लिये ।
अति अलकृत-गोकुल-ग्राम को ॥९॥

गगन मंडल में रज छा गई ।
दश - दिशा बहु - शब्दामय हुई ।
विशुद-गोकुल के प्रति - गेह में ।
वह चला बर-स्त्रोत विनोद का ।।१०।।

सकल बाहर घाकृत से रहे ।
सर्दियों - मानव गोकुल - ग्राम के ।
प्रिय दिनान्न विन्नोकन ही पड़ी ।
व्रत-विशपण - दर्शन - लालसा ॥११॥

सुन पड़ा स्वर दरों वन वेग्गु का ।
सकत - ग्राम समुत्सुक हो उठा ।
हृदय - पत्र निनादित हो गया ।
तुरंत ही विनयचित भाव से ‌।।१२।।

बहु युवा युवती गृह - बालिका ।
विपुल -बाला वृद्ध वयस्क भी ।
विवश से निकले नित गेहूं से ।
साहस का दृघ- गोचन के लिए ।।१३।।

इधर गोकुल से जानना पड़ी ।
उमगती पड़ती अति मोद में ।
उधर या पहुँची बलवीर की ।
विपुल - धेनु -विमांहित म्मपति ।।१४।‌

अतसि - पुष्प अलंकृतकारिणी ।
शरद नील - सरोरुह रजिनी ।
नवल-सुन्दर-श्यास-शरीर की ।
सजल-नीरद सी कल-कान्ति थी ॥१६॥

अति - समुत्तम अग समूह था ।
मुकुर - मंजुल औ मनभावना ।
सतत थी जिसमे सुकुमारता ।
सरसता प्रतिविम्बित हो रही ॥१७॥

बिलसता कटि मे पट पीत था ।
रुचिर - वस्त्र - विभूषित गात था ।
लस रही उर मे बनमाल थी ।
कल - दुकूल - अलंकृत स्कध था ।।१८।।

मकर-केतन के कल - केतु से ।
लसित थे वर - कुण्डल कान मे ।
घिर रही जिनकी सब ओर थी ।
विविध - भावमयी अलकावली ।।१९।।

मुकुट मस्तक का शिखि - पक्ष का ।
मधुरिमामय था वहु मञ्जु था ।
असित रन । समान सुरजिता ।
सतत थी जिसकी वर - चन्द्रिका ॥२०॥
 
विशद उज्ज्वल-उन्नत भाल मे ।
विलसती कल केसर - खौर थी ।
असित - पंकज के दल में यथा ।
रज - सुरंजित पीत - सरोज की ॥२१॥

मधुरता -सब था मृदु - घोलना ।
अमृत - सिंचित सी मुस्कान थी ।
समझ थी जन - मानस मोहिनी ।
कमल - लोचन की कमनीवना ।

सबल-जानु विलम्विन वायु थी ।
पति-सुपुष्ट-समुन्नत व्यर्थ था ।
का किशोर-कला लालिमा था ।
मुख प्रकृतिक पुष्प-समान था ।।२३।।

सरस - जन समूह सहेलियां ।
सहचरी मन मोहन मुंह की ।
रविकांत - जननी कल-नादिनी ।
मुर्तियां थी पर में मधुवर्षिणी ।।२४।।

विलायती मुख की छवि पुंजता ।
छिटकनी विति के वन की छटा ।
बगरती घर दीप्ती दिसन्न में ।
विनित में कर कान्वि सी ।।२५।।

मुदित बेचक की एक मन्हली ।
जब प्रजाधिस सम्मुख जा पड़ी ।
विलखते सुख कि कवि रो लगी ‌।।२६।।

उछलते शिशु थे अति हर्ष से ।
युवक थे रस की निधि लूटते ।
जरठ को फल लोचन का मिला ।
निरख के सुपमा सुखमूल की ॥२८॥

बहु-विनोदित थी व्रज - वालिका ।
तरुणियाँ सव थी तृण तोड़ती।
बलि गई बहु बार वयोवती।
छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की ।।२९।।

मुरलिका कर - पंकज मे लसी ।
जब अचानक थी वजती कभी ।
तव सुधारस मंजु - प्रवाह मे ।
जन - समागम था अवगाहता ॥३०॥

ढिग सुशोभित श्रीवलराम थे ।
निकट गोप - कुमार - समूह था ।
विविध गातवती गरिमामयी ।
सुरभि थी सव ओर विराजती ।।३१।‌।

बज रहे बहु - श्रृंग विपाण थे
करिणत. हो उठता वर-वेणु था ।
सरस - राग - समूह अलाप से ।
रसवती - वन थी मुदिता- दिशा ॥३२॥

विविध - भाव - विमुग्ध बनी हुई।
मुदित थी बहु दर्शक - मण्डली ।
अति मनोहर थी वनती कभी ।
बज किसी कटि की कलकिकिणी ॥३३॥

इधर था इस भांति समा बंधा ।
उधर व्योम हुआ कुछ और ही ।
अब न था उसमें रवि रजता ।
किरण भी न सुशोभित थी कहीं ।।३४।।

अरुणिमा-जगती- ब्रज-रंजिनी ।
बहन थी करती अब लालिमा ।
मलिन थी नव-राय मयी-दिशा ।
अबनि थी तमसाकृत हो रही ।।३५।।

तिमिर की वह भृतन - व्यापिनी ।
तरुण-धार विकास - विरोधिनी ।
जन-समूह-विलोचन के लिए ।
बन गई प्रति-मुर्ति विगम की ।।३६।।

वृतिमती उतनी अब थी नहीं ।
नयन की अति द्विव्य वनीनिका ।
अब नहीं वह भी विलोकती ।
मधुमयी कवि श्रीधरश्याम की ।।३७।।

वह आभापुर्ण नभ की ‌।
सह खुशी न नभसन्न तारिका ।
वह विलाश विवद्धन के लिए ।
निखरते नभ नत्यन में सभी ।।३८।।



खग - समूह न था अब बोलता ।
विटप थे बहु नीरव हो गये ।
मधुर मंजुल मत्त अलाप के ।
अव न यत्र बने तरु - वृन्द थे ॥४०॥

विहग औ विटपी - कुल मौनता ।
प्रकट थी करती इस म्मर्म को ।
श्रवण को वह नीरव थे बने ।
करुण अंतिम - वादन वेणु का ॥४१॥

विहग - नीरवता - उपरांत ही ।
रुक गया स्वर श्रृंग विषाण का ।
कल-अलाप समापित हो गया ।
पर रही बजती वर-वंशिका ॥४२॥

विविध - म्मर्मभरी करुणामयी ।
ध्वनि वियोग-विराग-विवोधिनी ।
कुछ घड़ी रह व्याप्त दिगन्त मे ।
फिर समीरण मे वह भी मिली ॥४३।।

ब्रज-धरा - जन जीवन - यंत्रिका ।
विटप - वेलि-विनोदित-कारिणी ।
मुरलिका जन - मानस - मोहिनी ।
अहह नीरवता निहिता हुई ॥४४॥

प्रथम ही तम की करतूत से ।
छवि न लोचन थे अवलोकते ।
अव निनाद रुके कल - वेणु का ।
श्रवण पान न था करता सुधा ।।४५।।

इस लिए रखना - जन - वृन्थ की ।
सरस - भाव समुत्सुकना पड़ी ।
प्रथम गौरव से करने लगी ।
ब्रज - बिनृषण की गुण मागिता ‌।‌।४६।‌।

जब दशा वह थी जन - वृन्द की ।
जलज लोचन थे तब के ।
सहित गोपन गोप समुह के ।
अवनि - योग्य गोकुल ग्राम में ।।४७।।

कुछ घड़ी वह शान्त करता हुई ।
फिर हुआ उसका अवलान भी ।
प्रथम थी वह दुम मची जान ।
जब वहां घटना सुनसान था ।।४८।।

कर विदुग्नि लोचन लालसा ।
स्वर प्रसिद्ध सुवा सूचि को मिला ।
गुण -गयी रसनेन्द्रय को बना ।
गृह गये अब दर्शक वृन्द भी ।।४९।।

प्रथम थी स्वर की लहरी जहाँ ‌।
पवन में अधिकाधिक गुंजती ।
अब वहाँ पर नीग्यता गई ।।५०।।

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