प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/पन्द्रह
पंद्रह
जालपा अब वह एकांतवासिनी रमणी न थी, जो दिन-भर मुंह लपेटे उदास पड़ी रहती थी। उसे अब घर में बैठना अच्छा नहीं लगता था। अब तक तो वह मजबूर थी, कहीं आ-जा न सकती थी। अब ईश्वर की दया से उसके पास भी गहने हो गए थे। फिर वह क्यों मन मारे घर में पड़ी रहती। वस्त्राभूषण कोई मिठाई तो नहीं जिसका स्वाद एकांत में लिया जा सके। आभूषणों को संदूकचों में बंद करके रखने से क्या फायदा। मुहल्ले या बिरादरी में कहीं से बुलावा आता, तो वह सास के साथ अवश्य जाती। कुछ दिनों के बाद सास की जरूरत भी न रही। वह अकेली आने-जाने लगी। फिर कार्य प्रयोजन की कैद भी नहीं रही। उसके रूप-लावण्य, वस्त्र आभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुंचा दिया। उसके बिना मंडली सुनी रहती थी। उसका कंठ-स्वर इतना कोमल था,भाषण इतना मधुर, छवि इतनी अनुपम कि वह मंडली की रानी मालूम होती थी। उसके आने से मुहल्ले के नारी जीवन में जान-सी पड़ गई। नित्य ही कहीं-न-कहीं जमा हो जाता। घंटे-दो घंटे गा-बजाकर या गपशप करके रमणियां दिल बहला लिया करतीं। कभी किसी के घर, कभी किसी के घर, फागुन में पंद्रह दिन बराबर गाना होता रहा। जालपा ने जैसा रूप पाया था, वैसा ही उदार हृदय भी पाया था। पान-पत्ते का खर्च प्राय: उसी के मत्थे पडता। कभी-कभी गायनें बुलाई जातीं, उनकी सेवा सत्कार का भार उसी पर था। कभी -कभी वह स्त्रियों के साथ गंगा-स्नान करने जाती, तांगे का किराया और गंगा-तट पर जलपान का ख़र्च भी उसके मत्थे जाता। इस तरह उसके दो तीन रुपये रोज उड़ जाते थे। रमा आदर्श पति था। जालपा अगर मांगती तो प्राण तक उसके चरणों पर रख देता। रुपये की हकीकत ही क्या थी? उसका मुंह जोहता रहता था। जालपा उससे इन जमघटों की राज चर्चा करती। उसकी स्त्री-समाज में कितना आदर-सम्मान है, यह देखकर वह फूला न समाता था।
एक दिन इस मंडली को सिनेमा देखने की धुन सवार हुई। वहां की बहार देखकर सब-की-सब मुग्ध हो गई। फिर तो आए दिन सिनेमा की सैर होने लगी। रमा को अब तक सिनेमा का शौक न था। शौक होता भी तो क्या करता। अब हाथ पैसे आने लगे, उस पर जालपा का आग्रह, फिर भला वह क्यों न जाता? सिनेमागृह में ऐसी कितनी ही रमणियां मिलतीं, जो मुंह खोले नि:संकोच हंसती-बोलती रहती थीं। उनकी आजादी गुप्तरूप से जालपा पर भी जादू डालती जाती थी। वह घर से बाहर निकलते ही मुंह खोल लेती; मगर संकोचवश परदेवाली स्त्रियों के ही स्थान पर बैठती। उसकी कितनी इच्छा होती कि रमा भी उसके साथ बैठता। आख़िर वह उन फैशनेबुल औरतों से किस बात में कम है? रूप-रंग में वह हेठी नहीं। सजधज में किसी से कम नहीं। बातचीत करने में कुशल। फिर वह क्यों परदेवालियों के साथ बैठे। रम्रा बहुत शिक्षित न होने पर भी देश और काल के प्रभाव से उदार था। पहले तो वह परदे का ऐसा अनन्य भक्त था, कि माता को कभी गंगा-स्नान कराने लिवा जाता, तो पंडों तक से न
बोलने देता। कभी माता की हंसी मर्दाने में सुनाई देती, आकर बिगड़ता-तुमको जरा भी शर्म नहीं है अम्मां बाहर लोग बैठे हुए हैं, और तुम हंस रही हो। मां लज्जित हो जाती थीं। किंतु
अवस्था के साथ रमा का यह लिहाज गायब होता जाता था। उस पर जालपा की रूप-छटा उसके साहस को और भी उत्तेजित करती थी। जालपा रूपहीन, काली-कलूटी, फूहड़ होती तो
वह जबरदस्ती उसको परदे में बैठाता। उसके साथ घूमने या बैठने में उसे शर्म आती। जालपा-जैसी अनन्य सुंदरी के साथ सैर करने में आनंद के साथ गौरव भी तो था। वहां के सभ्य समाज की कोई महिला रूप, गठन और श्रृंगार में जालपा की बराबरी न कर सकती थी। देहात की लड़की होने पर भी शहर के रंग में वह इस तरह रंग गई थी, मानो जन्म से शहर ही में रहती आई है। थोड़ी-सी कमी अंग्रेजी शिक्षा की थी, उसे भी रमा पूरी किए देता था।
मगर परदे का यह बंधन टूटे कैसे। भवन में रमा के कितने ही मित्र, कितनी ही जान पहचान के लोग बैठे नजर आते थे। वे उसे जालपा के साथ बैठे देखकर कितना हंसेंगे। आखिर एक दिन उसने समाज के सामने ताल ठोंककर खड़े हो जाने का निश्चय कर ही लिया। जालपा से बोला-आज हम-तुम सिनेमाघर में साथ बैठेंगे।
जालपा के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी। हार्दिक आनंद को आभा चेहरे पर झलक उठी। बोली-सच नहीं भाई, साथवालियां जीने न देंगी।
रमानाथ—इस तरह डरने से तो फिर कभी कुछ न होगा। यह क्या स्वांग है कि स्त्रियां मुंह छिपाए चिक की आड़ में बैठी रहें। इस तरह यह मामला भी तय हो गया। पहले दिन दोनों झेपते रहे, लेकिन दूसरे दिन से हिम्मत खुल गई। कई दिनों के बाद वह समय भी आया कि रमा और जालपा संध्या समय पार्क में साथ-साथ टहलते दिखाई दिए।
जालपा ने मुस्कराकर कहा-कहीं बाबूजी देख लें तो?
रमानाथ–तो क्या, कुछ नहीं।
जालपा-मैं तो मारे शर्म के गड़ जाऊं।
रमानाथ-अभी तो मुझे भी शर्म आएगी, मगर बाबूजी खुद ही इधर न आएंगे।
जालपा-और जो कहीं अम्मांजी देख लें।
रमानाथ-अम्मां से कौन डरता है, दो दलीलों में ठीक कर दूंगा। दस ही पांच दिन में जालपा ने नए महिला-समाज में अपना रंग जमा लिया। उसने इस समाज में इस तरह प्रवेश किया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार परिषद् के मंच पर आता है। विद्वान् लोग उसकी उपेक्षा करने की इच्छा होने पर भी उसकी प्रतिभा के सामने सिर झुका देते हैं। जालपा भी आई, देखा और विजय कर लिया। उसके सौंदर्य में वह गरिमा, वह कठोरता, वह शान, वह तेजस्विता थी जो कुलीन महिलाओं के लक्षण हैं। पहले ही दिन एक महिला ने जालपा को चाय का निमंत्रण दे दिया और जालपा इच्छा न रहने पर भी उसे अस्वीकार न कर सकी।
जब दोनों प्राणी वहां से लौटे, तो रमा ने चिंतित स्वर में कहा-तो कल इसकी चाय-पार्टी में जाना पड़ेगा?
जालपा-क्या करती? इंकार करते भी तो न बनता था ।
रमानाथ–तो सबेरे तुम्हारे लिए एक अच्छी-सी साड़ी लादूं।
जालपा-क्या मेरे पास साड़ी नहीं है, जरा देर के लिए पचास-साठ रुपये खर्च करने से फायदा ।
रमानाथ-तुम्हारे पास अच्छी साड़ी कहां है। इसकी साड़ी तुमने देखी? ऐसी ही तुम्हारे लिए भी लाऊंगा। जालपा ने विवशता के भाव से कहा-मुझे साफ कह देना चाहिए था कि फुरसत नहीं है।
रमानाथ-फिर इनकी दावत भी तो करनी पड़ेगी।
जालपा-यह तो बुरी विपत्ति गले पड़ी।
रमानाथ-विपत्ति कुछ नहीं है, सिर्फ यहीं खयाल है कि मेरा मकान इस काम के लायक नहीं। मेज, कुर्सियां, चाय के सेट रमेश के यहां से मांग लाऊंगा, लेकिन घर के लिए क्या करूं!
जालपा-क्या यह जरूरी है कि हम लोग भी दावत करें?
रमा ने ऐसी भद्दी बात का कुछ उत्तर न दिया। उसे जालपा के लिए एक जूते की जोड़ी और सुंदर कलाई की घड़ी की फिक्र पैदा हो गई। उसके पास कौंडी भी न थी। उसका खर्च रोज बढ़ता जाता था। अभी तक गहने वालों को एक पैसा भी देने की नौबत न आई थी। एक बार गंगू महाराज ने इशारे से तकाजा भी किया था, लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि जालपा फटे चप्पलों चाय-पार्टी में जाय। नहीं, जालपा पर वह इतना अन्याय नहीं कर सकता। इस अवसर पर जालपा की रूप-शोभा का सिक्का बैठ जायगा। सभी तो आज चमाचम साड़ियां पहने हुए थीं। जड़ाऊ कंगन और मोतियों के हारों की भी तो कमी न थी पर जालपा अपने सादे आवरण में उनसे कोसों आगे थी। उसके सामने एक भी नहीं जंचती थी। यह मेरे पूर्व कर्मों का फल है कि मुझे ऐसी सुंदरी मिली। आखिर यही तो खाने-पहनने और जीवन का आनद उठाने के दिन हैं। जब जवानी ही में सुख न उठाया, तो बुढ़ापे में क्या कर लेंगे ! बुढ़ापे में मान लिया धन हुआ ही तो क्या। यौवन बीत जाने पर विवाह किस काम का? साड़ी और घड़ी लाने की उसे धुन सवार हो गई। रातभर तो उसने सब्र किया। दसरे दिन दोनों चीजें लाकर ही दम लिया।
जालपा ने झुंझलाकर कहा-मैंने तो तुमसे कहा था कि इन चीजों का काम नहीं है। डेढ़ सौ से कम की न होगी?
रमानाथ-डेढ़ सौ ! इतना फजूलखर्च मैं नहीं हूं।
जालपा-डेढ़ सौ से कम की ये चीजें नहीं हैं।
जालपा ने घड़ी कलाई में बांध ली और साड़ी को खोलकर मंत्रमुग्ध नेत्रों से देखा।
रमानाथ–तुम्हारी कलाई पर यह घड़ी कैसी खिल रही है। मेरे रुपये वसूल हो गए।
जालपा- सच बताओ, कितने रुपये खर्च हुए?
रमानाथ-सच बता दें? एक सौ पैंतीस रुपये। पचहत्तर रुपये की साड़ी, दस के जूते और पचास की घड़ी।
जालपा-यह डेढ़ सौ ही हुए। मैंने कुछ बढ़ाकर थोड़े कहा था, मगर यह सब रुपये अदा कैसे होंगे? उस चुड़ैल ने व्यर्थ ही मुझे निमंत्रण दे दिया। अब मैं बाहर जाना हो छोड़ दूंगी।
रमा भी इसी चिंता में मग्न था, पर उसने अपने भाव को प्रकट करके जालपा के हर्ष में बाधा न डाली। बोला-सब अदा हो जायेगा।
जालपा ने तिरस्कार के भाव से कहा-कहां से अदा हो जाएगा, जरा सुनें। कौड़ी तो बचती नहीं, अदा कहां से हो जायगा? वह तो कहो बाबूजी घर का खर्च संभाले हुए हैं, नहीं तो मालूम होता। क्या तुम समझते हो कि मैं गहने और सायों पर मरती हूं? इन चीजों को लौटा आओ।
रमा ने प्रेमपूर्ण नेत्रों से कहा इन चीजों को रख लो। फिर तुमसे बिना पूछे कुछ न लाऊंगा। संध्या समय जब जालपा ने नई साड़ी और नए जूते पहने, घड़ी कलाई पर बांधी और आईने में अपनी सूरत देखी, तो मारे गर्व और उल्लास के उसकी मुखमंडल प्रज्वलित हो उठा। उसने उन चीजों के लौटाने के लिए सच्चे दिल से कहा हो, पर इस समय वह इतना त्याग करने को तैयार न थी। संध्या समय जालपा और रमा छावनी की ओर चले। महिला ने केवल बंगले का नंबर बतला दिया था। बंगला आसानी से मिल गया। फाटक पर साइनबोर्ड था-' इन्दुभूषण, ऐडवोकेट, हाईकोर्ट।' अब रमा को मालूम हुआ कि वह महिला पं० इन्दुभूषण की पत्नी थी। पंडितजी काशी के नामी वकील थे। रमा ने उन्हें कितनी ही बार देखा था, पर इतने बड़े आदमी से परिचय का सौभाग्य उसे कैसे होता । छ: महीने पहले वह कल्पना भी न कर सकता था, कि किसी दिन उसे उनके घर निमंत्रित होने का गौरव प्राप्त होगा; पर जालपा की बदौलत आज वह अनहोनी बात हो गई। वह काशी के बड़े वकील का मेहमान था।
रमा ने सोचा था कि बहुत से स्त्री-पुरुष निमंत्रित होगे, पर यहां वकील साहब और उनकी पत्नी रतन के सिवा और कोई न था। रतन इन दोनों को देखते ही बरामदे में निकल आई और उनसे हाथ मिलाकर अंदर ले गई और अपने पति से उनका परिचय कराया। पंडितजी ने आरामकुर्सी पर लेटे-ही-लेटे दोनों मेहमानों से हाथ मिलाया और मुस्कराकर कहा–क्षमा कीजिएगा बाबू साहब, मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। आप यहां किसी आफिस में हैं।
रमा ने झेंपते हुए कहा-जी हां, म्युनिसिपल आफिस में हूं। अभी हाल ही में आया है। कानून की तरफ जाने का इरादा था, पर नए वकीलों की यहां जो हालत हो रही है, उसे देखकर हिम्मत न पड़ी।
रमा ने अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए जरा-सा झूठ बोलना अनुचित न समझा। इसका असर बहुत अच्छा हुआ। अगर वह साफ कह देता, मैं पच्चीस रुपये का क्लर्क हूँ, तो शायद वकील साहब उससे बातें करने में अपना अपमान समझते। बोले-अपने बहुत अच्छा किया जो इधर नहीं आए। वहां दो-चार साल के बाद अच्छी जगह पर पहुंच जाएंगे, यह संभव है दस साल तक आपको कोई मुकदमा ही न मिलता।
जालपा को अभी तक संदेह हो रहा था कि इतने वकील साहब की बेटी है या पत्नी। वकील साहब की उम्र साठ से नीचे न थी। चिकनी चांद आस-पास के सफेद बालों के बीच में वारनिश की हुई लकड़ी की भांति चमक रही थी। मूछें साफ थीं, पर माथे की शिकन और गालों की झुर्रियां बतला रही थीं कि यात्री संसार-यात्रा से थक गया है। आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह ऐसे मालूम होते थे, जैसे बरसों के मरीज हों ! हां, रंग गोरा था, जो साठ साल की गर्मी-सर्दी खाने पर भी उड़ न सका था। ऊंची नाक थी, ऊंचा माथा और बड़ी-बड़ी आंखें, जिनमें अभिमान भरा हुआ था। उनके मुख से ऐसा भासित होता था कि उन्हें किसी से बोलना या किसी बात का जवाब देना भी अच्छा नहीं लगता। इसके प्रतिकूल सांवली, सुगठित युवती थी, बड़ी मिलनसार, जिसे गर्व ने छुआ तक न था। सौंदर्य का उसके रूप में कोई लक्षण न था। नाक चिपटी थी, मुख गोल, आंखें छोटी, फिर भी वह रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूर्यमूखी के सामने जूही का फूल।
चाय आई। मेवे, फल, मिठाई, बर्फ की कुल्फी, सब मेजों पर सजा दिए गए। रतन और जालपा एक मेज पर बैठीं। दूसरी मेज रमा और वकील साहब की थी। रमा मेज के सामने जा
बैठा, मगर वकील साहब अभी आरामकुर्सी पर लेटे ही हुए थे।
रमा ने मुस्कराकर वकील साहब से कहा-आप भी तो आएं।
वकील साहब ने लेटे-लेटे मुस्कराकर कहा-आप शुरू कीजिए, मैं भी आया जाता हूँ।
लोगों ने चाय पी फल खाए: पर वकील साहब के सामने हंसते-बोलते रमा और जालपा दोनों ही झिझकते थे। जिंदादिल बूढ़ों के साथ तो सोहबत का आनंद उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसे रूखे, निर्जीव मनुष्य जवान भी हों, तो दूसरों को मुर्दा बना देते हैं। वकील साहब ने बहुत आग्रह करने पर दो घूंट चाय पी। दूर से बैठे तमाशा देखते रहे। इसलिए जब रतन ने जालपा से कहा-चलो, हम लोग जरा बगीचे की सैर करें, इन दोनों महाशयों को समाज और नीति की विवेचना करने दें, तो मानो जालपा के गले का फंदा छूट गया। रमा ने पिंजड़े में बंद पक्षी की भांति उन दोनों को कमरे से निकलते देखा और एक लंबी सास ली। वह जानता कि यहां यह विपत्ति उसके सिर पड़ जायगी, तो आने का नाम न लेता।
वकील साहब ने मुंह सिकोड़कर पहलू बदला और बोले-मालूम नहीं, पेट में क्या हो गया है, कि कोई चीज हजम ही नहीं होती। दूध भी नहीं हजम होता। चाय को लोग न जाने क्यों इनने शौक से पोते हैं, मुझे तो इसकी सूरत से भी डर लगता है। पीते ही बदन में ऐंठन-सी होने लगती है और आंखों से चिनगारियां-सी निकलने लगती हैं।
रमा ने दर भाग्ने हाजमे की कोई दवा नहीं की?
वकील साहब ने अरुचि के भाव से कहा-देवाओं पर मुझे रत्ती भर भी विश्वास नहीं। इन वैद्यों और डाक्टरों में ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न मिलेंगे। किसी में निदान की शक्ति नहीं। दो वैद्यों, दो डाक्टरों के निदान कभी न मिलेंगे। लक्षण वही हैं, पर एक वैद्य रक्तदोष बतलाता हैं, दूम्परा पित्तदोष, एक डाक्टर फेफड़े का सून बतलाता हैं, दूसरा आमाशय का विकार। बस, अनमान में दवा की जाती है और निर्दयता से रोगियों को गर्दन पर छुरी फेरी जाती हैं। इन डाक्टरों ने मुझे तो अब तक जहन्नुम पहुंचा दिया होता, पर मैं उनके पंजे से निकल भागा। योगाभ्यास की बड़ी प्रशंसा सुनता हूं पर कोई ऐसे महाना नहीं मिलते, जिनसे कुछ सीख सकूं। किताबों के आधार पर कोई क्रिया करने से लाभ के बदले न होने का डर रहता। यहां तो आरोग्य-शास्त्र का खंडन हो रहा था, उधर दोनों महिलाओं में प्रगाढ़ स्नेह की बातें हो रही थी।
रतन ने मुस्कराकर कहा- मेरे पतिदेव को देखकर तुम्हें बड़ा आश्चर्य हुआ होगा।
जालपा को आश्चर्य ही नहीं, भम्र भी हुआ था। बोली-वकील साहब का दूसरा विवाह होगा।
रतन-हां, अभी पांच ही बरस तो हुए हैं। इनकी पहली स्त्री को मरे पैंतीस वर्ष हो गए।
उस समय इनकी अवस्था कुल पच्चीस साल की थी। लोगों ने समझाना, दूसरा विवाह कर लो; पर इनके एक लड़का हो चुका था, विवाह करने से इंकार कर दिया और तीस साल तक अकेले
रहे, मगर आज पांच वर्ष हुए, जवान बेटे का देहांत हो गया, तब विवाह करना आवश्यक हो गया। मेरे मां-बाप न थे। मामाजी ने मेरा पालन किया था। कह नहीं सकती, इनसे कुछ ले लिया
या इनकी सज्जनता पर मुग्ध हो गए। मैं तो समझती हूं, ईश्वर की यही इच्छा थी, लेकिन मैं जब से आई हूं, मोटी होती चली जाती हूं। डॉक्टरों का कहना है कि तुम्हें संतान नहीं हो सकती।
बहन, मुझे तो संतान की लालसा नहीं है, लेकिन मेरे पति मेरी दशा देखकर बहुत दुखी रहते हैं। मैं ही इनके सब रोगों की जड़ हूं। आज ईश्वर मुझे एक संतान दे दे, तो इनके सारे रोग भाग जाएंगे। कितना चाहती हूं कि दुबली हो जाऊं, गरम पानी से टब-स्नान करती हूं, रोज पैदल घूमने जाती हूं, घी-दूध कम खाती हूं, भोजन आधा कर दिया है, जितना परिश्रम करते बनता है; करती हूं, फिर भी दिन-दिन मोटी ही होती जाती हूं। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करूं?
जालपा-वकील साहब तुमसे चिढ़ते होंगे?
रतन-नहीं बहन, बिल्कुल नहीं, भूलकर भी कभी मुझसे इसकी चर्चा नहीं की। उनके मुंह से कभी एक शब्द भी ऐसा नहीं निकला, जिससे उनकी मनोव्यथा प्रकट होती, पर मैं जानती हूं, यह चिंता उन्हें मारे डालती है। अपना कोई बस नहीं है। क्या करूं। मैं जितना चाहूं, खर्च करूं, जैसे चाहूं रहूं, कभी नहीं बोलते। जो कुछ पाते हैं, लाकर मेरे हाथ पर रख देते हैं। समझाती हूँ, अब तुम्हें वकालत करने की क्या जरूरत है, आराम क्यों नहीं करते, पर इनसे घरपर बैठे रहा नहीं जाता। केवल दो चपातियों से नाता है। बहुत जिद की तो दो-चार दाने अंगूर खा लिए। मुझे तो उन पर दया आती हैं, अपने से जहां तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं। आखिर वह मेरे ही लिए तो अपनी जान खपा रहे हैं।
जालपा–ऐसे पुरुष को देवता समझना चाहिए। यहां तो एक स्त्री मरी नहीं कि दूसरा ब्याह रच गया। तीस साल अकेले रहना सबका काम नहीं है।
रतन–हां बहन, हैं तो देवता ही। अब भी कभी उस स्त्री की चर्चा आ जाती हैं, तो रोने लगते हैं। तुम्हें उनकी तस्वीर दिखाऊंगी। देखने में जितने कठोर मालुम होते हैं, भीतर से इनका हृदय उतना ही नरम है। कितने ही अनाथों, विधवाओं और गरीबों के महीने बांध रक्खे हैं। तुम्हारा वह कंगन तो बड़ा सुंदर है ।
जालपा–हां, बड़े अच्छे कारीगर का बनाया हुआ है।
रतन-मैं तो यहां किसी को जानती ही नहीं। वकील साहब को गहनों के लिए कष्ट देने की इच्छा नहीं होती। मामूली सुनारों से बनवाते डर लगता है, न जाने क्या मिला दें। मेरी सपत्नीजी के सब गहने रक्खे हुए हैं, लेकिन वह मुझे अच्छे नहीं लगते। तुम बाबू रमानाथ से मेरे लिए ऐसा ही एक जोड़ी कंगन बनवा दो।
जालपा-देखिए, पूछती हूं।
रतन-आज तुम्हारे आने से जी बहुत खुश हुआ। दिनभर अकेली पड़ी रहती है। जी घबड़ाया करता है। किसके पास जाऊं? किसी से परिचय नहीं और न मेरा मन ही चाहता है कि उनसे मैत्री करूं। दो-एक महिलाओं को बुलाया, उनके घर गई, चाहा कि उनसे बहनापा जोड़ लूं, लेकिन उनके आचार-विचार देखकर उनसे दूर रहना ही अच्छा मालूम हुआ। दोनों ही मुझे उल्लू बनाकर जटना चाहती थीं। मुझसे रुपये उधार ले गई और आज तक दे रही हैं। श्रृंगार की चीजों पर मैंने उनका इतना प्रेम देखा, कि कहते लज्जा आती है। तुम घड़ी-आध- घड़ी के लिए रोज चली आया करो बहन।
जालपा-वाह इससे अच्छा और क्या होगा।
रतन-मैं मोटर भेज दिया करूंगी।
जालपा-क्या जरूरत है। तांगे तो मिलते ही हैं।
रतन- न जाने क्यों तुम्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता। तुम्हें पाकर रमानाथजी अपनी
भाग्य सराहते होंगे।
जालपा ने मुस्कराकर कहा-भाग्य-वाग्य तो कुछ नहीं सराहते, घुड़कियां जमाया करते
रतन–सच। मुझे तो विश्वास नहीं आता। लो, वह भी तो आ गए। पूछना, ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंगे।
जालपा-(रमा से) क्यों चरनदास से कहा जाए तो ऐसा कंगन कितने दिन में बना देगा । रतन ऐसा ही कंगन बनवाना चाहती हैं।
रमा ने तत्परता से कहा- हां, बना क्यों नहीं सकता। इससे बहुत अच्छे बना सकता है।
रतन-इस जोड़े के क्या लिए थे?
जालपा-आठ सौ के थे।
रतन-कोई हरज नहीं, मगर बिल्कुल ऐसा ही हो, इसी नमूने का।
रमा-हां-हां, बनवा दूंगा।
रतन-मगर भाई, अभी मेरे पास रुपये नहीं हैं।
रुपये के मामले में पुरुष महिलाओं के सामने कुछ नहीं कह सकता। क्या वह कह सकता है, इस वक्त मेरे पास रुपये नहीं हैं। वह मर जाएगा, पर यह उज्र न करेगा। वह कर्ज लेगा, दूसरीं शामद करेगा; पर स्त्री के सामने अपनी मजबूरी न दिखाएगा। रुपये की चर्चा को ही वह तुच्छ समझता है। जालपा पति की आर्थिक दशा अच्छी तरह जानती थी। पर यदि रमा ने इस समय कोई बहाना कर दिया होता, तो उसे बहुत बुरा मालूम होता। वह मन में डर रही थी कि कहीं यह महाशय यह न कह बैठें, सर्राफ से पूछकर कहूंगा। उसका दिल धड़क रहा था, जब रमा ने वीरता के साथ कहा-हां-हां, रुपये की कोई बात नहीं, जब चाहे दे दीजिएगा, तो वह खुश हो गई।
रतन-तो कब तक आशा करूं?
रमानाथ-मैं आज हो सर्राफ से कह दूंगा, तब भी पंद्रह दिन तो लग हो जाएंगे।
जालपा-अब की रविवार को मेरे ही घर चाय पीजिएगा।
रतन ने निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया और दोनों आदमी विदा हुए।
घर पहुंचे, तो शाम हो गई थी। रमेश बाबू बैठे हुए थे। जालपा तो तांगे से उतरकर अंदर चली गई, रमा रमेश बाबू के पास जाकर बोला—क्या आपको आए देर हुई?
रमेश–नहीं, अभी तो चला आ रहा हूं। क्या वकील साहब के यहां गए थे?
रमा–जी हां, तीन रुपये की चपत पड़ गई।
रमेश-कोई हरज नहीं, यह रुपये वसूल हो जाएंगे। बड़े आदमियों से राह-रस्म हो जाय तो बुरा नहीं है, बड़े-बड़े काम निकलते हैं। एक दिन उन लोगों को भी तो बुलाओ।
रमा-अबकी इतवार को चाय की दावत दे आया हूं।
रमेश-कहो तो मैं भी आ जाऊं। जानते हो न वकील साहब के एक भाई इंजीनियर हैं।
मेरे एक साले बहुत दिनों से बेकार बैठे हैं। अगर वकील साहब उसकी सिफारिश कर दें, तो गरीब को जगह मिल जाय। तुम जरा मेरा इंट्रोडक्शन करा देना, बाकी और सब मैं कर दूंगा।
पार्टी का इंतजाम ईश्वर ने चाहा, तो ऐसा होगा कि मेमसाहब खुश हो जाएंगी। चाय के सेट, शीशे के रंगीन गुलदान और फानूस मैं ला दूंगा! कुर्सियां, मेजें, फर्श सब मेरे ऊपर छोड़ दो। न
कुली की जरूरत, न मजूर की। उन्हीं मूसलचंद को रगेदूंगा।
रमानाथ-तब तो बड़ा मजा रहेगा। मैं तो बड़ी चिंता में पड़ा हुआ था।
रमेश-चिंता की कोई बात नहीं, उसी लौंडे को जोत दूंगा। कहूंगा, जगह चाहते हो तो कारगुजारी दिखाओ। फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करती है।
रमानाथ-अभी दो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहीं नौकर रखा चुके हैं न?
रमेश-अजी, अभी छ: और बाकी हैं। पूरे सात जीव हैं। जरा बैठ जाओ, जरूरी चीजों का सूची बना ली जाए। आज ही से दौड़-धूप होगी, तब सब चीजें जुटा सकूगा। और कितने मेहमान होंगे?
रमानाथ-मेम साहब होंगी, और शायद वकील साहब भी आए।
रमेश—यह बहुत अच्छा किया। बहुत-से आदमी हो जाते, तो भभड़ हो जाता। हमें तो मेम साहब से काम है। ठलुओं की खुशामद करने से क्या फायदा?
दोनों आदमियों ने सूची तैयार की। रमेश बाबू ने दूसरे ही दिन से सामान जमा करना शुरू किया। उनकी पहुंच अच्छे-अच्छे घरों में थी। सजावट की अच्छी-अच्छी चीजें बटोर नाए, सारा घर जगमगा उठा। दयानाथ भी इन तैयारियों में शरीक थे। चीजों को करीने से सजाना उनका काम था। कौन गमला कहां रखा जाय, कौन तस्वीर कहीं लटकाई जाये, कौन-सा गलीचा कहां बिछाया जाय, इन प्रश्नों पर तीनों मनुष्यों में घंटों वाद-विवाद होता था। दफ्तर जाने के पहले और दफ्तर से आने के बाद तीनों इन्हीं कामों में जुट जाते थे। एक दिन इस बात पर बहस छिड़ गई कि कमरे में आईना कहां रखा जाय। दयानाथ कहते थे, इस कमरे में आईने की जरूरत नहीं। आईना पीछे वाले कमरे में रखना चाहिए। रमेश इसका विरोध कर रहे थे। रमा दुविधे में चुपचाप खड़ा था। न इनकी-मी कह सकता था, न उनकी-सी।
दयानाथ-मैने सैकड़ों अंगरेजों के ड्राइंग-रूम देखे हैं, कहीं आईना नहीं देखा। आईना श्रृंगार के कमरे में रहना चाहिए। यहां आईना रखना बेतुकी-सी बात है।
रमेश-मुझे सैकड़ों अंगरेजों के कमरों को देखने का अवसर तो नहीं मिला है, लेकिन दो-चार जरूर देखे हैं और उनमें आईना लगा हुआ देखा। फिर क्या यह जरूरी बात है कि इन जरा-जरा-सी बातों में भी हम अंगरेजों की नकल करें? हम अंगरेज नहीं, हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमकद आईने रक्खे जाते हैं। यह तो आपने हमारे बिगड़े हुए बाबुओं की-सी बात कही, जो पहनावे में, कमरे की सजावट में, बोली में, चाय और शराब में, चीनी की प्यालयों में-गरज दिखावे की सभी बातों में तो अंगरजों का मुंह चिढ़ाते हैं; लेकिन जिन बातों ने अंगरेजों को अंगरेज बना दिया है, और जिनकी बदौलत वे दुनिया पर राज करते हैं, उनकी हवा तक नहीं छू जाती। क्या आपको भी बुढ़ापे में, अंगरेज बनने का शौक चर्राया है?
दयानाथ अंगरेजों की नकल को बहुत बुरा समझते थे। यह चाय-पार्टी भी उन्हें बुरी मालूम हो रही थी। अगर कुछ संतोष था, तो यही कि दो-चार बड़े आदमियों से परिचय हो जायेगा। उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी कोट नहीं पहना था। चाय पीते थे; मगर चीनी के सेट की कैद न थी। कटोरा-कटोरी, गिलास, लोटा-तसला किसी से भी उन्हें आपत्ति न थी, लेकिन इस वक्त उन्हें अपना पक्ष निभाने की पड़ी थी। बोले-हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में मेजें-कुर्सियां नहीं होतीं, फर्श होता है। आपने कुर्सी-मेज लगाकर इसे अंगरेजी ढंग पर तो बना दिया,
अब आईने के लिए हिन्दुस्तानियों की मिसाल दे रहे हैं। या तो हिन्दुस्तानी रखिए या अंगरेजी। यह क्या कि आधा तीतर आधा बटेर। कोट-पतलून पर चौगोशिया टोपी तो नहीं अच्छी मालूम
होती !
रमेश बाबू ने समझा था कि दयानाथ की जबान बंद हो जायगी, लेकिन यह जवाब सुना तो चकराए। मैदान हाथ में जाता हुआ दिखाई दिया। बोले-तो आपने किसी अंगरेज के कमरे में आईना नहीं देखा? भला ऐसे दुस-पांच अंगरेजों के नाम तो बताइए? एक आपका वही किरंटा हेड क्लर्क है, उसके सिवा और किसी अंगरेज के कमरे में तो शायद अपने कदम भी ने रक्खा हो। उसी किरंटे को आपने अंगरेजी रुचि का आदर्श समझ लिया है खुब । मानता हूं।
दयानाथ-यह तो आपकी जबान है, उसे किरंटा, चमरशियन, पिलपिली जो चाहे कहें, लेकिन रंग को छोड़कर वह किसी बात में अंगरेजों से कम नहीं। और उसके पहले तो योरपियन था।
रमेश इसका कोई जवाब सोच ही रहे थे कि एक मोटरकार द्वार पर आकर रुकी, और रतनबाई उतरकर बरामदे में आई। तीनों आदमी चटपट बाहर निकल आए। रमा को इस वक्त रतन का आना बुरा मालूम हुआ। डर रहा था कि कहीं कमरे में भी न चली आए, नहीं तो सारी कलई खुल जाए। आगे बढ़कर हाथ मिलाता हुआ बोला-आइए, यह मेरे पिता हैं, और यह मेरे दोस्त रमेश बाबू हैं लेकिन उन दोनों जनों ने हाथ बढ़ाया और न जगह से हिले। सकपकाए-से खड़े रहे। रतन भी उनसे हाथ मिलाने की जरूरत न समझी। दूर ही में उनको नमस्कार करके रमा से बोलीं-नहीं, बैठूंगी नहीं। इस वक्त फुर्सत नहीं है। आपसे कुछ कहना था।
यह कहते हुए वह रमा के साथ मोटर तक आई और आहिस्ता से बोली-अपने सर्राफ से कहे तो दिया होगा?
रमा ने नि:संकोच होका कहा- जी हां, बना रहा है।
रतन-उम दिन मैंने कहा था, अभी रुपये न दे सकें, पर मैंने समझा शायद अपको कष्ट हो, इसलिए रुपये मंगवा लिए। आठ सौ चाहिए न?
जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बताए थे। रमा चाहता तो इतने रु•ले सकता था। पर रतन की सरलता और विश्वास ने उसके हाथ पकड़ लिए। ऐसी उदार, निष्कपट रमणी के साथ वह विश्वासघात न कर सका। वह व्यापारियों से दो-दो, चार-चार आने लेते जरा भी न झिझकता था। वह जानता था कि वे सब भी गाहकों को उल्टे छुरे से मुंड़ते हैं। ऐसों के साथ ऐसा व्यवहार करते हुए उसकी आत्मा को लेशमात्र भी संकोच न होता था, लेकिन इस देवी के साथ यह कपट व्यवहार करने के लिए किसी पुराने पपी की जरूरत थी। कुछ सकुचाता हुआ बोला-क्या जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बतलाए थे? उसे शायद याद न रही होगी। उसके कंगन छ: सौ के हैं। आप चाहें तो आठ सौ का बनवा दें।
रतन-नहीं, मुझे तो वहीं पसंद है। आप छ: सौ का ही बनवाइए।
उसने मोटर पर से अपनी थैली उठाकर सौ-२५ रुपये के छ: नोट निकाले।
रमा ने कहा-ऐसी जल्दी क्या थी, चीज तैयार हो जाती, तब हिसाब हो जाता।
रतन-मेरे पास रुपये खर्च हो जाते। इसलिए मैंने सोचा, आपके सिर पर लाद आऊं। मेरी आदत है कि जो काम करती हैं, जल्द-से-जल्द कर डालती हूं। विलंब से मुझे उलझन होती है। यह कहकर वह मोटर पर बैठ गई, मोटर हवा हो गई। रमा संदूक में रुपये रखने के लिए अंदर चला गया, तो दोनों वृद्धजनों में बातें होने लगीं।
रमेश—देखा?
दयानाथ-जी हां, आंखें खुली हुई थीं। अब मेरे घर में भी वही हवा आ रही है। ईश्वर ही बचावे।
रमेश–बात तो ऐसी ही है, पर आजकल ऐसी ही औरतों का काम है। जरूरत पड़े, तो कुछ मदद तो कर सकती हैं। बीमार पड़ जाओ तो डाक्टर को तो बुला ला सकती हैं। यहां तो चाहे हम मर जाएं, तब भी क्या मजाल कि स्त्री घर से बाहर पांव निकाले।
दयानाथ-हमसे तो भाई, यह अंगरेजियत नहीं देखी जाती। क्या करें। संतान की ममता है, नहीं तो यही जी चाहता है कि रमा से साफ कह दूं, भैया अपना घर अलग लेकर रहो। आंख फूट, पीर गई। मुझे तो उन मर्दो पर क्रोध आता है, जो स्त्रियों को यों सिर चढ़ाते हैं। देख लेना, एक दिन यह औरत वकील साहब को दगा देगी।
रमेश-महाशय, इस बात में मैं तुमसे सहमत नहीं हूं। यह क्यों मान लेते हो कि जो औरत बाहर आती-जाती है, वह जरूर ही बिगड़ी हुई है? मगर रमा को मानती बहुत है। रुपये न जाने किसलिए दिए?
दयानाथ-मुझे तो इसमें कुछ गोलमाल मालूम होता है। रमा कहीं उससे कोई चाल न चल रहा हो?
इसी समय रमा भीतर से निकला आ रहा था। अंतिम वाक्य उसके कान में पड़ गया। भौंहें चढ़ाकर बोला—जी हां, जरूर चाल चल रहा हूं। उसे धोखा देकर रुपये ऐंठ रहा हूं। यही तो मेरा पेशा है।
दयानाथ ने झंपते हुए कहा-तो इतना बिगड़ते क्यों हो मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही?
रमानाथ-पक्का जातिया बना दिया और क्या कहते? आपके दिल में ऐसा शुबहा क्यों आया? आपने मुझमें ऐसी कौन-सी बात देखी, जिसमें आपको यह खयाल पैदा हुआ? में जरा साफ-सुथरे कपड़े पहनता हूं, जरा नई प्रथा के अनुसार चलता हूं, इसके सिवा आपने मुझमें कौन-सी बुराई देखी? मैं जो कुछ खर्च करता हूं, ईमान से कमाकर खर्च करता हूं। जिस दिन धोखे और फरेब की नौबत आएगी, जहर खाकर प्राण दे दूंगा। हां, यह बात है कि किसी को खर्च करने की तमीज होती है, किसी को नहीं होती। वह अपनी सुबुद्धि है; अगर इसे आप धोखेबाजी समझें, तो आपको अख्तियार है। जब आपकी तरफ से मेरे विषय में ऐसे संशय होने लगे, तो मेरे लिए यही अच्छा है कि मुंह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊं। रमेश बाबू यहां मौजूद हैं। आप इनसे मेरे विषय में जो कुछ चाहें, पूछ सकते हैं। यह मेरे खातिर झूठ न बोलेंगे।
सत्य के रंग में रंगी हुई इन बातों ने दयानाथ को आश्वस्त कर दिया। बोले—जिस दिन मुझे मालूम हो जायगी कि तुमने यह दंग अख्तियार किया है, उसके पहले मैं मुंह में कालिख लगाकर निकल जाऊंगा। तुम्हारा बढ़ता हुआ खर्च देखकर मेरे मन में संदेह हुआ था, मैं इसे छिपाता नहीं हूं, लेकिन जब तुम कह रहे हो तुम्हारी नीयत साफ है, तो मैं संतुष्ट हूं। मैं केवल इतना ही चाहता हूं कि मेरा लड़का चाहे गरीब रहे, पर नीयत न बिगाड़े। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह तुम्हें सत्पथ पर रखे। रमेश ने मुस्कराकर कहा-अच्छा, यह किस्सा तो हो चुका, अब यह बताओ, उसने तुम्हें रुपये किसलिए दिए । मैं गिन रहा था, छ: नोट थे, शायद सौ-सौ के थे।
रमानाथ-ठगे लाया हूँ।
रमेश-मुझसे शरारत करोगे तो मार बैठूंगा। अगर जट ही लाए हो, तो भी मैं तुम्हारी पीठ ठोकूंगा, जीने रहो। खूब जटो, लेकिन आबरू पर आंच न आने पाए। किसी को कानोंकान खबर न हो। ईश्वर से तो मैं डरता नहीं। वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लूंगा, मगर आदमी से डरता हूं। सच बताओ, किसलिए रुपये दिए ? कुछ दलाली मिलने वाली हो तो मुझे भी शरीक कर लेना।
रमानाथ-जड़ाऊ कगन बनवाने को कह गई हैं।
रमेश-तो चलो, मैं एक अच्छे सराफ से बनवा दें। यह झंझट तुमने बुरा मोल ले लिया। औरत का स्वभाव जानते नहीं। किसी पर विश्वास तो इन्हें आता ही नहीं। तुम चाहे दो-चार रुपये अपने पास ही से खर्च कर दो, पर वह यही समझेंगी कि मुझे लूट लिया। नेकनामी तो शायद ही मिले, हां, बदनामी तैयार खड़ी है।
रमानाथ-आप मूर्ख स्त्रियों की बातें कर रहे हैं। शिक्षित स्त्रियां ऐसी नहीं होतीं।
जरा देर बाद रमा अंदर जाकर जालपा से बोला-अभी तुम्हारी सहेली रतन आई थीं?
जालपा- सच! तब तो बड़ी गड़बड़ हुआ होगा। यहां कुछ तैयारी हो थी ही नहीं।
रमानाथ- कुशल यही हुई कि कमरे में नहीं आईं। कंगन के रुपये देने आई थीं। तुमने उनसे शायद आठ सौ रुपये बताए थे। मैंने छ सौ ले लिए।
जालपा ने झेंपते हए कहा-मैंने तो दिल्लगी की थी।
जालपा ने इस तरह अपनी सफाई तो दे दी, लेकिन बहुत देर तक उसके मन में उथल-पुथल होती रही। रमा ने अगर आठ सौ रुपये ले लिए होते, तो शायद उथल-पुथल न होती। वह अपनी सफलता पर खुश होती, पर रमा के विवेक ने उसकी धर्म-बुद्धि को जगा दिया था। वह पछता रही थी कि में व्यर्थ झूठ बोली। यह मुझे अपने मन में कितनी नीच समझ रहे होंगे। रतन भी मुझे कितनी बेईमान समझ रही होगी।
सोलह
चाय पार्टी में कोई विशेष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते को बहने और थी। वकील साहब न आए थे। दयानाथ ने उतनी देर के लिए घर से टल जाना ही उचित समझा। हां, रमेश बाबू बरामदे में बराबर खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा कि उन्हें भी पार्टी में शरीक कर लें, पर रमेश में इतना साहस न था।
जालपा ने दोनों मेहमानों को अपनी सास से मिलाया। ये युवतियां उन्हें कुछ ओछी जान पड़ीं। उनका सारे घर में दौड़ना, धम-धम करके कोठे पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, खिलखिलाकर हंसना, उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहू-बेटियों को भारी और लज्जाशील होना चाहिए था। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं में मिल गई थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तर्क न की।