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प्रेमसागर/१६ धेनुकवध

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ५१ से – ५३ तक

 

सोलहवाँँ अध्याय

श्रीशुकदेव बोले—महाराज, जब श्रीकृष्ण आठ बरस के हुए तब एक दिन विन्होने जसोदा से कहा कि मा, मैं गाय चरावन जाऊँगा, तू बाबा से समझायकर कह जो मुझे ग्वालो के साथ पठाय दे। सुनतेही जसोदा ने नंदजी से कहा, विन्होने शुभ महूर्त ठहराय ग्वाल बालो को बोलाय, कातिक सुदी आठे को राम कृष्ण से खरक पुजवाय बिनती कर ग्वालों से कहा कि भाइयो, आज से गौ चरावन अपने साथ राम कृष्ण को भी ले जाया करो, पर इनके पास ही रहियो, बन में अकेले न छोड़ियो। ऐसे कह छाक दे, कृष्ण बलराम को दही का तिलक कर सबके संग बिदा किया। वे मगन हो ग्वाल बालों समेत गायें लिये बन में पहुँचे, तहाँ बन की छबि देख श्रीकृष्ण बलदेवजी से कहने लगे― दाऊ, यह तो अति मतभावनी सुहावनी ठौर है, देखो कैसे वृक्ष झुक झुक रहे है औ भाँति भाँति के पशु पंछी कलोले करते है। ऐसे कह एक ऊँचे टीले पर जा चढे़, और लगे दुपट्टा फिराय फिराय कारी, गोरी, पीरी, धौरी, धूमरि, भूरी, नीली, कह कह पुकारने। सुनते ही सब गाये रॉभती होंकतीं दौड़ आईं। तिस समै ऐसी सोभा हो रही कि जैसे चारो ओर से बरन बरन की घटा घिर आई होय।

फिर श्रीकृष्णचंद गौ चरने को हाँक, भाई के साथ छाक खाय कदम की छाँह में एक सखा की जाँघ पै सिर धर सोये। कितनी एक बेर में जो जागे तो बलरामजी से कहा―दाऊ, सुनो, खेल यह करैं, न्यासै कटक बाँध कै लरैं। इतना कह आधी आधी गाये औ ग्वाल बाल बाँट लिये। तब बन के फल फूल तोड़ झोलियो में भर भर लगे तुरही, भेर, भोपू, डफ, ढोल, दमामे, मुखही से बजाय बजाय लड़ने और मार मार पुकारने। ऐसे कितनी एक बेर तक लड़े, फिर अपनी अपनी टोली निराली ल गाये चराने लगे।

इस बीच बलदेवजी से सखा ने कहा―महाराज, यहाँ से थोड़ी सी दूर पर एक तालबन है, तिसमें अमृत समान फल लगे है, तहाँ गधे के रूप एक राक्षस रखवाली करता है। इतनी बात सुनते ही बलरामजी ग्वाल बालो समेत विस बन में गये और लगे ईट, पत्थर, ढेले, लाठियाँ भार मार फल झाड़ने। शब्द सुन कर धेनुक नाम खर रेकता आया है विसने आते ही फिरकर बलदेवजी की छाती में एक दुलती मारी, तब इन्होने विसे उठाय कर दे पटका, फिर वह लोट पोटके उठा और धरती खूँद खुँद कान दबाय हट हट दुलत्तियाँ झाड़ने लगा। ऐसे बड़ी बेर लग लड़ता रहा। निदान बलरामजी ने विसकी दोनो पिछली टाँग पकड़ फिरायकर एक ऊँचे पेड़ पर फेको सो गिरते ही मर गया, और साथ उसके वह रूख भी टूट पड़ा। दोनों के गिरने से अति शब्द हुआ और सारे बन के वृक्ष हिल उठे।

देखि दूरि सो कहत मुरारी। हाले, रूख शब्द भय भारी॥
तबहि सखा हलधर के आये। चलहु कृष्ण तुम बेग बुलाये॥

एक असुर मारा है सो पड़ा है। इतनी बात के सुनते ही श्रीकृष्ण भी बलरामजी के पास जा पहुँचे, तब धेनुक के साथी जितने राक्षस थे सो सब चढ़ आए। तिन्हें श्रीकृष्णचंदजी ने सहज ही मार गिराया। तब तो सब ग्वाल बालों ने प्रसन्न हो निधड़क फल तोड़ मनमानती झोलियाँ भर लीं, और गाये घेर लाय श्रीकृष्ण बलदेवजी से कहा―महाराज, बड़ी बेर से आये हैं अब घर को चलिये। इतना बचन सुनतेही दोनो भाई गाये लिये ग्वाल बालो समेत हँसते खेलते साँझ को घर आये, और जो फ्ल लाये थे सो सारे बृंदावन में बँटवाए। सबको बिदा दे आप सोये, फिर भोर के तड़के उठते ही श्रीकृष्ण ग्वाल बालो को बुलाय कलेऊ कर गाये ले बन को गये और गौ चराते चराते कालीदह जा पहुँचे। वहाँ ग्वालो ने गायों को जमुना में पानी पिलाया औ आप भी पिया, जो जल पी ऊपर उठे तो गायो समेत मारे विष के सब लोट गये। तब श्रीकृष्णजी ने अमृत की दृष्टि से देख सबको जिवाया।


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