प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/सोलह
रमेश ने मुस्कराकर कहा-अच्छा, यह किस्सा तो हो चुका, अब यह बताओ, उसने तुम्हें रुपये किसलिए दिए । मैं गिन रहा था, छ: नोट थे, शायद सौ-सौ के थे।
रमानाथ-ठगे लाया हूँ।
रमेश-मुझसे शरारत करोगे तो मार बैठूंगा। अगर जट ही लाए हो, तो भी मैं तुम्हारी पीठ ठोकूंगा, जीने रहो। खूब जटो, लेकिन आबरू पर आंच न आने पाए। किसी को कानोंकान खबर न हो। ईश्वर से तो मैं डरता नहीं। वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लूंगा, मगर आदमी से डरता हूं। सच बताओ, किसलिए रुपये दिए ? कुछ दलाली मिलने वाली हो तो मुझे भी शरीक कर लेना।
रमानाथ-जड़ाऊ कगन बनवाने को कह गई हैं।
रमेश-तो चलो, मैं एक अच्छे सराफ से बनवा दें। यह झंझट तुमने बुरा मोल ले लिया। औरत का स्वभाव जानते नहीं। किसी पर विश्वास तो इन्हें आता ही नहीं। तुम चाहे दो-चार रुपये अपने पास ही से खर्च कर दो, पर वह यही समझेंगी कि मुझे लूट लिया। नेकनामी तो शायद ही मिले, हां, बदनामी तैयार खड़ी है।
रमानाथ-आप मूर्ख स्त्रियों की बातें कर रहे हैं। शिक्षित स्त्रियां ऐसी नहीं होतीं।
जरा देर बाद रमा अंदर जाकर जालपा से बोला-अभी तुम्हारी सहेली रतन आई थीं?
जालपा- सच! तब तो बड़ी गड़बड़ हुआ होगा। यहां कुछ तैयारी हो थी ही नहीं।
रमानाथ- कुशल यही हुई कि कमरे में नहीं आईं। कंगन के रुपये देने आई थीं। तुमने उनसे शायद आठ सौ रुपये बताए थे। मैंने छ सौ ले लिए।
जालपा ने झेंपते हए कहा-मैंने तो दिल्लगी की थी।
जालपा ने इस तरह अपनी सफाई तो दे दी, लेकिन बहुत देर तक उसके मन में उथल-पुथल होती रही। रमा ने अगर आठ सौ रुपये ले लिए होते, तो शायद उथल-पुथल न होती। वह अपनी सफलता पर खुश होती, पर रमा के विवेक ने उसकी धर्म-बुद्धि को जगा दिया था। वह पछता रही थी कि में व्यर्थ झूठ बोली। यह मुझे अपने मन में कितनी नीच समझ रहे होंगे। रतन भी मुझे कितनी बेईमान समझ रही होगी।
सोलह
चाय पार्टी में कोई विशेष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते को बहने और थी। वकील साहब न आए थे। दयानाथ ने उतनी देर के लिए घर से टल जाना ही उचित समझा। हां, रमेश बाबू बरामदे में बराबर खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा कि उन्हें भी पार्टी में शरीक कर लें, पर रमेश में इतना साहस न था।
जालपा ने दोनों मेहमानों को अपनी सास से मिलाया। ये युवतियां उन्हें कुछ ओछी जान पड़ीं। उनका सारे घर में दौड़ना, धम-धम करके कोठे पर जाना, छत पर इधर-उधर उचकना, खिलखिलाकर हंसना, उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहू-बेटियों को भारी और लज्जाशील होना चाहिए था। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं में मिल गई थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तर्क न की। अभी तक रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुर्सत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान तक जाता। उसने समझा था, गंगू को छ: सौ रुपये दे दूंगा तो पिछले हिसाब में जमा हो जाएंगे। केवल ढाई सौ रुपये और रह जाएंगे। इस नये हिसाब में छ: सौ और मिलाकर फिर आठ सौ रह जाएंगे। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का सुअवसर मिल जायेगा।
दूसरे दिन रमा खुश होता हुआ गंगू की दुकान पर पहुंचा और रोब से बोला-क्या रंग ढंग है महाराज, कोई नई चीज बनवाई है इधर?
रमा के टालमटोल से गंगू इतना विरक्त हो रहा था कि आज कुछ रुपये मिलने की आशा भी उसे प्रसन्न न कर सकी। शिकायत के ढंग से बोला-बाबू साहब, चीजें कितनी बनीं और कितनी बिकीं। आपने तो दुकान पर आना ही छोड़ दिया। इस तरह की दुकानदारों हम लोग नहीं करते। आठ महीने हुए, आपके यहां से एक पैसा भी नहीं मिला।
रमानाथ-भाई, खाली हाथ दुकान पर आते शर्म आती है। हम उन लोगों में नहीं हैं, जिनसे तकाजा करना पड़े। आज यह छ: सौ रुपये जमा कर लो, और एक अच्छा-सा कंगन तैयार कर दो। गंगू ने रुपये लेकर संदूक में रखे और बोला-बन जाएंगे। बाकी रूपये कब तक मिलेंगे?
रमानाथ-बहुत जल्द।
गंगू–हां बाबूजी, अब पिछला साफ कर दीजिए।
गंगू ने बहुत जल्द कंगन बनवाने का वचन दिया, लेकिन एक बार मैदा करके उसे मालूम हो गया कि यहां से जल्द रुपये वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ कि रमा रोज नकाजी करता और गंगू रोज हीले करके टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता, कभी उसके लड़के बीमार हो जाते। एक महीना गुजर गया और कंगन न बने। रतन के काजों के डर में रमा ने पार्क जाना छोड़ दिया. मगर उसने घर तो देख ही रखा था। इस एक महीने में कई बार तकाजा करने आई। आखिर जब सावन का महीना आ गया तो उसने एक दिन रमा से कहा-यह सुअर नहीं बनाकर देता, तो तुम किसी गैर कारीगर को क्यों नहीं देते?
रमानाथ-उस पाजी ने ऐसा धोखा दिया कि कुछ न पूछो, बस हो आज कल किया करता है। मैंने बड़ी भूल की जो उसे पेशगी रुपये दे दिये। अब उससे रुपये निकलना मुश्किल है।
रतन-आप मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए. में उसके आप से वसूल कर लूंगी। नावान अलग। ऐसे बेईमान आदमी को पुलिस में देना चाहिए।
जालपा ने कहा-हां और क्या। कभी सुनार देर करते हैं, मगर ऐसा नहीं, रुपये डकारे जायं और चीज के लिए महीनों दौड़ाएं।
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-आप दस दिन और सब्र करें, मैं आज ही उससे रूपये लेकर किसी दूसरे सर्राफ को दे दूंगा।
रतन-आप मुझे उस बदमाश की दुकान क्यों नहीं दिखा देते। मैं हंटर से बात करूं।
रमानाथ–कहता तो हूँ। दस दिन के अंदर आपको कंगन मिल जाएगें।
रतन-आप खुद ही ढील डाले हुए हैं। आप उसकी लल्लो-चप्पो की बातों में आ जाते होंगे। एक बार कोड़े पड़ जातं, तो मजाल थी कि यो होले -हवाले करता । आख़िर रतन बड़ी मुश्किल से विदा हुई। उसी दिन शाम को गंगू ने साफ जवाब दे दिया-बिना आधे रुपये लिए कंगन न बन सकेंगे। पिछला हिसाब भी बेबाक हो जाना चाहिए।
रमा को मानो गोली लग गई। बोला–महाराज, यह तो भलमनसी नहीं है। एक महिला की चीज है, उन्होंने पेशगी रुपये दिए थे। सोचो, मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊंगा। मुझसे अपने रुपयों के लिए पुरनोट लिखा लो, स्टांप लिखा लो और क्या करोगे?
गंग-पुरनोट को शहद लगाकर चाटुंगा क्या? आत- आठ महीने का उधार नहीं होता। महीना, दो महीना बहुत है। आप तो बड़े आदमी हैं, आपके लिए पांच-छ: सौ रुपये कौन बड़ी बात है। कंगन तैयार हैं।
रमा ने दांत पीसकर कहा-अगर यही बात थी तो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दी? अब तक मैंने रुपये की कोई फिक्र की होती न ।
गंगू-मैं क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझ रहे हैं।
रमा निराश होकर घर लौटा आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह दिया होता तो उसे चाहे कितना ही दु:ख होता, पर वह कंगन उतारकर दे देती; लेकिन रमा में इतना साहस न था। वह अपनी आर्थिक कठिनाइयां की दशा कहकर उसके कोमल हृदय पर आघात न कर सकता था।
इस संदेह नहीं कि रमा को सौ रुपये के करीब ऊपर से मिल जाते थे, और वह किफायत करना जानता तो इन आठ महीनों में दोनों सर्राफों के कम-से-कम आधे रुपये अवश्य दे देता; लेकिन ऊपर की आमदनी थी तो ऊपर का खर्च भी था। जो कुछ मिलता था, सैर-सपाटे में खर्च हो जाता और सर्राफों का देना किसी एकमुश्त रकम की आशा में रुका हुआ था। कौड़ियों से रुपये बनाना वणिककों का ही काम है। बाबू लोग तो रुपये को कौड़ियां हीं बनाते।
कुछ रात जाने पर रमा ने एक बार फिर सराफे का चक्कर लगाया। बहुत चाहा, किसी सराफ को झांसा दें पर कहीं दाल न गली। बाजार में बेतार की खबरें चला करती हैं।
रमा को रातभर नींद न आई। यदि आज उसे एक हजार का रुपया लिखकर कोई पांच सौ रुपये भी दे देता तो वह निहाल हो जाता, पर अपनी जान-पहचान वालों में उसे ऐसा कोई नजर न आता था। अपने मिलने वालों में उसने सभी से अपनी हवा बांध रखी थी। खिलाने- पिलाने में खुले हाथों रुपया खर्च करता था। अब किस मुंह से अपनी विपत्ति कहे ? वह पछता रहा था कि नाहक गंगू को रुपये दिए। गंगू नालिश करने तो जाता न था। इस समय यदि रमा को कोई भयंकर रोग हो जाता तो वह उसका स्वागत करता। कम-से-कम दस-पांच दिन की मुहलत तो मिल जाती; मगर बुलाने से तो मौत भी नहीं आती । वह तो उसी समय आती है, जब हम उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं होते। ईश्वर कहीं से कोई तार ही भिजवा दे, कोई ऐसा मित्र भी नजर नहीं आता था, जो उसके नाम फर्जी तार भेज देता। वह इन्हीं चिंताओं में करवटें बदल रहा था कि जालपा की आंख खुल गई। रम ने तुरंत चादर से मुंह छिपा लिया, मानो बेखबर सो रहा है। जालपा ने धीरे से चादर हटाकर उसका मुंह देखा और उसे सोता पाकर ध्यान से उसका मुंह देखने लगी। जागरण और निद्रा का अंतर उससे छिपा न रहा। उसे धीरे से हिलाकर बोली-क्या अभी तक जा रहे हो?
रमानाथ-क्या जाने क्यों नींद नहीं आ रही है। पड़े-पड़े सोचता था, कुछ दिनों के लिए
कहीं बाहर चला जाऊं। कुछ रुपये कमा लाऊं।
जालपा–मुझे भी लेते चलोगे न?
रमानाथ-तुम्हें परदेश में कहां लिए-लिए फिरूंगा?
जालपा-तो मैं यहां अकेली रह चुकी। एक मिनट तो रहूंगी नहीं। मगर जाओगे कहां?
रमानाथ-अभी कुछ निश्चय नहीं कर सका हूं।
जालपा-तो क्या सचमुच तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे ? मुझसे तो एक दिन भी न रहा जाय। मैं समझ गई, तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करते। केवल मुंह-देखे की प्रीति करते हो।
रमानाथ तुम्हारे प्रेम-पाश ही ने मुझे यहां बांध रक्खा है। नहीं तो अब तक कभी चला गया होता।
जालपा–बातें बना रहे हो। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम होता, तो तुम कोई पर न रखते। तुम्हारे मन में जरूर कोई ऐसी बात है, जो तुम मुझसे छिपा रहे हो। कई दिनों से देख रही हैं, तम चिंता में डूबे रहते हो, मुझसे क्यों नहीं कहते। जहां विश्वास नहीं हैं, वहां प्रेम कैसे रह सकता है?
रमानाथ-यह तुम्हारा भ्रम है, जालपा मैंने तो तुमसे कभी परदा नहीं रखा।
जालपा-तो तुम मुझे सचमुच दिल से चाहते हो?
रमानाथ-यह क्या मुंह से कहूंगा जभी ।
जालपा–अच्छा, अब मैं एक प्रश्न करती हैं। संभले रहना। तुम मुझसे क्यों प्रेम करते हो । तुम्हें मेरी कसम है, सच बताना।
रमानाथ-यह तो तुमने बेढब प्रश्न किया। अगर मैं तुमसे यही प्रश्न पूछू तो तुम मुझे क्या जवाब दोगी?
जालपा-मैं तो जानती हूँ।
रमानाथ-बताओ।
जालपा-तुम बतला दो, मैं भी बतला दूं।
रमानाथ–मैं तो जानता ही नहीं। केवल इतना ही जानता हूं कि तुम मेरे रोम-रोम में रम रही हो।
जालपा-सोचकर बतलाओ। मैं आदर्श-पत्नी नहीं हूं, इसे मैं खूब जानती हूं। पति-सेवा अब तक मैंने नाम को भी नहीं की। ईश्वर की दया से तुम्हारे लिए अब तक कष्ट सहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। घर-गृहस्थी का कोई काम मुझे नहीं आता। जो कुछ सीखा, यहीं सीखा। फिर तुम्हें मुझसे क्यों प्रेम है? बातचीत में निपुण नहीं। रूप-रंग भी ऐसा आकर्षक नहीं। जानते हो, मैं तुमसे क्यों प्रश्न कर रही हूँ?
रमानाथ-क्या जाने भाई, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है।
जालपा-मैं इसलिए पूछ रही हूं कि तुम्हारे प्रेम को स्थायी बना सकूं।
रमानाथ-मैं कुछ नहीं जानता जालपा, ईमान से कहता हूं। तुममें कोई कमी है, कोई दोष है, यह बात आज तक मेरे ध्यान में नहीं आई, लेकिन तुमने मुझमें कौन-सी बात देखी? न मेरे पास धन है, न विद्या, न रूप है। बताओ?
जालपा-बता दें? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूं। अब तुमसे क्या छिपाऊं, जब मैं यहां आई तो यद्यपि तुम्हें अपना पति समझती थी, लेकिन कोई बात कहते या करते समय मुझे
चिंता होती थी कि तुम उसे पसंद करोगे या नहीं। यदि तुम्हारे बदले मेरा विवाह किसी दूसरे पुरुष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरुष का रिवाजी नाता है, पर अब मैं तुम्हें गोपियों के कृष्ण से भी न बदलूंगी। लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझसे किसी-किसी बात में परदा रखते हो।
रमानाथ-यह तुम्हारी केवल शंका है, जालपा ! मैं दोस्तों से भी कोई दुराव नहीं करता। फिर तुम तो मेरी हृदयेश्वरी हो।
जालपा–मेरी तरफ देखकर बोलो, आंखें नीची करना मर्दों का काम नहीं है।
रमा के जी में एक बार फिर आया कि अपनी कठिनाइयों की कथा कह सुनाऊं, लेकिन मिथ्या गौरव ने फिर उसकी जबान बंद कर दी।
जालपा जब उससे पूछती, सराफों को रुपये देते जाते हो या नहीं, तो वह बराबर कहता, हां कुछ-न-कुछ हर महीने देता जाता हूं, पर आज रमा की दुर्बलता ने जालपा के मन में एक संदेह पैदा कर दिया था। वह उसी संदेह को मिटाना चाहती थी। जरा देर बाद उसने पूछा–सराफों के तो अभी सब रुपये अदा न हुए होंगे?
रमानाथ-अब थोड़े ही बाकी हैं।
जालपा-कितने बाकी होंगे, कुछ हिसाब-किताब लिखते हो?
रमानाथ-लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे।
जालपा-तब तो पूरी गठरी है, तुमने कहीं रतन के रुपये तो नहीं दे दिए?
रमा दिल में कांप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आखिर उसने यह प्रश्न पूछ ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अंत हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ जातीं। संभव है, क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार कटु शब्द मुंह से निकालती, लेकिन फिर शांत हो जाती। दोनों मिलकर कोई-न-कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती, पर हाय रे आत्मगौरव |रमा ने यह बात सुनकर ऐसा मुंह बना लिया मान जालपा ने उस पर कोई निष्ठुर प्रहार किया हो। बोला-रतन के रुपये क्यों देता। आज चाहूं, तो दो-चार हजार का माल ला सकता हूं। कारीगरों की आदत देर करने की होती ही है। सुनार की खटाई मशहूर है। बस और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो चीज ही लाऊंगा या रुपये वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें क्यों हुई? पराई रकम भला मैं अपने खर्च में कैसे लाता।
जालपा-कुछ नहीं, मैंने यों ही पूछा था।
जालपा को थोड़ी देर में नींद आ गई, पर रमा फिर उसी उधेड़बुन में पड़ा। कहां से रुपये लाए। अगर वह रमेश बाबू से साफ-साफ कह दे तो वह किसी महाजन से रुपये दिला देंगे, लेकिन नहीं, वह उनसे किसी तरह न कह सकेगा। उसमें इतना साहस न था।
उसने प्रात:काल नाश्ता करके दफ्तर की राह ली। यद वहां कुछ प्रबंध हो जाए | कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास जाकर संतुष्ट हो जाता है पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा हूंगा या नहीं। यही दशी इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंकों की जांच करने लगा। कई दिनों से मीजान नहीं दिया गया था; पर बड़े बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे। अब मीजान दिया, तो ढाई हजार
निकले। एकाएक उसे एक बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मीजान दो हजार लिख दें। रसीद बही की जांच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ी भी गई तो कह दूंगा, मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से, कहीं चित्त चंचल न हो जाए, उसने पेंसिल के अंकों पर रोशनाई फेर दी, और रजिस्टर को दराज में बंद करके इधर-उधर घूमने लगा।
इक्की दुक्की गाड़ियां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं हैं, तो सोचा जल्दी से चुंगी देकर छुट्टी पर जायं। रमा ने इस कृपा के लिए दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की, और गाड़ीवानों ने शौक से दी क्योंकि यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था, मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बंद हो जाती थी, दूसरे दिन का इंतजार करना पड़ता था। अगर भाव रुपये में आधा पाव भी गिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गई। दस-पांच रुपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नई बात मालूम हुई। सोचा, आखिर सुबह को मैं घर ही पर बैठा रहता हूं। अगर यहां आकर बैठ जाऊं तो रोज दस-पांच रुपये हाथ आ जायं। फिर तो छ: महीने में यह सारा झगड़ा साफ हो जाय। मान लो रोज यह चांदी न होगी, पंद्रह न सही, दस मिलेंगे, पांच मिलेंगे। अगर मुबह को रोज पांच रुपये मिल जायं और इतने ही दिनभर में और मिल जाये, तो पांच-छ: महीने में मैं ऋण से मुक्त हो जाऊ। उसने दराज खोलकर फिर रजिस्टर निकाला। यह हिसाब लगा लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर-फेर कर देना उसे इतना भंयकर न जान पड़ा। नया रंगरूट जो पहले बंदूक की आवाज से चौंक पड़ता है, आगे चलकर गोलियों की वर्षा में भी नहीं घबड़ाता।
रमा दफ्तर बंद करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुंचा। रमा ने कहा, लौटकर चुंगी लूंगा। बिसाती ने मिन्नत करनी शुरू की। उमें कोई बड़ा जरूरी काम था। आखिर दस रुपये पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रुपये जेब में रक्खे और घर चला। पच्चीस रुपये केवल दो-ढाई घंटों में आ गए। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी खुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाजार से भी कुछ नहीं मंगवाया। रुपये भुनाते हुए उसे एक रुपया कम हो जाने का खयाल हुआ। वह शाम तक बैठा काम करता रहा। चार रुपये और वसूल हुए। चिराग जले वह घर 'चला, तो उसके मन पर से चिंता और निराशा का बहुत कुछ बोझ उतर चुका था। अगर दस दिन यही तेजी रही, तो रतन से मुंह चुराने की नौबत न आएगी।
सत्रह
नौ दिन गुजर गए। रमा रोज प्रात: दफ्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज यही आशा लेकर जाता कि आज कोई बड़ा शिकार फंस जाएगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले दिन की तरह फिर कभी भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी कि नौ दिनों में ही उसने सौ रुपये जमा कर लिए थे। उसने एक पैसे का पान