प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/चवालीस

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प्रेमचंद रचनावली ५  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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चवालीस


रमा मोटर पर चला, तो उसे कुछ सूझता न था, कुछ समझ में न आता था, कहां जा रहा है। जाने हुए रास्ते उसके लिए अनजाने हो गए थे। उसे जालपा पर क्रोध न था, जरा भी नहीं। जग्गों पर भी उसे क्रोध न था। क्रोध था अपनी दुर्बलता पर, अपनी स्वार्थलोलुपता पर, अपनी कायरता पर। पुलिस के वातावरण में उसका औचित्य-ज्ञाने भ्रष्ट हो गया था। वह कितना बड़ा अन्याय करने जा रहा है, उसका उसे केवल उस दिन खयाल आया था, जब जालपा ने समझाया था। फिर यह शंका मन में उठी ही नहीं। अफसरों ने बड़ी-बड़ी आशाएं बंधाकर उसे बहला रक्खा। वह कहते, अजी बीबी की कुछ फिक्र न करो। जिस वक्त तुम एक जड़ाऊ हार लेकर पहुंचोगे और रुपयों की थैली नजर कर दोगे, बेगम साहब का सारा गुस्सा भाग जाया। अपने सूबे में किसी अच्छी-सी जगह पर पहुंच जाओगे, आराम से जिंदगी कटेगी। कैसा गुस्सा ! इसकी कितनी ही आंखों-देखी मिसालें दी गई। रमा चक्कर में फंस गया। फिर उसे जालपा से मिलने का अवसर ही न मिला। पुलिस का रंग जमता गया। आज वह जड़ाऊ हार जेब में रखे जालपा को अपनी विजय की खुशखबरी देने गया था। वह जानता था जालपा पहले कुछ नाक-भौं सिकोड़ेगी, पर यह भी जानता था कि यह हार देखकर वह जरूर खुश हो जायगी। कल ही संयुक्त प्रांत के होम सेक्रेटरी के नाम कमिश्नर पुलिस का पत्र उसे मिल जाएगा। दोचार दिन यहां खूब सैर करके घर की राह लेगा। देवीदीन और जग्गो को भी वह अपने साथ ले जाना चाहता था। उनका एहसान वह कैसे भूल सकता था। यही मनसूबे मन में बांधकर वह जालपा के पास गया था, जैसे कोई भक्त फूल और नैवेद्य लेकर देवता की उपासना करने जाये, पर देवता ने वरदान देने के बदले उसके थाल को ठुकरा दिया, उसके नैवेद्य को पैरों से कुचल डाला । उसे कुछ कहने का अवसर ही न मिला। आज पुलिस के विषैले वातावरण से निकलकर उसने स्वच्छ वायु पाई थी और उसकी सुबुद्धि सचेत हो गई थी। अब उसे अपनी पशुता अपने यथार्थ रूप में दिखाई दी-कितनी विकराल, कितनी दानवी मूर्ति थी। वह स्वयं उसकी ओर ताकने का साहस न कर सकता था। उसने सोचा, इसी वक्त जज के पास चलें और सारी कथा कह सुनाऊ। पुलिस मेरी दुश्मन हो जाये, मुझे जेल में सड़ा डाले, कोई परवा नहीं। सारी कलई खोल दूंगा। क्या जज अपना फैसला नहीं बदल सकता? अभी तो सभी मुल्जिम हवालात में हैं। पुलिस वाले खूब दांत पीसेंगे, खूब नाचे-कूदेंगे, शायद मुझे कच्चा ही खा जायं। खा जाये । इसी दुर्बलता ने तो मेरे मुंह में कालिख लगा दी।

जालपा की वह क्रोधोन्मत्त मूर्ति उसकी आंखों के सामने फिर गई। ओह, कितने गुस्से में थी । मैं जानता कि वह इतना बिगड़ेगी, तो चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाती, अपना बयान बदल देता। बड़ा चकमा दिया इन पुलिस वालों ने। अगर कहीं जज ने कुछ नहीं सुना और मुल्जिमों को बरी न किया, तो जालपा मेरा मुंह न देखेगी। मैं उसके पास कौन मुंह लेकर जाऊंगा। फिर जिंदा रहकर ही क्या करूंगा। किसके लिए?

उसने मोटर रोकी और इधर-उधर देखने लगा। कुछ समझ में न आया, कहां आ गया। सहसा एक चौकीदार नजर आया। उसने उससे जज साहब के बंगले का पता पूछा। चौकीदार [ १९८ ]
हंसकर बोला- हुजूर तो बहुत दूर निकल आए। यहां से तो छ:-सात मील से कम न होगा, वह उधर चौरंगो की ओर रहते हैं।

रमा चौरंगी का रास्ता पूछकर फिर चला। नौ बज गए थे। उसने सोचा, जज साहब से मुलाकात न हुई,तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। बिना मिले हटूंगा ही नहीं। अगर उन्होंने सुन लिया तो ठीक ही है,नहीं कल हाईकोर्ट के जजों से कहूंगा। कोई तो सुनेगा। सारा वृत्तांत समाचार-पत्रों में छपवा दूंगा, तब तो सबकी आंखें खुलेंगी।

मोटर तीस मील की चाल से चल रही थी। दस मिनट ही में चौरंगी आ पहुंची। यहां अभी तक वहीं चहल-पहल थी, मगर रेमा उसी जन्नाटे से मोटर लिए जाता था। सहसा एक पुलिसमैन ने लाल बत्ती दिखाई। वह रुक गया और बाहर सिर निकलकर देखा, तो वही दारोगाजी ।

दारोगा ने पूछा-क्या अभी तक बंगले पर नहीं गए? इतनी तेज मोटर ने चलाया कीजिए। कोई वारदात हो जायगी। कहिए, बेगम साहब से मुलाकात हुई? मैंने तो समझा था, वह भी आपके साथ होंगी। खुश तो खूब हुई होंगी।

रमा को ऐसा क्रोध आया कि मूंछेउखाड़ लें,पर बाते बनाकर बोला-जी हां, बहुत खुश हुई। बेहद । 'मैंने कहा था न, औरतों की नाराजी की वहीं दवा है। आप कांपे जाते थे।'

'मेरी हिमाकत थी।'

‘चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूं। एक बाजी ताश उड़े और जरा सरूर जमे। डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर साहब आएंगे। जोहरा को बुलवा लेंगे। दो घड़ी की बहार रहेगी। अब आप मिसेज रमानाथ को बंगले ही पर क्यों नहीं बुला लेते। वहां उस खटिक के घर पड़ी हुई हैं।'

रमा ने कहा—अभी तो मुझे एक जरूरत से दूसरी तरफ जाना है। आप मोटर ले जाए। मैं पांव-पांव चला आऊंगा।

दारोगा ने मोटर के अंदर जाकर कहा-नही साहब, मुझे कोई जल्दी नहीं है। आप जहां चलना चाहें, चलिए। मैं जरा भी मुखिल न हूंगा।

रमा ने कुछ चिढ़कर कहा–लेकिन मैं अभी बंगले पर नहीं जा रहा है।

दारोगा ने मस्कराकर कहा-मैं समझ रहा हूं, लेकिन मैं जरा भी मुखिल न होगा। वहीं बेगम साहब

रमा ने बात काटकर कहा-जी नहीं,वहां मुझे नहीं जाना है।

दारोगा-तो क्या कोई दूसरा शिकार है? बंगले पर भी आज कुछ कम बहार न रहेगी। वहीं अपिके दिल-बहलाव का कुछ सामान हाजिर हो जायगा।

रमा ने एकबारगी आंखें लाल करके कहा-क्या आप मुझे शोहदा समझते हैं? मैं इतना जलील नहीं हूं।

दारोगा ने कुछ लज्जित होकर कहा-अच्छा साहब,गुनाह हुआ,माफ कीजिए। अब कभी ऐसी गुस्ताखी न होगी, लेकिन अभी आप अपने को खतरे से बाहर न समझें। मैं आपको किसी ऐसी जगह न जाने दूंगा,जहां मुझे पूरा इत्मीनान न होगा। आपको खबर नहीं,आपके [ १९९ ]
कितने दुश्मन हैं। मैं आप ही के फायदे के ख्याल से कह रहा हूं।

रमा ने होंठ चबाकर कहा-बेहतर हो कि आप मेरे फायदे का इतना खयाल न करें। आप लोगों ने मुझे मलियामेट कर दिया और अब भी मेरा गला नहीं छोड़ते। मुझे अब अपने हाल पर मरने दीजिए। मैं इस गुलामी से तंग आ गया हूं। मैं मां के पीछे-पीछे चलने वाला बच्चा नहीं बनना चाहता। आप अपनी मोटर चाहते हैं; शौक से ले जाइए। मोटर की सवारी और बंगले में रहने के लिए पंद्रह आदमियों को कुर्बान करना पड़ा है। कोई जगह पा जाऊं, तो शायद पंद्रह सौ आदमियों को कुर्बान करना पड़े। मेरी छाती इतनी मजबूत नहीं है। आप अपनी मोटर ले जाइए।

यह कहता हुआ वह मोटर से उतर पड़ा और जल्दी से आगे बढ़ गया। दारोगा ने कई बार पुकारा, जरा सुनिए, बात तो सुनिए, लेकिन उसने पीछे फिरकर देखा तक नहीं। जरा और आगे चलकर वह एक मोड़ से घूम गया। इसी सड़क पर जज का बंगला था। सड़क पर कोई आदमी न मिला। रमा कभी इस पटरी पर और कभी उसे पटरी पर जा-जाकर बंगलों के नंबर पढ़ता चला जाता था। सहसा एक नंबर देखकर वह रुक गया। एक मिनट तक खड़ा देखता रहा कि कोई निकले तो उससे पूछू साहब हैं या नहीं। अंदर जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। खयाल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूंगा। यह कहना कि पुलिस ने मुझसे अबस्ती गवाही दिलवाई, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है। अगर वह पूछे कि तुमने केवल दो-तीन साल की सजा से बचने के लिए इतना बड़ी कलंक सिर पर ले लिया, इतने आदमियों की जान लेने पर उतारू हो गए, उस वक्त तुम्हारी बुद्धि कहां गई थी, तो उसका मेरे पास क्या जवाब है? ख्वामख्वाह लज्जित होना पड़ेगा। बेवकूफ बनाया जाऊंग; वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामर्थ्य न थी। लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते। आग में झुक जाना, तलवार के सामने खड़े हो जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बड़े राज्य मिट गए हैं, रक्त की नदियां बह गई हैं, प्राणों की होली खेल डाली गई है। उसी लाज ने आज रमा के पग भी पोछे हटा दिए। शायद जेल की सजा से वह इतना भयभीत न होता।

पैंतालीस

रमा आधी रात गए सोया, तो नौ बजे दिन तक नींद न खुली । वह स्वप्न देख रहा था—दिनेश को फांसी हो रही है। सहसा एक स्त्री तलवार लिए हुए फांसी की ओर दौड़ी और फांसी की रस्सी काट दी । चारों ओर हलचल मच गई । वह औरत जालपा थी । जालपा को लोग घेरकर पकड़ना चाहते थे; पर वह पकड़ में न आती थी। कोई उसके सामने जाने का साहस न कर सकता था। तब उसने एक छलांग मारकर रमा के ऊपर तलवार चलाई । रमा घबड़ाकर उठ बेता। देखा तो दारोगा और इंस्पेक्टर कमरे में खड़े हैं, और डिप्टी साहब आराम-कुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे हैं।