प्रियप्रवास/षष्ठ सर्ग

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[ १२८ ]

मन्दाक्रान्ता छन्द

धीरे धीरे दिन गत हुआ पद्मिनीनाथ डूबे।
दोपा आई फिर गत हुई दूसरा वार आया।
यो ही बीती विपुल घडियाँ औ कई वार बीते।
कोई आया न मधुपुर से औ न गोपाल आये॥१॥

ज्यो ज्यो जाते दिवस चित का क्लेश था वृद्धि पाता।
उत्कण्ठा थी अधिक बढती व्यग्रता थी सताती।
होती आके उदय उर मे घोर उद्विग्नताये।
देखे जाते सकल ब्रज के लोग उद्भ्रान्त से थे॥२॥

खाते पीते गमन करते बैठते और सोते।
आते जाते वन अवनि मे गोधनो को चराते।
देते लेते सकल ब्रज की गोपिका गोपजो के।
जी मे होता उदय यह था क्यो नही श्याम आये॥३॥

दो प्राणी भी ब्रज-अवनि के साथ जो बैठते थे।
तो आने की न मधुवन से बात ही थे चलाते।
पूछा जाता प्रतिथल मिथ व्यग्रता से यही था।
दोनो प्यारे कुँवर अब भी लौट के क्यो न आये॥४॥

आवासो मे सुपरिसर मे द्वार मे बैठको मे।
बाजारो मे विपणि सब मे मंदिरो मे मठो मे।
आने ही की न ब्रजधन के बात फैली हुई थी।
कुजो मे औ पथ अ-पथ मे बाग मे औ वनो मे॥५॥

[ १२९ ]

आना प्यारे माग्मुन का देखने के लिये ही ।
कोसो जाती-प्रतिदिन चली गली उन्मुकों की।
ऊँचे ऊचँ तरू पर चढ़े गोप डोटे अनको ।
घंटों बैठे तृषित हग में पंथ को देखने थे।॥६॥

आके बैठी निज सदन की मुक्त ऊँची छतो में।
शखो में औ पथ पर बने दिव्य वातायनो में।
चिन्ता मग्ना विवश विकला उन्मना नारियों को।
की आँखें सहन बन के देखती पथ की थी ॥७॥

आके कागा यदि सदन में बैठना था कही भी।
तो तन्यगी उस सदन की यो उसे थी सुनाती।
जो पाते हो धुवर कारु ता बैठ जात ।
में खाने को प्रतिदिन तुझ दुध और भात दुंगी ॥८॥

आता कोई मनुज मथुरा और मे जो दिखाता ।
नाना वाते सदुम्ब उससे पूछते तो सभी थे।
यो ही जाता पथिक मथुरा पोर भी जो जनाता।
तो लाग्यो ही नकल उससे भेजते थे सेंदेसे ॥९॥

फुलों पत्ती सकल तरुयों औ लता बेलियो से।
आवासो से ब्रज प्रवनि से पंथ की रेणुओ से।
होती सी थी यह ध्वनि सदा कुज से काननो से।
मेरे प्यारे कुंवर अव भी क्यों नहीं गेह आये ॥१०॥

मालिनी छन्द
यदि दिन कट जाता बीतती थी न दोपा।
यदि निशि टलती थी वार था कल्प होता।
पल पल अकुलाती ऊवती थी यशोदा ।
रट यह रहती थी क्यो नही श्याम आये ॥११॥

[ १३० ]

प्रति दिन कितनो को पथ मे भेजती थीं ।
निज प्रिय सुत आना देखने के लिये ही ।
नियत यह जताने के लिये थे अनेको ।
सकुशल गृह दोनो लाडिले आ रहे है ॥१२॥

दिन दिन भर वे आ द्वार पै बैठती थी ।
प्रिय पथ लखते ही वार को थी बिताती ।
यदि पथिक दिखाता तो यही पूछती थी ।
मम सुत गृह आता क्या कही था दिखाया ।।१३।।

अति अनुपम मेवे औ रसीले फलो को ।
बहु मधुर मिठाई दुग्ध को व्यञ्जनो का ।
पथश्रम निज प्यारे पुत्र का मोचने को ।
प्रतिदिन रखती थीं भाजनो मे सजा के ।।१४‌।।

जब कुँवर न आते वार भी वीत जाता ।
तब बहु दुख पा के बॉट देती उन्हें थी ।
दिनदिन उर मे थी वृद्धि पाती निराशा ।
तम निविड़ हगो के सामने हो रहा था ॥१५॥

जब पुरबनिता आ पूछती थी सँदेसा ।
तब मुख उनका थी देखती उन्मना हो ।
यदि कुछ कहना भी वे कभी चाहती थी ।
न कथन कर पाती कंठ था रुद्ध होता ।।१६।।

यदि कुछ समझाती गेह की सेविकाये ।
वन विकल उसे थी ध्यान मे भी न लाती ।
तन सुधि तक खोती जा रही थी यशोदा ।
अतिशय विमना औ चिन्तिता हो रही थी ॥१७॥

[ १३१ ]

यदि कवि करने को बैठती दासियाॅ थी ।
गयन स्व उन्हें था चैन लेने न देता।
यह कह कह के ही रोक देतीं उन्हें वे ।
तुम सब मिल के क्या कान को फोन दोगी ।।१८।।

दुख - वश सब धंधे बन्द ने हो गये थे ।
गृह जन मन मारे काल को ये बिताते ।
हरि-जननि-व्यथा से मौन थी शारिकायें ।
सकल सदन में ही छा गई थी उदासी ।।१९।।

प्रति दिन कितने ही देवता थी मनाती ।
बहु बजन कराती विप्र के वन्द में थी ।
निज घर पर कोई ज्योतिषी थी बुलाती ।
निज प्रिय सुत प्राना पुछने को यशोदा ॥२०॥

सदन टिग कहीं जो डोलता पत्र भी था ।
निज श्रवण उठानी भी नमुत्कण्ठिता हो ।
कुछ रज उठती जो पथ के मध्य योही ।
बन अयुन दृगी तो व उसे देखनी थी ॥२१॥

गृह दिशि यदि कोई शीघ्रता साथ आता ।
तब उभय करो से थामतीं वे कलेजा ।
जब यह दिखलाता दुसरी ओर जाता ।
तब उदय करो से ढॉपती थी दृगो को ।।२२।।

मधुवन पथ से वे तीव्रता साथ आता ।
यदि नभ तल मे थी देख पाती पखेरू ।
उस पर कुछ ऐसी दृष्टि तो डालती थी ।
लख कर जिसको था भग्न होता कलेजा ॥२३॥

[ १३२ ]

पथ पर न लगी थी दृष्टि ही उत्सुका हो ।
न हृदय तल ही की लालसा वर्द्धिता थी ।
प्रतिपल करता था लाडिलों की प्रतीक्षा ।
यक यक तन रोआॅ नॅद की कामिनी का ।।२४।।

प्रतिपल दृग देखा चाहते श्याम को थे ।
छनछन सुधि प्राती श्यामली मूर्ति की थी ।
प्रति निमिप यही थी चाहती नन्दरानी ।
निज वदन दिखावे मेघ ली कान्तिवाला ॥२५॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
रो रो चिन्ता-सहित दिन को राधिका थी बिताती ।
अॉखो को थी मजल रसती उन्मना थी दिखाती ।
शोभा वाले जलद - वपु की हो रहो चातकी थी ।
उत्कण्ठा थी परम प्रबला वेदना वर्द्धिता थी ।।२६ ।।

बैठी खिन्ना यक दिवस व गेह मे थीं अकेली ।
आके ऑसू दृग-युगल मे थे वरा को भिगोते ।
आई धीरे इस सदन मे पुष्प-सद्गध को ले ।
प्रात वाली सुपवन इसी काल वातायनो से ॥२७॥

आके पूरा सदन उसने सौरभीला बनाया ।
चाहा सारा - कलुप तन का राधिका के मिटाना ।
जो बूँदे थी सजल दृग के पक्ष्म में विद्यमाना ।
धीरे धीरे तिति पर उन्हें सौम्यता से गिराया ॥२८॥

श्री राधा को यह पवन की प्यार वाली क्रियाये ।
थोडी सी भी न सुखद हुई हो गई वैरिणी सी ।
भीनी भीनी महँक मन की शान्ति को सो रही थी ।
पीडा देती व्यथित चित को वायु की स्निग्धताथी ।।२९।।

[ १३३ ]

संतापो को बिपुल बढ़ता देख के दु:खिता हो ।
धिरे बोली सदुख उससे श्रीमती राधिका यो ।
प्यारी प्रान पवन इतना क्यो मुझे है, से सताती ।
क्या तू भी है कन्टुपिन हुई काल की क्रूरता से ॥३०।।

कालिन्दी के कल पुलिन पै घुमती रिक्त होती ।
प्यारे प्यारे कुसुम-मय को चूमती गंध लेती ।
तू आती है बहन करती वारि के सीखरो को ।
हा! पापिष्टे फिर किस लिये ताप देती मुझे है ॥३१॥

क्या होती, निठुर इतना क्या बढाती व्यथा है ।
तु है मेरी चिर परिचिता न हमारी प्रिया है ।
मेरी बातें सुन मन सता छोड द बामना को ।
पीड़ा खो के प्रणतजन की है बडा पुगय होता ।।३२।।

मेरे प्यारे नब जलद मे कंज से नेत्रवाले ।
जाके आये न मधुवन मे श्री न भेजा संदेसा ।
मैं रो रो के प्रिय - विरह में बावली हो रही हूँ ।
जा के मेरी सब दुख-कथा श्याम को त सुना दे ॥३३॥

हो पाये जो न यह तुझसे तो क्रिया चातुरी से ।
जाके रोने विकल बनने आदि ही को दिखा दे ।
चाहे ला दे प्रिय निकट से वस्तु कोई अनूठी ।
हा! हा! मैं हूं मृतक बनती प्राण मेरा बचा दे ॥३४॥

तू जाती है सकल थल ही वेगवाली बड़ी है ।
तू है सीधी तरल हृदया ताप उन्मूलती हैं ।
मैं हूँ जी में बहुत रखती वायु तेरा भरोसा ।
जैसे हो ऐ भगिनि बिगड़ी बात मेरी वना दे ॥३५।।

[ १३४ ]

कालिन्दी के तट पर घने रम्य उद्यानवाला ।
ऊँचे ऊँचे धवल-गृह की पक्तियों से प्रशोभी ।
जो है न्यारा नगर मथुरा प्राणप्यारा वहीं है ।
मेरा सूना सदन तज के तू वहाँ शीघ्र ही जा ॥३६।।

ज्यो ही मेरा भवन तज तू आल्प आगे बढ़ेगी ।
शोभावाली सुखद कितनी मंजु कुंज मिलेगी ।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह लेगी तुझे वे ।
तो भी मेरा दुग्य लस वहाँ जा न विश्राम लेना ॥३७॥

थोड़ा आगे सरस ख का धाम सत्पुष्पवाला ।
अच्छे अच्छे बहु द्रुम लतावान सौन्दर्ग्यशाली ।
प्यारा वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा ।
आना जाना इस विपिन से मुह्यमाना न होना ॥३८॥

जाते जाते अगर पथ में छान्त कोई दिखावे ।
तो जा के सन्निकट उसकी छान्तियों को मिटाना ।
धीरे धीरे परम करके गात उत्ताप खोना ।
सद्गधो से अमित जन को हर्पितो मा बनाना ॥३९।।

सलमा हो सुखद जल के श्रान्तिहारी कणों से ।
ले के नाना कुसुम कुल का गध आमोदकारी ।
निर्धली हो गमन करना उद्धता भी न होना ।
आते जाते पथिक जिससे पथ मे शान्ति पावे ॥४०॥

लज्जा शीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये ।
होने देना विकृत - वसना तो न तू सुन्दरी को ।
जो थोडी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना ।
होठो की औ कमल-मुख की म्लानताये मिटाना ।।४।।

[ १३५ ]

जो पुष्पो के मधुर - रस को साथ आनन्द बैठे ।
पीते होवें भ्रमर भ्रमरी सौम्यता तो दिखाना ।
थोड़ा सा भी न कुसुम हिल औ न उद्धिम वे हों ‌।
क्रोध होवे न कलुपमयी कलि में हो न बाधा ।।४२।।

कालिन्दी के पुलिन पर ही जो कहीं भी कढ़े तृ ।
छ के नीला सलिल उनका 'अंग उत्ताप खोना ।
जी चाह ना कुछ समय बाँ खेलना पंकजो से ।
छोटी छोटी सु-लहर उठा क्रीड़ितों को नचाता ॥४३॥

प्यारे प्यारे वरू किशलयों को कभी जो हिलाना ।
तो हो जाना मृदुल रतनी टुटते वे न पावें ।
शाखापत्रों सहित जब तू केलि में लम हो तो ।
थोड़ा सा भी न दुख पहुँचे शावको को खगो के ॥४४॥

तेरी जैसी मृदु - पवन से सर्वथा शान्ति - कामी ।
कोई रोगी पथिक पथ में जो पड़ा हो कहीं तो ।
मेरी सारी दुखमय दशा भूल उत्कण्ठ होके ।
खोना सारा कल्प उसका शान्ति सर्वाड्ग होना ।।४५।।

कोई क्लान्ता कृषक ललना खेत में जो दिखाये ।
धीरे धीरे परस उसकी क्रान्तियो को मिटाना ।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला ।
छाया द्वारा सुखित करना, तप्त भूतांगना को ।।४६।।

उद्यानो में सु-उपवन में वापिका में सरो में ।
फूलीवाले नवल तरु में पत्र शोभी ड्रमों में ।
आते जाते न रम रहना औ न असक्त होना ।
कुंजो में श्री कमल - कुल में वीधिका में वनो में ॥४७॥

[ १३६ ]

जाते जाते पहुँच मथुरा - धाम में उत्सुका हो ।
न्यारी - शोभा वर नगर की देखना मुग्ध होना ।
तू होवेगी चकित लग्न के मेरु से मन्दिरो को ।
आभावाले कलश जिनके दुसरे अर्क से हैं ॥४८॥

जी चाहे तो शिखर सम जो सर के हैं मुंडेरे ।
वॉ जा ऊँची 'अनुपम - ध्वजा अङ्क मे ले उडाना ।
प्रासादो मे अटन करना घूमना प्रांगणों में ।
उद्युक्ता हो सकल सुर से गेहू को देख जाना ॥४९॥

कुंजो वागों बिपिन यमुना कूल या आलयो में ।
सद्गधों से भरित मुख की वास सम्बन्ध से था ।
कोई भौंरा विकल करता हो किसी कामिनी को ।
तो सद्भावो सहित उसको ताडना दे भगाना ॥५०॥

तू पावेगी कुसुम गहने कान्तता साथ पैन्हे ।
उद्यानो में वर नगर के सुन्दरी मालिनो को ।
व कार्यों मे स्वप्रियतम के तुल्य ही लग्न होंगी ।
जो श्रान्ता हों सरस गति से तो उन्हे मोह लेना ।।५१।।

जो इच्छा हो सुरभि,तन के पुष्प सभार से ले ।
आते जाते स-रुचि उनके प्रीतमों को रिझाना ।
ऐ मर्मज्ञे रहित उससे युक्तियाँ सोच होना ।
जैसे जाना निकट प्रिय के व्योम-चुम्बी गृहो के ॥५२।।

देखे पूजा समय मथुरा मन्दिरों मध्य जाना ।
नाना वाद्यो मधुर-स्वर की मुग्धता को बढाना ।
किम्बा ले के रुचिर तरु के शब्दकारी फलों को ।
धीरे धीरे मधुर-रव से मुग्ध हो हो बजाना ॥५३॥

[ १३७ ]

नीचे फूले कुसुम तरु के जो गई भक्त होवें ।
किम्बा कोई उपल-गठिना-मूर्ति हो देवता की ।
तो डालो को परम मृदुता मंजुना में हिलाना ।
औ यो वर्षा कर कुसुम की पूजना पृजिनों को ॥५४॥

तू पावगी वर नगर में एक भूखण्ड न्यारा ।
शोभा देने अमित जिसमे राज-प्रसाद होंगे ।
नशानो में परम - सुषमा है जहाँ संचिता सी ।
छीने लेवे सग्यर जहाँ वस्त्र की स्वच्छता है ।।५५।।
 
तू देखेगी जलद-तन को जा वहीं तद्गगता हो ।
होगे लोने नयन उनके ज्योति - उकीर्णकारी ।
मुद्रा होगी वर - बदन की मूर्ति सी सौम्यता की ।
सीधे साधे वचन उनके रिक्त होंगे सुधा में ॥५६॥

नीले फूले कमल दल सी गात को श्यामता है ।
पीला प्यारा वसन कटि में पेन्हते हैं फवीला ।
छूटी काली अलक मुख की कान्ति को है बटाती ।
सद्वस्त्रों में नवल - तन की फूटती सी प्रभा है ।।५७।।

साँचे ढाला सकल वपु है दिव्य सौदर्याशाली ।
सत्पुष्पो मी सुरभि उस की प्राण सपोपिका है ।
दोनों कंधे वृषभ - वर से हैं बड़े ही सजीले ।
लम्बी बॉहि कलभ-कर सी शक्ति की पेटिका है ॥५८॥

राजाओ सा शिर पर लसा दिव्य आपीड होगा ।
शोभा होगी उभय श्रुति में स्वर्ण के कुण्डलो की ।
नाना रत्नाकलित भुज में मंजु केयूर होगे ।
मोतीमाला लसित उनका कम्बु सा कंठ होगा ॥५९॥

[ १३८ ]

प्यारे ऐसे अपर जन भी जो वहाँ दृष्टि आवे ।
देवों के से प्रथित - गुण से तो उन्हें चीन्ह लेना ।
थोडी ही है वय तदपि वे तेजशाली बड़े है ।
तारो मे है न छिप सकता कत राका निशा का ।।६०।।

बैठे होगे जिस थल वहाँ भव्यता भूरि होगी ।
सारे प्राणी वदन लखते प्यार के साथ होगे ।
पाते होगे परम निधियाँ लूटते रत्न होगे ।
होती होंगी हृदयतल की क्यारियाँ पुष्पिता सी ॥६१।।

बैठे होंगे निकट जितने शान्त औ शिष्ट होगे ।
मर्यादा का प्रति पुरुष को ध्यान होगा बडा ही ।
कोई होगा न कह सकता बात दुर्वृत्तता की ।
पूरा पूरा प्रति हृदय मे श्याम प्रातक होगा ।।६२।।

प्यारे प्यारे वचन उनसे बोलते श्याम होगे ।
फैली जाती हृदय - तल मे हर्ष की वेलि होगी ।
देते होगे प्रथित गुण वे देख सद्दष्टि द्वारा ।
लोहा को छू कलित कर से स्वर्ण होगे बनाते ।।६३।।

सीधे जाके प्रथम गृह के मंजु उद्यान मे ही ।
जो थोड़ी भी तन- तपन हो सिक्त हो के मिटाना ।
निर्धूली हो सरस रज से पुष्प के लिप्त होना ।
पीछे जाना प्रियसदन मे स्निग्धता से बडी ही ॥६४॥

जो प्यारे के निकट वजती बीन हो मजुता से ।
किम्बा कोई मुरज - मुरली आदि को हो बजाता ।
या गाती हो मधुर स्वर से मण्डली गायको की ।
होने पावे न स्वर लहरी अल्प भी तो विपन्ना ॥६५।।

[ १३९ ]

जाते ही छू कमलदल से पॉव को पूत होना ।
काली काली कलित अलके गण्ड शोभी हिलाना ।
क्रीड़ाये भी ललित करना ले दुकूलादिको को ।
धीरे धीरे परस तन को प्यार की बेलि बोना ॥६६॥

तेरे मे है न यह गुण जो तू व्यथाये सुनाये ।
व्यापारो को प्रखर मति और युक्तियो से चलाना ।
बैठे जो हो निज सदन में मेघ सी कान्तिवाले ।
तो चित्रो को इस भवन के ध्यान से देख जाना ॥६७॥

जो चित्रो मे विरह - विधुरा का मिले चित्र कोई ।
तो जा जाके निकट उसको भाव से यो हिलाना ।
प्यारे हो के चकित जिससे चित्र की ओर देखे ।
आशा है यो सुरति उनको हो सकेगी हमारी ॥६८॥

जा कोई भी इस सदन मे चित्र उद्यान का हो ।
औ हो प्राणी विपुल उसमे घूमते बावले से ।
तो जाके सनिकट उसके औ हिला के उसे भी ।
देवात्मा को सुरति ब्रज के व्याकुलो की कराना ॥६९।।

कोई प्यारा-कुसुम कुम्हला गेह मे जो पड़ा हो ।
तो प्यारे के चरण पर ला डाल देना उसीको ।
यो देना ऐ पवन बतला फूल सी एक बाला ।
म्लाना हो हो कमल पग को चूमना चाहती है ॥७०॥

जो प्यारे मंजु - उपवन या वाटिका में खड़े हो ।
छिद्रो मे जा क्वणित करना वेणु सा कीचको को ।
यो होवेगी सुरति उनको सर्व गोपांगना की ।
जो है वंशी श्रवण रुचि से दीर्घ उत्कण्ठ होती ॥७१॥

[ १४० ]

ला के फूले कमलदल को श्याम के सामने ही ।
थोडा थोडा विपुल जल में व्यग्र हो हो दुवाना ।
यों देना ऐ भगिनि जतला एक अंभोजनेत्रा ।
ऑखों को हो विरह - विधुरा वारि मे वोरती है ॥७२॥
 
धीर लाना वहन कर के नीप का पुष्प कोई ।
औं प्यारे के चपल ट्टग के सामने डाल देना ।
ऐसे देना प्रकट दिखला नित्य आशकिता हो ।
कैसी होती विरहवश में नित्य रोमाचिता हूँ ॥७३।।

बैठे नीचे जिस विटप के श्याम होवे उसीका ।
कोई पत्ता निकट उनके नेत्र के ले हिलाना ।
यो प्यारे को विदित करना चातुरो से दिखाना ।
मेरे चिन्ता-विजित चित का लान्त हो कॉप जाना ॥७४।।

सूखी जाती मलिन लतिका जो धरा में पड़ी हो ।
तो पॉबो के निकट उसको श्याम के ला गिराना ।
यो सीधे से प्रकट करना प्रीति से वंचिता हो ।
मेरा होना अति मलिन औ सूसते नित्य जाना ।।७५।।

कोई पत्ता नवल तरु का 'पीत जो हो रहा हो ।
तो प्यारे के हग युगल के सामने ला उसे ही ।
धीरे धीरे सँभल रखना भी उन्हें यो बताना ।
पीला होना प्रवल दुख से प्रोपिता सा हमारा ॥७६॥

यो प्यारे को विदित करके सर्व मेरी व्यथाये ।
धीरे धीरे वह्न कर के पॉच की धूलि लाना ।
थोड़ी सी भी चरणरज जो ला न देगी हमे तू ।
हा। कैसे तो व्यथित चित को वोध में दे सकेंगी ।।७७॥

[ १४१ ]

जो ला देगी चरणरज तो तू वड़ा पुण्य लेगी ।
पूता हूॅगी भगिनि उसको अंग मे मैं लगाके ।
पोतूॅगी जो हृदय तल में वेदना दूर होगी ।
डालूँगी मै शिर पर उसे आँख मे ले मलूंगी ।।७८।।

तू प्यारे का मृद्धल स्वर ला मिष्ट जो है बड़ा ही ।
जो यो भी है क्षरण करती स्वर्ग की सी सुधा को ।
थोड़ा भी ला श्रवणपुट मे जो उसे डाल देगी ।
मेरा सूखा हृदयतल तो पूर्ण उत्फुल्ल होगा ।।७९।।

भीनी भीनी सुरभि सरसे पुष्प की पोषिका सी ।
मूलीभूता अवनितल मे कीर्ति कस्तूरिका की ।
तू प्यारे के नवलतन की वास ला दे निराली ।
मेरे ऊबे व्यथित चित मे शान्तिधारा वहा दे ॥८०॥

होते होवे पतित कण जो अङ्गरागादिको के ।
धीरे धीरे वहन कर के तू उन्हीको उड़ा ला ।
कोई माला कलकुसुम की कंठसंलग्न जो हो ।
तो यत्नो से विकच उसका पुष्प ही एक ला दे ॥८१॥

पूरी होवे न यदि तुझसे अन्य बाते हमारी ।
तो तू मेरी विनय इतनी मान ले औ चली जा ।
छू के प्यारे कमलपग को प्यार के साथ आ जा ।
जी जाऊँगी हृदयतल में मै तुझीको लगाक ।।८२।।

भ्रांता हो के परम दुख औ भूरि उद्विग्नता से ।
ले के प्रात मृदुपवन को या सखी आदिको को ।
यो ही राधा प्रगट करती नित्य ही वेदनाये ।
चिन्ताये थी चलित करती वर्द्धिता थी व्यथाये ॥८३॥