प्रेमसागर/ग्रंथकार की भूमिका

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[ भूमिका ]

ग्रंथकार की भूमिका

बिघन बिदारन बिरद बर बारन बदन बिकास।
बर दे बहु बाढ़ै बिसद बानी बुद्धि बिलास॥१॥
जुगल चरन जोवत जगत जपत रैन दिन तोहिं।
जगमाता सरस्वति सुमिरि युक्ति उक्ति दे मोहि।

एक समै व्यासदेच कृत श्रीमत भागवत के दसम स्कंध की कथा को चतुर्भुज मिश्र ने दोहे चौपाई में ब्रज भाषा किया, सो पाठशाला के लिए श्रीमहाराजाधिराज सकल-गुननिधान पुन्यवान महाजन मारक्विस वेलिजली गवरनर-जनरल प्रतापी के राज में

कबि पंडित मंडित किये नग भूषन पहिराय।
गाहि गोहि बिद्या सकल बस कीनी चित चाय॥२॥
दान रौर चहुँ चक्र में चढ़े कबिन के चित्त।
आवत पावत लाल मनि हय हाथी बहु वित्त॥४॥

औ श्रीयुत गुन-गाहक गुनियन-सुखदायक जान गिलकिरस्त महाशय की आज्ञा से संबत १८६०[१] में श्रीलल्लूजी लाल कबि ब्राह्मण गुजराती सहस्त्र-अवदीच आगरेवाले ने विंसका सार ले यामनी भाषा छोड़, दिल्ली आगरे की खड़ी बोली मे कह, नाम 'प्रेमसागर' धरा, पर श्रीयुत जान गिलकिरिस्त महाशय के जाने से [ ४२ ]
बना अधबना छपा अधछपा रह गया था, सो अब श्री महाराजेश्वर अति दयाल कृपाल यसस्वी तेजस्वी गिलबर्ट लार्ड मिंटो प्रतापवान के राज में ॐ श्री गुनवान२ सुखदान कृपा-निधान भगवान कपताने जान उलियम टेलर प्रतापी की आज्ञा से और श्रीयुत परम सुजान दयासागर परोपकारी डाकतर उलियम हंटर नक्षत्री की सहायता से और श्री निपटे प्रवीन दुययुत लिपटन अबराहाम लाकट रतीवंत के कहे से उसी कवि ने संवत् १८६६ में पूरी कर छपवाया, पाठशाला के विद्यार्थियों के पढ़ने को।

  1. १—(ख) में संवत् १८३० दिया है जो अशुद्ध है।