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प्रेमसागर/१२ बत्सासुर-बकासुरवध

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ४२ से – ४४ तक

 

बारहवां अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले―राजा, जब वे दोनों तरु गिरे तब तिनका शब्द सुन नंदरानी घबरा कर दौड़ी वहाँ आई जहाँ कृष्ण को उलूखल से बाँध गई थी और विनके पीछे सब गोपी ग्वाल भी आए। जद कृष्ण को वहाँ न पाया तद व्याकुल हो जसोदा मोहन मोहन पुकारती औं कहती चली। कहाँ गया बाँधा था माई, कहीं किसी ने देखा मेरा कुँअर कन्हाई। इतने में सोहीं से आ एक बोली ब्रजनारी कि दो पेड़ गिरे तहाँ बचे मुरारी। यह सुन सब आगे जाय देखें तो सचही वृक्ष उखड़े पड़े है और कृष्ण तिनके बीच ओखली से बँधे सुकड़े बैठे हैं। जाते ही नंदमहरि ने उलूखल से खोल कान्ह को रोकर गले लगा लिया, और सब गोपियाँ खरा जाने लगी चुटकी ताली दे दे हँसाने। जहाँ नंद उपनंद आपस में कहने लगे कि ये जुगान जुग के रूख जमे हुए कैसे उखड़ पड़े यह अचंभा जी में आता है, कुछ भेद इसका समझा नहीं जाता। इतना सुनके एक लड़के ने पेड़ गिरने की व्योरा जो का तो कहा, पर किसीके जी मे न आया। एक बोला―ये बालक इस भेद को क्या समझें। दूसरे ने कहा―कदाचित यही हो, हरि की गति कौन जाने। ऐसे अनेक अनेक भाँति की बातें कर श्रीकृष्ण को लिये सब आनंद से गोकुल आये, तब नंदजी ने बहुत सी दान पुन्य किया।

कितने एक दिन बीते कृष्ण का जन्म दिन आया, तो जसोदा रानी ने सब कुटुम्ब को नोत बुलाया और मंगलाचार कर बरस गाँठ बाँधी। जद सब मिलि जेंवन बैठे तद नंदराय बोले-सुनो भाइयो, अब इस गोकुल में रहना कैसे बने, दिन दिन होने लगे उपद्रव घने, चलो कहीं ऐसी ठौर जावे जहाँ तृन जल का सुख पावे। उपनंद बोले-बृंदाबन जाय बसिये तो आनंद से रहिये। यह बचन सुन नंदजी ने सबको खिलाय पिलाये पान दे बैठाय, त्योंहीं एक जोतिषी को बुलाय, यात्रा का महूर्त्त पूछ। विसने विचार के कहा—इस दिसा की यात्रा को कल का दिन अति उत्तम है। बाएँ जोगनी पीछे दिसासूल और सनमुख चंद्रमा है। आप निस्संदेह भोरही प्रस्थान कीजे।

यह सुन तिस समै तो सब गोपी ग्वाल अपने अपने घर गये, पर सबेरे ही अपनी अपनी वस्तु भाव गाड़ों पै लाद लाद आ इकट्ठे भये। तब कुटुम्ब समेत नंदजी भी साथ हो लिये और चले चले नदी उतर साँझ सबै जा पहुँचे। बंदादेवी को मनाय ब्रंदोबन बसाया। तहाँ सब सुख चैन से रहने लगे।

जद श्रीकृष्ण पाँच बरस के हुए तद मा से कहने लगे कि मैं बछड़े चरावने जाऊँगा, तू बलदाऊ से कह दे जो मुझे बन में अकेला न छोड़े। वह बोली―पूत, बछड़े चरावनेवाले बहुत है दास तुम्हारे, तुम मत पल ओट हो मेरे नैन आगे से प्यारे। कान्ह बोले जो मैं बन में खेलने जाऊँगा, तो खाने को खाऊँगा, नहीं तो नहीं। यह सुन जसोदा ने ग्वाल बालो को बुलाय कृष्ण बलराम को सोपकर कहा कि तुम बछड़े चरावने दूर मत जाइयो और साँझ न होते दोनों को संग ले घर आइयो। बन में इन्हे अकेले मत छोड़ियो, साथ ही साथ रहियो, तुम इनके रखवाले हो। ऐसे कह कलेऊ दे राम कृष्ण को विनके संगे कर दिया। वे जाय जमुना के तीर बछड़े चराने लगे और ग्वाल बालों में खेलने कि इतने में कंस को पठाया कपट रूप किये बच्छासुर आया। विसे देखते ही सब बछड़े डर जिधर तिधर भागे, तब श्रीकृष्ण ने बलदेवजी को सेन से जताया कि भाई, यह कोई राक्षस आया। आगे जो वह चरता चरता घात करने को निकट पहुँचा तो श्रीकृष्ण ने पिछले पाँव पकड़ फिराय कर ऐसा पटका कि विसका जी घर से निकल सटका।

बुच्छासुर का मरना सुन कंस ने बकासुर को भेजा। वह ब्रंदावन में आय अपनी घात लगाय, जमुना के तीर पर्वत सम जा बैठा। विसे देख मारे भय के ग्वाल बाल कृष्ण से कहने लगे कि भैया, यह तो कोई राक्षस बगुला बने आया है, इसके हाथ से कैसे बचेगे।

ये तो इधर कृष्ण से यों कहते थे और उधर वह जी में यह विचारता था कि आज इसे बिना मारे न जाऊँगा। इतने में जो श्रीकृष्ण उसके निकट गये तो विसने इन्हें चोच में उठाय मुँह मुंद लिया। ग्वाल बाल ब्याकुल हो चारों ओर देख देख रो रो पुकार पुकार लगे कहने―हाय हाय, यहाँ तो हलधर भी नहीं है, हम जसोदा से क्या जाय कहेंगे। इनको अति दुखित देख श्रीकृष्ण ऐसे तत्ते हुए कि वह मुख में न रख सका। जो विसने इन्हें उगला तो इन्होने उसे चोच पकड़ ठोट पाँव तले दबाय चीर डाला और बछड़े घेर सखाओं को साथ हँसते खेलते घर आए।

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