प्रेमसागर/१ अध्याय मुखबंध
प्रेमसागर
पहला अध्याय
अथ कथा आरंभ―महाभारत के अंत में जब श्रीकृष्ण अंतरध्यान हुए तब पांडव तो महा दुखी हो हस्तिनापुर का राज परीक्षित को दे हिमालय गलने गये और राजा परीक्षित सब देश जीत धर्मराज करने लगे।
कितने एक दिन पीछे एक दिन राजा परीक्षित आखेट को गये तो वहाँ देखा कि एक गाय और बैल दौड़े चले आते हैं, तिनके पीछे मूसल हाथ लिये, एक शूद्र मारता आता है। जब वे पास पहुँचे तब राजा ने शूद्र को बुलाय दुख पाय झुँझलायकर कहा―अरे तू कौन है, अपना बखान कर, जो मारता है गाय औ बैल को जानकर। क्या अर्जुन को तैंने दूर गया जाना तिससे उसका धर्म नहीं पहचाना। सुन, पंडु के कुल में ऐसा किसी को न पावेगा कि जिसके सोहीं कोई दीन को सतावेगा। इतना कह राजा ने खड़ग हाथ में लिया। वह देख डरकर खड़ा हुआ, फिर नरपति ने गाय और बैल को भी निकट बुलाके पूछा कि तुम कौन हो, मुझे बुझाकर कहो, देवता हौ कै ब्राह्मन और किस लिये भागे जाते हो, यह निधड़क कहो। मेरे रहते किसी की इतनी सामर्थ नहीं जो तुम्हें दुख दे।
इतनी बात सुनी तब तो बैल सिर झुका बोला―महाराज, यह पाप रूप काले बरन डरावनी मूरत जो आपके सनमुख खड़ा है सो कलियुग है, इसीके आने से मैं भागा जाता हूं। यह गाय सरूप पिरथी है सो भी इसीके डर से भाग चली है। मेरा नाम है धर्म, चार पाँव रखता हूँ—तप, सत, दया और सोच। सतयुग में मेरे चरन बीस बिस्वे थे, त्रेता में सोलह, द्वापर में बाहर, अब कलियुग में चार बिस्वे रहे, इसलिये कलि के बीच मैं चल नहीं सकता। धरती बोली-धर्माचतार, मुझसे भी इस युग में रहा नहीं जाता, क्योंकि शूद्र राजा हो अधिक अधर्म मेरे पर करेंगे, तिनका बोझ मैं न सह सकूँगी इस भय से मैं भी भागती हूँ। यह सुनतेही राजा ने क्रोध कर कलियुग से कहा—मैं तुझे अभी मारता हूँ। वह घबरा राजा के चरनों पै गिर गिड़गिड़ाकर कहने लगा—पृथ्वीनाथ, अब तो मैं तुम्हारी सरन आया मुझे कहीं रहने को ठौर बताइये, क्योंकि तीन काल और चारों युग जो ब्रह्मा ने बनाये हैं सो किसी भाँति मेटे न मिटेंगे । इतना बचन सुनते ही राजा परीक्षित ने कलियुग से कहा कि तुम इतनी ठौर रहो—जुए, झूठ, मद की हाट, बेस्या के घर, हत्या, चोरी और सोने में। यह सुन कलि ने तो अपने स्थान को प्रस्थान किया और राजा ने धर्म को मन में रख लिया। पिरथी अपने रूप में मिल गई। राजा फिर नगर में आये और धर्मराज करने लगे।
कितने एक दिन बीते राजा फिर एक समै आखेट को गये औ खेलते खेलते प्यासे भये, सिर के मुकुट में तो कलियुग रहता ही था, विसने अपना औसर पा राजा को अज्ञान किया। राजा प्यास के मारे कहाँ आते हैं कि जहाँ लोमस ऋषि आसन मारे नैन मूँदे हरि को ध्यान लगाये तप कर रहे थे। जिन्हें देख परीक्षित मन में कहने लगा कि यह अपने तप के घमंड से मुझे देख आँख मूँद रहा है। ऐसी कुमति ठानि एक मरा साँप वहाँ पड़ा था सो धनुष से उठा ऋषि के गले में डाल अपने घर आया। मुकुट उतारते ही राजा को ज्ञान हुआ तो सोचकर कहने लगा कि कंचन में कलियुग का बास है यह मेरे सीस पर था इसीसे मेरी ऐसी कुमति हुई जो मरा सर्प ले ऋषि के गले में डाल दिया, सो मै अब समझा कि कलियुग ने मुझसे अपना पलटा लिया। इस महापाप से मैं कैसे छूटूँगा, बरन धन जन स्त्री और राज, मेरा क्यों न गया सब आज, न जानूँ किस जन्म में यह अधर्म जायगा जो मैंने ब्राह्मन को सताया है।
राजा परीक्षित तो यहाँ इस अथाह सोचसागर में डूब रहे थे और वहाँ लोमस ऋषि थे तहाँ कितने एक लड़के खेलते हुए जा निकले, मरा साँप उनके गले में देख अचंभे रहे और घबराकर आपस में कहने लगे कि भाई, कोई इनके पुत्र से जाके कह दे जो उपबन में कौशिकी नदी के तीर ऋषियों के बालकों मे खेलता है। एक सुनते ही दौड़ा वहीं गया जहाँ शृंगी ऋषि छोकरों के साथ खेलता था। कहा—बंधु, तुम यहाँ क्या खेलते हो, कोई दुष्ट मरा हुआ काला नाग तुम्हारे पिता के कंठ में डाल गया है। सुनते ही शृंगी ऋषि के नैन लाल हो आये, दाँत पीस पीस लगा थरथर काँपने और क्रोध कर कहने कि कलियुग में राजा उपजे हैं अभिमानी धन के मद से अंधे हो गये हैं दुखदानी।
अब मैं उसको दूहूँ श्राप, वही मीच पावैगा आप।
ऐसे कह शृंगी ऋषि ने कौशिकी नदी का जल चुल्लू में ले, राजा परीक्षित को श्राप दिया कि वही सर्प सातवें दिन तुझे डसेगा।
इस भाँति राजा को सराप अपने बाप के पास आ गले से साँप निकाल कहने लगा—हे पिता, तुम अपनी देह सँभालो मैंने उसे श्राप दिया है जिसने आपके गले में मरा सर्प डाला था। यह बचन सुनते ही लोमस ऋषि ने चैतन्य हो नैन उघाड़ अपने ज्ञान ध्यान से विचारकर कहा—अरे पुत्र, तूने यह क्या किया, क्यों सराप राजा को दिया, जिसके राज में थे हम सुखी कोई पशु पंछी भी न था दुखी, ऐसा धर्मराज था जिसमें सिंह गाय एक साथ रहते और आपस में कुछ न कहते। अरे पुत्र, जिनके देस में हम बसे, क्या हुआ तिनके हँसे। मरा हुआ साँप डाला था उसे श्राप क्यों दिया।
तनक दोष पर ऐसा श्राप, तैंने किया बड़ा ही पाप।
कुछ विचार मन में नहीं किया, गुन छोड़ा औगुन ही लिया
साधु को चाहिये सील सुभाव से रहे, आप कुछ न कहे, और की सुन ले, सबका गुन ले ले औगुन तज दे। इतना कह लोमस ऋषि ने एक चेले को बुलाके कहा—तुम राजा परीक्षित को जाके जता दो जो तुम्हें शृंगी ऋषि ने श्राप दिया है, भला लोग तो दोष देहींगे पर वह सुन सावधान तो हो। इतना बचन गुरू का मान चेला चला चला वहाँ आया जहाँ राजा बैठा सोच करता था। आते ही कहा—महाराज, तुम्हें शृंगी ऋषि ने यह श्राप दिया है कि सातवें दिन तक्षक डसेगा। अब तुम अपना कारज करो जिससे कर्म की फाँसी से छूटो। सुनते ही राजा प्रसन्नता से खड़ा हो हाथ जोड़ कहने लगा कि मुझ पर ऋषि ने बड़ी कृपा की जो श्राप दिया, क्योंकि मैं माया मोह के अपार सोचसागर में पड़ा था, सो निकाल बाहर किया। जब मुनि का शिष्य बिदा हुआ तब राजा ने आप तो बैराग लिया और जनमेजय को बुलाय राज पाट देकर कहा—बेटा, गौ ब्राह्मन की रक्षा कीजो औ प्रजा को सुख दीजो। इतनी कह आये रनवास, देखी नारी सबी उदास।
राजा को देखते ही रानियां पाँओ पर गिर रो रो कहने लगीं—महाराज, तुम्हारा बियोग हम अबला न सह सकेंगी, इससे तुम्हारे साथ जी दें तो भला। राजा बोले—सुनो, स्त्री को उचित है जिसमें अपने पति का धर्म रहे सो करे, उत्तम काज में बाधा न डाले।
इतना कह धन जन कुटुंब औ राज की माया तज निरमोही हो अपना जोग साधने को गंगा के तीर पर जा बैठा। इसको जिसने सुना वह हाय हाय कर पछताय पछताय बिन रोये न रहा, और यह समाचार जब मुनियों ने सुना कि राजा परीक्षित शृंगी ऋषी के श्राप से मरने को गंगा तीर पर आ बैठा है तब ब्यास, वशिष्ठ, भरद्वाज, कात्यायन, परासर, नारद, विश्वामित्र, वामदेव, जमदग्नि आदि अट्ठासी सहस्र ऋषि आए और आसन बिछाय बिछाय पाँत पाँत बैठ गये। अपने अपने शास्त्र विचार विचार अनेक अनेक भांति के धर्म राजा को सुनाने लगे, कि इतने में राजा की श्रद्धा देख, पोथी काँख में लिये दिगंबर भेष, श्रीशुखदेवजी भी आन पहुँचे। उनको देखते ही जितने मुनि थे सबके सब उठ खड़े हुए और राजा परीक्षित भी हाथ बाँध खड़ा हो विनती कर कहने लगी—कृपा-निधान, मुझपर बड़ी दया की जो इस समै आपने मेरी सुध ली। इतनी बात कही तब शुकदेव मुनि भी बैठे तो राजा ऋषियों से कहने लगे कि महाराजो, शुकदेवजी ब्यासजी के तो बेटे और परासरजी के पोते तिनको देख तुम बड़े बड़े मुनीस होके उठे, सो तो उचित नहीं, इसका कारन कहो, जो मेरे मन का संदेह जाय। तब परासर मुनि बोले—राजा, जितने हम बड़े बड़े ऋषि हैं पर ज्ञान में शुक से छोटेही हैं, इसलिये सबने शुक का आदर मान किया। किसीने इस आस पर कि ये तारन-तरन हैं, क्योंकि जब से जन्म लिया है तबही से उदासी हो बनवास करते हैं, और राजा तेरा भी कोई बड़ा पुन्य उदै हुआ जो शुकदेव जी आये। ये सब धर्मों से उत्तम धर्म कहेंगे जिससे तू जन्म मरन से छूट भवसागर पार होगा। यह बचन सुन राजा परीक्षित ने शुकदेवजी को दंडवत कर पूछा—महाराज, मुझे धर्म समझायके कहो, किस रीति से कर्म के फंदे से छूटूँगा, सात दिन में क्या करूँगा। अधर्म है अपार, कैसे भवसागर हूँगा पार।
श्रीशुकदेवजी बोले—राजा, तू थोड़े दिन मत समझ, मुक्ति तो होती है एकही घड़ी के ध्यान में, जैसे षष्टांगुल राजा को नारद मुनि ने ज्ञान बताया था और उसने दोही घड़ी में मुक्ति पाई थी। तुम्हें तो सात दिन बहुत हैं, जो एक चित हो करो ध्यान तो सब समझोगे अपने ही ज्ञान से कि क्या हैं देह, किसका है बास, कौन करता है इसमें प्रकाश। यह सुन राजा ने हरष के पूछा—महाराज, सब धर्मों से उत्तम धर्म कौनसा है, सो कृपा कर कहो। तब शुकदेवजी बोले—राजा, जैसे सब धर्मों में बैष्णव धर्म बड़ा है, तैसे पुरानों में श्रीभागवत। जहाँ हरिभक्त यह कथा सुनावे हैं तहाँही सब तीर्थ औ धर्म आवे हैं। जितने हैं पुरान पर नहीं है कोई भागवत के समान। इस कारन मैं तुझे बारह स्कंध महा पुरान सुनाता हूं जो व्यास मुनि ने मुझे पढ़ाया है, तू श्रद्धा समेत आनंद से चित दे सुन। तब तो राजा परीक्षित प्रेम से सुनने लगे और शुकदेवजी नेम से सुनाने।
नौ स्कंध कथा जब मुनि ने सुनाईं तब राजा ने कहा—दीनदयाल अब दया कर श्रीकृष्णावतार की कथा कहिये, क्योंकि हमारे सहायक और कुलपूज वे ही हैं। शुकदेवजी बोले—राजा, तुमने मुझे बड़ा सुख दिया जो यह प्रसंग पूछा, सूनो मैं प्रसन्न हो कहता हूँ। यदुकुल में पहले भजमान नाम राजा थे तिनके पुत्र पृथिकु, पृथिकु के बिदूरथ, विनके सूरसेन जिन्होंने नौ खंड पृथ्वी जीत के जस पाया। उनकी स्त्री का नाम मरिष्या, विसके दस लड़के और पाँच लड़कियाँ, तिनमें बड़े पुत्र बसुदेव,जिनकी स्त्री के आठवें गर्भ में श्रीकृष्णचंदजी ने जन्म लिया। जब वसुदेवजी उपजे थे तब देवताओं ने सुरपुर में आनंद के बाजन बजाये थे और सूरसेन की पाँच पुत्रियों में सबसे बड़ी कुंती थी, जो पंडु को ब्याही थी, जिसकी कथा महाभारत में गाई है, औ बसुदेवजी पहले तो रोहन नरेस की बेटी रोहनी को ब्याह लाये, तिस पीछे सत्रह। जब अठारह पटरानी हुई तब मथुरा में कंस की बहन देवकी को ब्याहा। तहाँ आकाशबानी भई कि इस लड़की के आठवें गर्भ में कंस का काल उपजेगा। यह सुन कंस ने बहन बहनेऊ को एक घर में मूँद दिया और श्रीकृष्ण ने वहाँ ही जन्म लिया। इतनी कथा सुनते ही राजा परीक्षित बोले—महाराज, कैसे जन्म कंस ने लिया, किसने विसे महा बर दिया और कौन रीति से कृष्ण उपजे आय, फिर किस बिधि से गोकुल पहुँचे जाय, यह तुम मुझे कहो समझाय।
श्रीशुकदेवजी बोले—मथुरापुरी का आहुक नाम राजा, तिनके दो बेटे, एक का नाम देवक दूसरा उग्रसेन। कितने एक दिन पीछे उग्रसेन ही वहाँ का राजा हुआ, जिसकी एक ही रानी विसका नाम पवनरेखा सो अति सुंदरी औ पतिव्रता थी, आठों पहर स्वामी की आज्ञा ही में रहे। एक दिन कपड़ों से भई तो पति की आज्ञा से सखी सहेली को साथ कर रथ में चड़ बन में खेलने को गई। वहाँ घने घने वृक्षों में भाँति भाँति के फूल फूले हुए, सुगंध सनी मंद मंद ठंढी पवन बह रही, कोकिल, कपोत, कीर, मोर, मीठी मीठी मनभावन बोलियाँ बोल रहे और एक ओर पर्वत के नीचे जमुना न्यारीही लहरें ले रही थी, कि रानी इस समय को देख रथ से उतर कर चली तो अचानक एक ओर अकेली भूल के जा निकली। वहाँ द्रुमलिक नाम राक्षस भी संयोग से आ पहुँचा। वह इसके जोबन औ रूप की छब को देख छक रहा और मन में कहने लगा कि इससे भोग किया चाहिए। यह ठान तुरत राजा उग्रसेन का सरूप बन रानी के सोंही जा बोला―तू मुझसे मिल। रानी बोली―महाराज, दिन को कामकेलि करनी जोग नहीं, क्योकि इसमें सील और धर्म जाता है। क्या तुम नहीं जानते जो ऐसी कुमति बिचारी है।
जद पवनरेखा ने इस भाँति कहा तद तो द्रुमलिक ने रानी को हाथ पकड़ कर खैंच लिया और जो मन माना सो किया। इस छल से भोग करके जैसा था तैसा ही बन गया। तब तो रानी अति दुख पाय पछतायकर बोली―अरे अधर्मी, पापी, चंडाल, तूने यह क्यों अंधेर किया जो मेरा सत खो दिया, धिक्कार है तेरे माता पिता और गुरू को, जिसने तुझे ऐसी बुद्धि दी। तुझसा पूत जन्ने से तेरी माँ बाँझ क्यों न हुई। अरे दुष्ट, जो नर देह पाकर किसी का सत भंग करते हैं सो जन्म जन्म नरक में पड़ते हैं। द्रुमलिक बोला—रानी, तू श्राप मात दे मुझे, मैंने अपने धर्म का फल दिया है तुझे। तेरी कोख बंद देख मेरे मन में बड़ी चिंता थी सो गई।
आज से हुई गर्भ की आस, लड़का होगा दसवें मास।
और मेरी देह के सुभाव से तेरा पुत्र नौ खण्ड पृथ्वी को जीत राज करेगा और कृष्ण से लड़ेगा। मेरा नाम प्रथम काल नेम था तब विष्णु से युद्ध किया था। अब जन्म ले आया तो द्रुमलिक नाम कहाया, तुझको पुत्र दे चला, तू अपने मन में किसी बात की चिंता मत करे। इतनी बात कह जब कालनेम चला गया तब रानी को भी कुछ सोच समझकर धीरज भया।
जैसी हो होतव्यता, तैसी उपजे बुद्धि।
होनहार हिरदे बसे, बिसर जाय सब सुद्धि।।
इतने में सब सखी सहेली आन मिलीं, रानी का सिंगार बिगड़ा देख एक सहेली बोल उठी—इतनी बेर तुम्हें कहाँ लग और यह क्या गति हुई। पवनरेखा ने कहा—सुनो सहेली, तुमने इस बन में तजी अकेली। एक बंदर आया विसने मुझे अधिक सताया जिसके डर से मैं अब तक थर थर काँपती हूँ। यह बात सुनकर तो सबकी सब घबराईं औ रानी को झट रथ पर चढ़ा घर लाईं। जब दस महीने पूजे तब पूरे दिनों लड़का हुआ, तिस समै एक बड़ी आँधी चली कि जिसके मारे लगी धरती डोलने, अँधेरा ऐसा हुआ जो दिनकी रात हो गई और लगे तारे टूट टूट गिरने, बादल गरजने और बिजली कड़कने।
ऐसे माघ सुदी तेरस बृहस्पति वार को कंस ने जन्म लिया। तब राजा उग्रसेन ने प्रसन्न हो सारे नगर के मंगलामुखियों को बुलाय मंगलाचार करवाये और सब ब्राह्मन, पंडित, जोतिषियों को भी अति मान सनमान से बुलवा भेजा। वे आये, राजा ने बड़ी आवभक्ति से आसन दे दे बैठाया। तब जोतिषियों ने लग्न साध मुहूर्त विचारकर कहा―पृथ्वीनाथ, यह लड़का कंस नाम तुम्हारे बंस मे उपजा सो अति बलवंत हो राक्षसों को ले राज करेगा और देवता और हरिभक्तों को दुख दे आपका राज ले निदान हरि के हाथ मरेगा।
इतनी कथा कह शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित से कहा―राजा, अब मैं उग्रसेन के भाई देवक की कथा कहता हूं, कि उसके चार बेटे थे और छः बेटियाँ, सो छओं बसुदेव को ब्याह दीं, सातवीं देवकी हुई जिसके होने से देवताओं को प्रसन्नता भई, और उग्रसेन के भी दस पुत्र, पर सबसे कंस ही बड़ा था। जब से जन्मा तब से यह उपाध करने लगा कि नगर में जाय छोटे छोटे लड़को को पकड़ पकड़ लावै औ पहाड़ की खोह में मुँद मूँद मार मार डाले। जो बड़े होय तिनकी छाती पै चढ़ गला घोट जी निकाले। इस दुख से कोई कहीं न निकलने पावे, सब कोई अपने अपने लड़के को छिपावे। प्रजा कहे दुष्ट यह कंस उग्रसेन का नही है वंश, कोई महा पापी जन्म ले आया है जिसने सारे नगर को सताया है। यह बात सुन उग्रसेन ने विसे बुलाकर बहुतसा समझाया पर इसका कहना विसके जी में कुछ भी न आया। तब दुख पाय पछताये के कहने लगा कि ऐसे पूत होने से मैं अपूत क्यों न हुआ।
कहते हैं जिस समै कपूत घर में आता हैं तिसी समै जस और धर्म जाता है। जब कंस आठ वर्ष का भया तब मगध देस पर चढ़ गया। वहाँ का राजा जरासिंधु बड़ा जोधा था तिससे मिल इसने मल्ल युद्ध किया तो उनने कंस का बल लख लिया, तब हार मान अपनी दो बेटियाँ ब्याह दीं, वह ले मथुरा में आया और उग्रसेन से बैर बढ़ाया। एक दिन कोप कर अपने पिता से बोला कि तुम रामनाम कहना छोड़ दो और महादेव का जप करो। विसने कहा―मेरे तो करता दुखहरता वेई हैं जो विनको ही न भजूँगा तो अधर्मी हो कैसे भवसागर पार हूँगा। यह सुन कंस ने खुनसा बाप को पकड़ कर सारा राज ले लिया और नगर में यों डोंडी फेर दी कि कोई यज्ञ, दान, धर्म, तप औ राम का नाम करने न पावे। ऐसा अधर्म बढ़ा कि गौ ब्राह्मन हरि के भक्त दुख पाने लगे और धरती अति बोझों मरने। जब कंस सब राजाओं का राज ले चुका तब एक दिन अपना दल ले राजा इंद्र पर चढ़ चला, तहाँ मंत्री ने कहा―महाराज इंद्रासन बिन तप किये नहीं मिलता। आप बल का गर्व न करिये, देखो गर्व ने रावन कुंभकरन को कैसा खो दिया कि जिनके कुल में एक भी न रहा।
इतनी कथा कह शुकदेवजी राजा परीक्षित से कहने लगे कि राजा, जद पृथ्वी पर अति अधर्म होने लगा तद दुख पाय घबराय गाय का रूप बन राँभती देवलोक में गई और इंद्र की सभा में जा सिर झुकाय उसने अपनी सब पीर कही कि महाराज, संसार में असुर अति पाप करने लगे, तिनके डर से धर्म तो उठ गया औ मुझे आज्ञा हो तो नरपुर छोड़ रसातल जाऊँँ। इंद्र सुन सब देवताओं को साथ ले ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा सुन सबको महादेव के निकट ले गये। महादेव भी सुन सबको साथ ले वहाँ गये जहाँ क्षीरसमुद्र में नारायन सो रहे थे। विनको सोता जान ब्रह्मा, रुद्र, इंद्र, सब देवताओं को साथ ले खड़े हो, हाथ जोड़ बिनती कर वेदस्तुति करने लगे—महाराजाधिराज आपकी महिमा कौन कह सके। मच्छ रूप हो वेद डूबते निकाले। कच्छ सरूप बन पीठ पर गिरि धारत किया। बाराह बन भूमि को दाँत पै रख लिया। बावन हो राजा बलि को छला। परशुराम औतार ले क्षत्रियों को मार पृथ्वी कश्यप मुनि को दी। रामावतार लिया तब महा दुष्ट रावन को बध किया। और जब जब दैत्य तुम्हारे भक्तों को दुख देते हैं तब तब आप विनकी रक्षा करते हैं। नाथ, अब कंस के सताने से पृथ्वी अति व्याकुल हो पुकार करती है, विसकी बेग सुध लीजे, असुरों को मार साधों को सुख दीजे।
ऐसे गुन गाय देवताओं ने कहा तब आकाशबानी हुई सो ब्रह्मा देवताओं को समझाने लगे, यह जो बानी भई सो तुम्हें आज्ञा दी है कि तुम सब देवी देवता ब्रजमंडल जाय मथुरा नगरी में जन्म लो, पीछे चार सरूप धर हरि भी औतार लेंगे, बसुदेव के घर देवकी की कोख में, और बाल लीला कर नंद जसोदा को सुख देंगे। इसी रीति से ब्रह्मा ने जब बुझाके कहा, तब तो सुर, मुनि, किन्नर, औ गंधर्व सब अपनी अपनी स्त्रियों समेत जन्म ले ले ब्रजमंडल में आये, यदुवंशी और गोप कहाये। और जो चारों बेद की ऋचायें थीं सो ब्रह्मा से कहने गईं कि हम भी गोपी हो ब्रज में औतार ले बासुदेव की सेवा करें। इतनी कह वे भी ब्रज में आईं औ गोपी कहलाईं। जब सब देवता मथुरापुरी में आ चुके तब क्षीरसमुद्र में हरि विचार करने लगे कि पहले तो लक्ष्मन होयँ बलराम, पीछे बासुदेव हो मेरा नाम, भरत प्रद्युम्न, शत्रुघ्न अनिरुद्ध और सीता रुक्मिनी का अवतार लें।