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प्रेमसागर/१५ ब्रह्मास्तुति

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ५०

 

पंद्रहवाँ अध्याय

शुकदेवजी बोले―हे राजा, जद श्रीकृष्ण ने अपनी माया उठा ली तद ब्रह्मा को अपने शरीर का ज्ञान हुआ, तो ध्यान कर भगवान के पास को अति गिड़गिड़ाय पाओ पड़ बिनती कर हाथ बाँध खड़ा हो कहने लगा कि हे नाथ, तुमने बड़ी कृपा करी जो मेरा गर्व दूर किया, इसीसे अंधा हो रहा था। ऐसी बुद्धि किसकी है जो बिन दया तुम्हारी तुम्हारे चरित्रों को जाने। माया तुम्हारी ने सबको मोहा है। ऐसा कौन है जो तुम्हे मोहे, तुम सबके करता हो, तुम्हारे रोम रोम मे मुझसे ब्रह्मा अनेक पड़े है, मैं किस गिनती में हूँ, दीन दयाल, अब दया कर अपराध क्षमा कीजे, मेरा दोष चित्त में न लीजे।

इतना सुन श्रीकृष्णचंद मुसकुराये तद ब्रह्मा ने सब ग्वाल बाल औ बछड़े सोते के सोते ला दिये और लज्जित हो स्तुति कर अपने स्थान को गया। जैसी मंडली आगे थी तैसी ही बन गई। बरस दिन बीता सो किसीने न जाना। जों ग्वाल बालको की नींद गई तो कृष्ण बछरू घेर लाये, तब तिनसे लड़के बोले―

भैया, तू तो बछड़े बेग ले आया हम भोजन करने भी न पाये।
सुनत बचन हँस कहत बिहारी। मोकौ चिंता भई तिहारी॥
निकट चरत इक ठौरे पाए। अब घर चलो भोर के आए॥

ऐसे आपस में बतराय बछरू ले सब हँसते खेलते अपने घर आये।