प्रियप्रवास/व्रजभाषा-शब्द-प्रयोग
ब्रजभाषा-शब्द-प्रयोग
आज कल के कतिपय साहित्य-सेवियो का विचार है कि खड़ीबोली की कविता इतनी उन्नत हो गई है और इस पद पर पहॅच गई है कि उसमे ब्रज भाषा के किसी शब्द का प्रयोग करना उसे अप्रतिष्ठित बनाना है। परन्तु मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। ब्रज भाषा कोई पृथक् भाषा नहीं है, इसके अतिरिक्त उर्दू-शब्दो से उसके शब्दो का हिन्दी भाषा पर विशेष स्वत्व है। अतएव कोई कारण नहीं है कि उर्दू के शब्द तो निस्संकोच हिन्दी में गृहीत होते रहे और ब्रज भाषा के उपयुक्त और मनोहर शब्दो के लिये भी उसका द्वार बन्द कर दिया जावे । मेरा विचार है कि खडी बोलचाल का रग रखते हुए जहाँ तक उपयुक्त एव मनोहर शब्द ब्रजभापा के मिले, उनके लेने में संकोच न करना चाहिये। जब उर्दू भाषा सर्वथा ब्रज भाषा के शब्दो से अव तक रहित नहीं हुई तो हिन्दी भाषा उससे अपना सम्बन्ध कैसे विच्छिन्न कर सकती है। इसके व्यतीत मैं यह भी कहूँगा कि उपयुक्त और आवश्यक शब्द किसी भाषा का ग्रहण करने के लिए सदा हिन्दी भाषा का द्वार उन्मुक्त रहना चाहिये, अन्यथा वह परिपुष्ट और विस्तृत होने के स्थान पर निर्वल और संकुचित हो जावेगी। सहृदय कवि भिखारीदास कहते है——
तुलसी गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार।
इनके काव्यन मे मिली भाषा विविध प्रकार॥
इस सिद्धान्त द्वारा परिचालित हो कर मैंने ब्रज भाषा के विलग, बगर इत्यादि शब्दो का प्रयोग भी कही कही किया है, आशा है मेरा यह अनुचित साहस न समझा जायगा।
ह्रस्व वर्णों का दीर्घ बनाना
संस्कृत का यह नियम है कि उसके पद्य मेन कही-कही ह्रस्व
वर्ण का प्रयोग दीर्घ की भॉति किया जाता है । सहृदयवर बाबू मैथिलीशरण गुप्त के निम्नलिखित पद्य के उन शब्दो को देखिये जिनके नीचें लकीर खिची हुई है। प्रथम चरण के घ, द्वितीय चरण के श, तृतीय चरण के त्र और चतुर्थ चरण के व तथा ति ह्रस्व वर्गों का उच्चारण इन पद्यो के पढ़ने मे दीर्घ की भॉति होगा।
निदाघ ज्वाला से विचलित हुआ चातक अभी ।
भुलाने जाता था निज विमल वश-व्रत सभी ।।
दिया पत्र द्वारा नव बल मुझे आज तुमने ।
सुसाक्षी है मेरे विदित कुल-देव ग्रह पति ।।
इस प्रकार के प्रयोगो का व्यवहार यद्यपि हिन्दी भाषा में आज कल सफलता से हो रहा है, और लोगो का विचार है कि यदि संस्कृत के वृत्तो की खडी बोली के पद्य के लिये आवश्यकता है, तो इस प्रणाली के ग्रहण की भी आवश्यकता है, अन्यथा बडी कठिनता का सामना करना पडेगा और एक सुविधा हाथ से जाती रहेगी। मै इस विचार से सहमत हूँ, परन्तु इतना निवेदन करना चाहता हूँ कि जहाँ तक संभव हो, ऐसा प्रयोग कम किया जावे, क्योकि इस प्रकार का प्रयोग हिन्दी-पद्य से एक प्रकार की जटिलता ला देता है। आप लोग देखेगे कि ऐसे प्रयोगो से बचने की इस ग्रन्थ मे मैने कितनी चेष्टा की है।
इस ग्रन्थ के लिखने में शब्दों के व्यवहार का जो पथ ग्रहण किया गया है, मैने यहॉ पर थोड़े मे उसका दिग्दर्शन मात्र किया है। इस ग्रन्थ के गुण दोष के विषय मे न तो मुझको कुछ कहने का अधिकार है और न मै इतनी क्षमता ही रखता हूँ कि इस
जटिल मार्ग मे दो-चार डग भी उचित रीत्या चल सकें। शब्ददोष, वाक्य-दोष, अर्थ-दोष और रस-दोप इतने गहन हैं और इतने सूक्ष्म इसके विचार एवं विभेद हैं कि प्रथम तो उनमे यथार्थ गति होना असम्भव है, और यदि गति हो जावे, तो उस पर दृष्टि रख कर काव्य करना नितान्त दुस्तर है। यह धुरन्धर और प्रगल्म विद्वानो की बात है, मुझ-से अवोधोकी तो इस पथ मे कोई गणना ही नही "जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाही। कहहु तूल केहि लेखे माही"। श्रद्धेय स्वर्गीय पण्डित सुधाकर द्विवेदी, प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्य विवरण के पृष्ठ ३७ मे लिखते है——
“हिन्दी और सस्कृत काव्यो मे जितने भेद हैं, उन सव पर ध्यान देकर जो काव्य बनाया जावे तो शायद एकाध दोहा या श्लोक काव्य लक्षण से निर्दोष ठहरे।"
जव यह अवस्था है, तो मुझसे अल्पज्ञ का अपनी साधारण कविता को निर्दोप सिद्ध करने की चेष्टा करना मूर्खता छोड़ और कुछ नहीं हो सकता। अतएव मेरी इन कतिपय पंक्तियो को पढ़ कर यह न समझना चाहिये कि मैने इनको लिख कर अपने ग्रन्थ को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा की है। प्रथम तो अपना दोष अपने को सूझता नहीं, दूसरे कवि-कर्म महा कठिन, ऐसीअवस्था मे यदि कोई अलौकिक प्रतिभाशाली विद्वान भी ऐसी चेष्टा करे तो उसे उपहासास्पद होना पड़ेगा। मुझ-से जानलव - दुर्विदग्ध की तो कुछ वात ही नहीं।
——विनीत
‘हरिऔध'
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