प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/अठारह

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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इसकी कसर तब निकल जायगी।

इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने लिखा था- मैंने अपने जीवन में दो-चार नियम बना लिए हैं। और बड़ी कठोरता से उनका पालन करता हूं। उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूंगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जाएगा कि जहां मित्रों से लेन-देन शुरू हुआ, वहां मनमुटाव होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना चाहती। इसलिए मुझे क्षमा करो।

रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बांधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखाई देता था, इसमें संदेह है। इतनी ही एकाग्रता से वह कदाचित आकाश की काली, अभेद्य मेघ-राशि की ओर ताकता । मन की एक दशा वह भी होती है, जब आंखें खुली होती हैं और कुछ नहीं सूझता; कान खुले रहते हैं और कुछ नहीं सुनाई देता।

अठारह

संध्या हो गई थी म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाडू लगा रहा था। चपरासियों ने भी जूते पहनना शुरू कर दिया था खोंचेवाले दिनभर की बिक्री के पैसे गिन रहे थे। पर रमानाथ अपनी कुर्सी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था। आज भी वह प्रात:काल आया था, पर आज भी कोई बड़ा शिकार न फंसा, वही दस रुपये मिलकर रह गए। अब अपनी आबरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय था ! रमा ने रतन को झांसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन को यह अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रुपये मैंने खर्च कर दिए। अगर उसे मालूम हो जाए कि उसके रुपये तत्काल मिल सकते हैं, तो वह शांत हो जाएगी। रमा उसे रुपये से भरी हुई थैली दिखाकर उसका संदेह मिटा देना चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा है। उसने आज जान- बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रुपये उसके पास थे। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या गरज थी कि रमा से आज की आमदनी मांगता। रुपये गिनने से ही छुट्टी मिली। दिनभर वहीं लिखते-लिखते और रुपये गिनते-गिनते बेचारे की कमर दुख रही थी। रमा को जब मालूम हो गया कि खजांची साहब दूर निकल गए होंगे, तो उसने रजिस्टर बंद कर दिया और चपरासी से बोला-थैली उठाओ । चलकर जमा कर आएं।

चपरासी ने कहा-खजांची बाबू तो चले गए ।

रमा ने आंखें फाड़कर कहा-खजांची बाबू चले गए ! तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं? अभी कितनी दूर गए होंगे?

चपरासी-सड़क के नुक्कड़ तक पहुंचे होंगे।

रमानाथ-यह आमदनी कैसे जमा होगी?

चपरासी–हुकुम हो तो बुला लाऊं? [ ७६ ]रमानाथ-अजी, जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें आधे रास्ते से बुलाने जाओगे। हो तुम भी निरे बछिया के ताऊ। आज ज्यादा छान गए थे क्या? खैर रुपये इसी दराज में रखे रहेंगे। तुम्हारी जिम्मेदारी रहेगी।

चपरासी-नहीं बाबू साहब, मैं यहां रुपया नहीं रखने दूंगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रुपये उठ जायं, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊं। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहां।

रमानाथ–तो फिर ये रुपये कहां रक्खें?

चपरासी-हुजूर, अपने साथ लेते जाएं।

रमा तो यह चाहता ही था। एक इक्का मंगवाया, उस पर रुपयों की थैली रक्खी और घर चला। सोचता जाता था कि अगर रतन भभकी में आ गई, तो क्या पूछना कह दूंगा, दो-ही चार दिन की कसर है। रुपये सामने देखकर उसे तसल्ली हो जाएगी।

जालपा ने थैली देखकर पूछा-क्या कंगन न मिला?

रमानाथ-अभी तैयार नहीं था, मैंने समझा रुपये लेता चलं जिसमें उन्हें तस्कीन हो जाय।

जालपा-क्या कहा सराफ ने?

रमानाथ–कहा क्या, आज-कल करता है। अभी रतन देवी आई नहीं?

जालपा-आती ही होगी, उसे चैन कहां?

जब चिराग जले तक रतन न आई, तो रमा ने समझा अब न आएगी। रुपये आलमारी में रख दिए और घूमने चल दिया। अभी उसे गए दस मिनट भी न हुए होंगे कि रतन आ पहुंची और आते-ही-आते बोली-कंगन तो आ गए होंगे?

जालपा–हां आ गए हैं, पहन लो । बेचारे कई दफा सराफ के पास गए। अभाग देता ही नहीं, हीले-हवाले करता है।

रतन-कैसा सराफ है कि इतने दिन से होले-हवाले कर रहा है। मैं जानती कि रुपये झमेले में पड़ जाएंगे, तो देती ही क्यों न रुपये मिलते हैं, ने कंगन मिलता हैं ।

रतन ने यह बात कुछ ऐसे अविश्वास के भाव से कही कि जालपा जल उठी। गर्व से बोली-आपके रुपये रखे हुए हैं, जब चाहिए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं। आखिर जब सराफ देगा, तभी तो लाएंगे?

रतन-कुछ वादा करता है, कब तक देगा?

जालपा-उसके वादों का क्या ठीक, सैकड़ों वादें तो कर चुका है।

रतन-तो इसके मानी यह हैं कि अब वह चीज न बनाएगा?

जालपा-जो चाहे समझ लो।

रतन-तो मेरे रुपये ही दे दो, बाज आई ऐसे कंगन से।

जालपा झमककर उठी, आल्मारी में थैली निकाली और रतन के सामने पटककर बोली-ये आपके रुपये रखे हैं, ले जाइए।

वास्तव में रतन की अधीरता का कारण वहीं था, जो रमा ने समझा था। उसे भ्रम हो रहा था कि इन लोगों ने मेरे रुपये खर्च कर डाले। इसीलिए वह बार-बार कंगन को तकाजा करती थी। रुपये देखकर उसका भ्रम शांत हो गया। कुछ लज्जित होकर बोली-अगर दो-चार दिन में देने का वादा करता हो तो रुपये रहने दो। [ ७७ ] जालपा-मुझे तो आशा नहीं है कि इतनी जल्द दे दे। जब चीज तैयार हो जायगी तो रुपये मांग लिए जाएंगे।

रतन–क्या जाने उस वक्त मेरे पास रुपये रहें या न रहें। रुपये आते तो दिखाई देते हैं,जाते नहीं दिखाई देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं। अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा?

जालपा-तो यहां भी तो वही हाल है। फिर पराई रकम घर में रखना जोखिम की बात भी तो है। कोई गोलमाल हो जाए, तो व्यर्थ का दंड देना पड़े। मेरे ब्याह के चौथे ही दिन मेरे सारे गहने चोरी चले गए। हम लोग जागते ही रहे, पर न जाने कब आंख लग गई, और चोरों ने अपना काम कर लिया। दस हजार की चपत पड़ गई। कहीं वही दुर्घटना फिर हो जाय तो कहीं के न रहा।

रतन-अच्छी बात है, मैं रुपये लिए जाती हू; मगर देखना निश्चित न हो जाना। बाबूजी से कह देना सराफ का पिंड न छोड़ें।

रतन चली गई। जालपा खुश थी कि सिर से बोझ टला बहुधा हमारे जीवन पर उन्हीं के हाथों कठोरतम आघात होता है, जो हमारे सच्चे हितैषी होते हैं।

रमा कोई नौ बजे घूमकर लौटा, जालपा रसोई बना रही थी। उसे देखते ही बोली-रतन आई थी. मैंने उसके सब रुपये दे दिए।

रमा का पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक गई। आंखें फैलकर माथे पर जा पहुंचीं। घबराकर बोला-क्या कहा, रतन को रुपये दे दिए? तुमसे किसने कहा था कि उसे रुपये दे देना?

जालपा-उसी के रुपये तो तुमने लाकर रखे थे। तुम खुद उसका इंतजार करते रहे। तुम्हारे जाते ही वह आई और कंगन मांगने लगी। मैंने झल्लाकर उसके रुपये फेंक दिए।

रमा ने सावधान होकर कहा-उसने रुपये मागे तो न थे?

जालपा-मांगे क्यों नहीं। हां, जब मैंने दे दिए तो अलबत्ता कहने लगी, इसे क्यों लौटाती हो, अपने पास ही पड़ा रहने दो। मैंने कह दिया, ऐसे शक्की मिजाज वालों का रुपया मैं नहीं रखती।

रमानाथ-ईश्वर के लिए तुम मुझसे बिना पूछे ऐसे काम मत किया करो।

जालपा-तो अभी क्या हुआ, उसके पास जाकर रुपये मांग लो. भो; मगर अभी से रुपये घर में लाकर अपने जी का जंजाल क्यों मोल लोगे?

रमा इतना निस्तेज हो गया कि जालपा पर बिगड़ने की भी शक्ति उसमें न रहो। रुआंसा होकर नीचे चला गया और स्थिति पर विचार करने लगा। जालपा पर बिगड़ना अन्याय था। जब रमा ने साफ कह दिया कि ये रुपये रतन के हैं, और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रुपये मत देना, तो जालपा का कोई अपराध नहीं। उसने सोचा-इस समय झल्लाने और बिगड़ने से समस्या हल न होगी। शांत चित्त होकर विचार करने की आवश्यकता थी। रतन से रुपये वापस लेना अनिवार्य था। जिस समय वह यहां आई है, अगर मैं खुद मौजूद होता तो कितनी खूल्मृती से सारी मुश्किल आसान हो जाती। मुझको क्या शामत सवार थी कि घूमने निकला | एक दिन में घूमने जाता, तो कौन मरा जाता था । कोई गुप्त शक्ति मेरा अनिष्ट करने पर उतारू हो गई है। दस मिनट की अनुपस्थिति ने सारा खेल बिगाड़ दिया। वह कह रही थी कि रुपये रख लीजिए। जालपा ने जरा समझ से काम लिया होता तो यह नौबत काहे को आती। लेकिन फिर मैं बीती हुई बातें सोचने लगा। समस्या है, रतन [ ७८ ]

से रुपये वापस कैसे लिए जाएं। क्यों न चलकर कहूं, रुपये लौटाने से आप नाराज हो गई हैं। असल में मैं आपके लिए रुपये न लाया था। सराफ से इसलिए मांग लाया था, जिसमें वह चीज बनाकर दे दे। संभव है, वह खुद ही लज्जित होकर क्षमा मांगे और रुपये दे दे। बस इस वक्त वहां जाना चाहिए।

यह निश्चय करके उसने घड़ी पर नजर डाली। साढे आठ बजे थे। अंधकार छाया हुआ था। ऐसे समय रतन घर से बाहर नहीं जा सकती। रमा ने साइकिल उठाई और रतन से मिलने चला।

रतन के बंगले पर आज बड़ी बहार थी। यहां नित्य ही कोई-न-कोई उत्सव, दावत, पार्टी होती रहती थी। रतन को एकांत नीरस जीवन इन विषयों की ओर उसी भांति लपकता था, जैसे प्यासा पानी की ओर लपकता हैं। इस वक्त वहां बच्चों का जमघट था। एक आम के वृक्ष में झूला पड़ा था, बिजली की बत्तियां जल रही थीं, बच्चे झूला झूल रहे थे और रतन खड़ी झुला रही थी। हू-हक मचा हुआ था। वकील साहब इस मौसम में भी ऊनी ओवरकोट पहने बरामद में बैठे सिगार पी रहे थे। रमा की इच्छा हुई, कि झूले के पास जाकर रतन से बातें करे, पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका। वकील साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा दिया और बोले-आओ रमा बाबू, कहो, तुम्हारे म्युनिसिपल बोर्ड की क्या खबरें हैं?

रमा ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा-कोई नई बात तो नहीं हुई।

वकील-आपके बोर्ड में लड़कियों को अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव कब पास होगा? और कई बोर्डो ने तो पास कर दिया। जब तक स्त्रियों की शिक्षा का काफी प्रचार न होगा, हमारा कभी उद्धार न होगा। आप तो योरप न गए होंगे? ओह ! क्या आजादी है, क्या दौलत है, क्या जीवन है, क्या उत्साह है। बस मालूम होता है, यही स्वर्ग है। और स्त्रियां भी सचमुच देवियां हैं। इतनी हंसमुख, इतनी स्वच्छंद, यह सब स्त्री-शिक्षा का प्रसाद है।

रमा ने समाचार-पत्रों में इन देशों का जो थोड़ा-बहुत हाल पढ़ा था, उसके आधार पर बोला-वहां स्त्रियों का आचरण तो बहुत अच्छा नहीं है।

वकील-नान्सेंस ! अपने- अपने देश की प्रथा है। आप एक युवती को किसी युवक के साथ एकांत में विचरते देखकर दांतों तले उंगली दबाते हैं। आपका अंत:करण इतना मलिन हो गया है कि स्त्री-पुरुष को एक जगह देखकर आप संदेह किए बिना रह ही नहीं सकते, पर जहां लड़के और लड़कियां एक साथ शिक्षा पाते हैं, वहां यह जाति-भेद बहुत महत्त्व की वस्तु नहीं रह जाती-आपस में स्नेह और सहानुभूति की इतनी बातें पैदा हो जाती हैं कि कामुकता का अंश बहुत थोड़ी रह जाता है। यह समझ लीजिए कि जिस देश में स्त्रियों की जितनी अधिक स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है। स्त्रियों को कैद में, परदे में, या पुरुषों से कोसों दूर रखने का तात्पर्य यही निकलता है कि आपके यहां जनता इतनी आचार- भ्रष्ट है कि स्त्रियों का अपमान करने में जरा भी संकोच नहीं करती। युवकों के लिए राजनीति, धर्म, ललित-कला, साहित्य, दर्शन, इतिहास, विज्ञान और हजारों ही ऐसे विषय हैं, जिनके आधार पर वे युवतियों से गहरी दोस्ती पैदा कर सकते हैं। कामलिप्सा उन देशों के लिए आकर्षण का प्रधान विषय है, जहां लोगों की मनोवृत्तियां संकुचित रहती हैं। मैं सालभर योरप और अमेरीका में रह चुका हूं। कितनी ही सुंदरियों के साथ मेरी दोस्ती थी। उनके साथ खेला है, नाचा भी हूं। [ ७९ ]

पर कभी मुंह से ऐसा शब्द न निकलता था, जिसे सुनकर किसी युवती को लज्जा से सिर झुकाना पड़े, और फिर अच्छे और बुरे कहां नहीं हैं?

रमा को इस समय इन बातों में कोई आनंद न आया, वह तो इस समय दूसरी ही चिंता में मग्न था।

वकील साहब ने फिर कहा-जब तक हम स्त्री-पुरुषों को अबाध रूप से अपना-अपना मानसिक विकास न करने देंगे, हम अवनति की ओर खिसकते चले जाएंगे। बंधनों से समाज का पैर न बाँधिए, उसके गले में कैदी की जंजीर न डालिए। विधवा-विवाह का प्रचार कीजिए, खूब जोरों से कीजिए, लेकिन यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि जब कोई अधेड़ आदमी किसी युवती से ब्याह कर लेता है तो क्यों अखबारों में इतना कुहराम मच जाता है। योरप में अस्सी बरसे के बूढे युवतियों से ब्याह करते हैं, सत्तर वर्ष की वृद्धाएं युवकों से विवाह करती हैं, कोई कुछ नहीं कहता। किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती। हम बूढों को मरने के पहले ही मार डालना चाहते हैं। हालांकि मनुष्य को कभी किसी सहगामिनी की जरूरत होती है तो वह बुढापे में, जब उसे हरदम किसी अवलंब की इच्छा होती है, जब वह परमुखापेक्षी हो जाता है।

रमा का ध्यान झूले की ओर था। किसी तरह रतन से दो-दो बातें करने का अवसर मिले। इस समय उसकी सबसे बड़ी यही कामनी थी। उसका वहां जाना शिष्टाचार के विरुद्ध था।आखिर उसने एक क्षण के बाद झूले की ओर देखकर कहा-ये इतने लड़के किधर से आ गए?

वकील–रतन बाई को बाल-समाज से बड़ा स्नेह है। न जाने कहां-कहां से इतने लड़के जमा हो जाते हैं। अगर आपको बच्चों से प्यार हो, तो जाइए ।

रमा तो यह चाहता ही था, चट झूले के पास जा पहुंचा। रतन उसे देखकर मुस्कराई और बोली-इन शैतानों ने मेरी नाक में दम कर रखा है। झूले से इन सबों का पेट ही नहीं भरता। आइए, जरा आप भी बेगार कीजिए, मैं तो थक गई। यह कहकर वह पक्के चबूतरे पर बैठ गई।

रमा झोंक देने लगा। बच्चों ने नया आदमी देखा, तो सब-के-सब अपनी बारी के लिए उतावले होने लगे। रतन के हाथों दो बारियां आ चुकी थीं, पर यह कैसे हो सकता था कि कुछ लड़के तो तीसरी बार झूलें, और बाकी बैठे मुंह ताकें । दो उतरते तो चार झूले पर बैठ जाते। रमा को बच्चों से नाममात्र को भी प्रेम न था; पर इस वक्त फंस गया था, क्या करता। आखिर आध घंटे की बेगार के बाद उसका जी ऊब गया। घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे। मतलब की बात कैसे छेड़े। रतन तो झूले में इतनी मग्न थी, मानो उसे रुपयों की सुध ही नहीं।

सहसा रतन ने झूले के पास जाकर कहा–बाबूजी, मैं बैठती हूं, मुझे झुलाइए, मगर नीचे से नहीं, झूले पर खड़े होकर पेंग मारिए।

रमा बचपन ही से झूले पर बैठते डरता था। एक बार मित्रों ने जबरदस्त झूले पर बैठा दिया, तो उसे चक्कर आने लगा; पर इस अनुरोध न से झूले पर आने के लिए मजबूर कर दिया। अपनी अयोग्यता कैसे प्रकट करे। रतन दो बच्चों को लेकर बैठ गई, और यह गीत गाने लगी-

         कदम की डरिया झूला पड़ गयो री,
           राधा रानी झूलन आई। [ ८० ]रमा झूले पर खड़ा होकर पेंग मारने लगा, लेकिन उसके पांव कांप रहे थे, और दिल बैठा जाता था। जब झूला ऊपर से गिरता था, तो उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई तरल वस्तु उसके वक्ष में चुभती चली जा रही है-और रतन लड़कियों के साथ गा रही थी-
        कदम की डरिया झूला पड़ गयो री,
             राधा रानी झूलन आई।

एक क्षण के बाद रतन ने कहा-जरा और बढ़ाइए साहब, आपसे तो झूला बढ़ता ही नहीं।

रमा ने लज्जित होकर और जोर लगाया, पर झूला न बढ़ा। रमा के सिर में चक्कर आने लगा।

रतन- आपको पेंग मारना नहीं आता, कभी झूला नहीं झूले?

रमा ने झिझकते हुए कहा- हां, इधर तो वर्षों से नहीं बैठा।

रतन-तो आप इन बच्चों को संभालकर बैठिए, मैं आपको झुलाऊंगी। अगर उस डाल से न छू ले तो कहिएगी । रमा के प्राण सूख गए। बोला-आज तो बहुत देर हो गई है, फिर कभी आऊंगा।

रतने-अजी अभी क्या देर हो गई है, दस भी नहीं बजे घबड़ाइए नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब झूलकर जाइएगा। कल जालपा को लाइएगा, हम दोनों झूलेंगे।

रमा झूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा, अब गिरा। वह लड़खड़ाता हुआ साइकिल की ओर चला और उस पर बैठकर तुरंत घर भागा। कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा। पांव आप ही अपि पैडल घुमाते जाते थे। आधी दूर जाने के बाद उसे होश आया। उसने साइकिल घुमा, दो कुछ दूर चला, फिर उतरकर सोचने लगा-आज संकोच में पड़कर कैसी बाजी हाथ से खोई, वहां से चुपचाप अपना सा-मुंह लिए लौट आया क्यों उसके मुंह से आवाज नहीं निकली! रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती। सहसा उसे याद आयी थैली में आठ सौ रुपये थे, जालपा ने झझलाकर थैली की थैली उसके हवाले कर दी। शायद, उसने भी गिना नहीं, नहीं जरूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रुपयों में मिला दे, तो गजब ही हो जाए। कहीं का न रहू। क्यों न इसी वक्त चलकर बंशी रुपये मांग लाऊं, लेकिन देर बहत हो गई है, सबेरे फिर आना पड़ेगा। मगर यह दो सौ रुपये मिल भी गए, तब भी तो पांच सौ रुपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबंध होगा? ईश्वर ही बेड़ा पार लगाएं तो लग सकता है। सबेरे कुछ प्रबंध न हुआ, तो क्या होगा | यह सोचकर वह कांप उठा।। जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा, एक बार फिर गंगू के पास चलें, शायद दुकान पर मिल जाय, उसके हाथ-पांव जोडू संभव है, कुछ दया आ जाय। वह सराफ जा पहुंचा, मगर पंगू की दुकान बंद थी। वह लौटा ही था कि चरनदास आता हुआ दिखाई दिया। रमा को देखते ही बोला—बापूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए रुपये कब तक मिलेंगे?

रमा ने विनम्र भाव से कहा-अब बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं हैं। देखो गंगू के रुपये चुकाए हैं, अब की तुम्हारी बारी है।

चरनदास-वह सब किस्सा मालूम है, गंगू ने होशियारी से अपने रुपये न ले लिए होते, [ ८१ ]

तो हमारी तरह टापा करते। साल भर हो रहा है। रुपये सैकड़े का सूद भी रखिए तो चौरासी रुपये होते हैं। कल आकर हिसाब कर जाइए, सब नहीं तो आधा-तिहाई कुछ दे दीजिए। लेते-देते रहने से मालिक को ढाढ़स रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो उसे शंका होने लगती है कि इनकी नीयत खराब है। तो कल कब आइएगा?

रमानाथ-भई, कल मैं रुपये लेकर तो न आ सकूंगा, यों जब कहो तब चला आऊ। क्यों, इस वक्त अपने सेठजी से चार-पांच सौ रुपयों का बंदोबस्त न करा दोगे? तुम्हारी मुट्ठी भी गर्म कर दूंगा।

चरनदास-कहां की बात लिए फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे मुझे बातें सुननी पड़ती हैं। क्या बड़े मुंशीजी से कहना पड़ेगा?

रमा ने झल्लाकर कहा-तुम्हारा देनदार मैं हूँ, बड़ मुंशी नहीं हैं। मैं मर नहीं गया हूं, घर छोड़कर भागा नहीं जाता हूं। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो?

चरनदास-साल भर हुआ, एक कौड़ी नहीं मिली, अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दो सौ की फिकर कर रखिएगा।

रमानाथ-मैंने कह दिया, मेरे पास अभी रुपये नहीं हैं।

वरन्दम-रोज गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो, रुपये नहीं हैं। कल रुपये जुटा रखना। कल आदमी जाए। जरूर।

रमा ने उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उल्टे तकाजा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाजा न भेज़ दे। आग ही हो जायेगें। जालपा भी समझेगो, कैसा लबाड़िया आदमी है।

इस समय रमा की आंखों से आंसू तो न निकलते थे, पर उसका एक-एक रोआं रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की ! वह समझदार औरत हैं, अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर में पूंजी भांग भी नहीं हैं, तो वह मुझे कभी उधार गहने न लेने देती। उसने तो कभी अपने मुंह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शान जमाने के लिए मरा जा रहा था। इतना बड़ा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफायत से काम नहीं लिया? मुझे एक-एक पैसा दांतों से पकड़ना चाहिए थी। साल भर में मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हजार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता, तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रुपये जरूर अदा हो जाते, मगर यहां तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या जरूरत थी कि जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा करके रोज सैर करने जाती? सैकड़ों रुपये तो तांगे वाला ले गया होगा, मगर यहां तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी। सारा बाजार जान जाय कि लाला निरे लफंगे हैं, पर अपनी स्त्री न जानने पाए । वाह री बुद्धि | दरवाजे के लिए परदों की क्या जरूरत थी। दो लैंप क्यों लाया, नई निवाड़ लेकर चारपाई क्यों बिनवाई? उसने रास्ते ही में उन खर्चा का हिसाब तैयार कर लिया, जिन्हें उसकी हैसियत के आदमी को टालना चाहिए था। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिंता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है, लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है, तो उसे याद आती है कि कल मैंने पकौड़ियां खाई थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी।

जालपा ने पूछा-कहां चले गए थे, बड़ी देर लगा दी? [ ८२ ] रमानाथ-तुम्हारे कारण रतन के बंगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रुपये उठाकर दे दिए, उसमें दो सौ रुपये मेरे भी थे।

जालपा–तो मुझे क्या मालूम था, तुमने कहा भी तो न था; मगर उनके पास से रुपये कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।

रमानाथ-माना; पर सरकारी रकम तो कल दाखिल करनी पड़ेगी।

जालपा-कल मुझसे दो सौ रुपये ले लेना, मेरे पास हैं।

रमा को विश्वास न आया। बोला-कहीं न हों तुम्हारे पास । इतने रुपये कहां से आए?

जालपा–तुम्हें इससे क्या मतलब, मैं तो दो सौ रुपये देने को कहती हूं।

रमा का चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बंधी। दो-सौ रुपये यह दे-दे, दो सौ रुपये रतन से ले लें. सौ रूपये मेरे पास हैं ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जाएगी, मगर यही तीन सौ रुपये कहां से आएंगे? ऐसा कोई नजर न आता था, जिससे इतने रुपये मिलने की आशा को जा सके। हां, अगर रतन सब रुपये दे दे तो बिगड़ी बात बन जाय। आशा को यही एक आधार रह गया था। जब वह खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा-आज किस सोच में पड़े हो?

रमानाथ–सोच किस बात का? क्या मैं उदास हूं?

जालपा–हां, किसी चिंता में पड़े हुए हो, मगर मुझसे बताते नहीं हो ।

रमानाथ- ऐसी कोई बात होती तो तुमसे छिपाता?

जालपा-वाह, तुम अपने दिल की बात मुझसे क्यों कहोगे? ऋषियों की आज्ञा नहीं है।

रमानाथ-मैं उन ऋषियों के भक्तों में नहीं हूं।

जालपा-वह तो तब मालूम होता, जब मैं तुम्हारे हुदय में पैठकर देखती।

रमानाथ-वहां तुम अपनी ही प्रतिमा देखतीं।

रात को जालपा ने एक भयंकर स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा-क्या है जालपा, क्या स्वप्न देख रही हो?

जालपा ने इधर-उधर घबड़ाई हुई आंखों से देखकर कहा-बड़े संकट में जान पड़ी थी। न जाने कैसा सपना देख रही थी ।

रमानाथ- क्या देखा?

जालपा-क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी कि तुम्हें कई सिपाही पकड़े लिए जा रहे हैं। कितना भंयकर रूप था उनका।

रमा का खून सूख गया। दो-चार दिन पहले, इस स्वप्न को उसने हंसी में उड़ा दिया होता; इस समय वह अपने को सशंकित होने से न रोक सको, पर बाहर से हंसकर बोला-तुमने सिपाहियों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों पकड़े लिए जाते हो?

जालपा–तुम्हें हंसी सूझ रही है, और मेरा हृदय कांप रहा है।

थोड़ी देर के बाद रमा ने नींद में बकना शुरू किया-अम्मां, कहे देता हूं, फिर मेरा मुंह न देखोगी, मैं डूब मरूं।

जालपा को अभी तक नींद न आई थी, भयभीत होकर उसने रमा को जोर से हिलाया और बोली-मुझे तो हंसते थे और खुद बकने लगे। सुनकर रोएं खड़े हो गए। स्वप्न देखते थे क्या? [ ८३ ] रमा ने लज्जित होकर कहा-हां जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं।

जालपा ने पूछा-अम्मांजी को क्यों धमका रहे थे। सच बताओ, क्या देखते थे?

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूंगा।

जालपा-अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।

रमा करवट पौढ़ गया; पर ऐसा जान पड़ता था, मानो चिंता और शंका दोनों आंखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं। जागते हुए दो बज गए। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उंडेलती हुई बोली-बड़ी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग ही रहे हो?

रमा-हां जी, नींद उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रुपये कहां से आ गए? मुझे इसका आश्चर्य है।

जालपा-ये रुपये मैं मायके से लाई थी, कुछ बिदाई में मिले थे, कुछ पहले से रखे थे।

रमानाथ-तब तो तुम रुपये जमा करने में बड़ी कुशल हो। यहां क्यों नहीं कुछ जमा किया? जालपा ने मुस्कराकर कहा-तुम्हें पाकर अब रुपये की परवाह नहीं रही।

रमानाथ-अपने भाग्य को कोसती होगी।

जालपा-भाग्य को क्यों कोसू, भाग्य को वह औरतें रोएं, जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरुष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।

रमा ने विनोद भाव से कहा-तो मैं तुम्हारे मन का हूं।

जालपा ने प्रेम-पूर्ण गर्व से कहा-मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियां हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम० ए० हैं पर सदा रोगी। दूसरी विद्वान भी है और धनी भी, पर वेश्यागामी। तीसरा घरघुस्सू है और बिल्कुल निखट्टू।

रमा का हृदय गद्गद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी के साथ उसने कितना बड़ा विश्वासघात किया। इतना दुराव रखने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे निष्कपट होकर रहता, तो मेरा जीवन कितना आनंदमय होता !

उन्नीस

प्रात:काल रमा ने रतन के पास अपना आदमी भेजा। खत में लिखा, मुझे बड़ा खेद है कि कल जालपा ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया, जो उसे न करना चाहिए था। मेरा विचार यह कदापि न था कि रुपये आपको लौटा दें, मैंने सराफ को ताकीद करने के लिए उससे रुपये लिए थे। कंगन दो-चार रोज में अवश्य मिल जाएंगे। आप रुपये भेज दें। उसी थैली में दो सौ रुपये मेरे भी थे। वह भी भेजिएगा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए जितनी विनम्रता उससे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रक्खी। जब तक आदमी लौटकर न आया, वह बड़ी व्यग्रता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचती, कहीं बहाना न कर दे. या घर पर मिले ही नहीं, या दो