प्रेमसागर/२४ द्विजपत्नीयाचन

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प्रेमसागर  (1922) 
द्वारा लल्लूलाल जी

[ ७१ ]श्रीशुकदेवजी बोले कि जब श्रीकृष्ण जमुना के पास पहुँच रूख तले लाठी टेक खड़े हुए, तब सब बाल बाल औ सखाओं ने आय कर जोड़ कहा कि महाराज, हमें इस समय बड़ी भूख लगी है, जो कुछ लाये थे सो खाई पर भूख न गई। कृष्ण बोले―देखो वह जो धुआँ दिखाई देता है तहाँ मथुरिये कंस के डर से छिपके यज्ञ करते हैं, उनके पास जा हमारा नाम ले दंडवत कर हाथ बाँध खड़े हो, दूर से भोजन ऐसे दीन हो मांगियो, जैसे भिखारी अधीन हो माँगना है।

यह बात सुन ग्वाल चले चले वहाँ गये जहाँ माथुर बैठे यज्ञ कर रहे थे। जाते ही उन्होने प्रनाम कर निपट आधीनता से कर जोड़ के कहा―महाराज, आपको दंडवत कर हमारे हाथ श्री कृष्णचंदजी ने यह कहला भेजा है कि हमको अति भूख लगी है, कुछ कृपा कर भोजन भेज दीजे। इतनी बात ग्वालो के मुख से सुन मथुरिये क्रोध कर बोले―तुम तो बड़े मूर्ख हो जो हमसे अभी यह बात कहते हो। बिन होम हो चुके किसी को कुछ न देगे। सुनो जब यज्ञ कर लेगे और कुछ बचेगा सो बाँट देगे। फिर ग्वालों ने उनसे गिड़गिड़ा के बहुतेरा कहा कि महाराज, घर आये भूखे को भोजन करवाने से बड़ा पुण्य होता है, पर वे इनके कहने को कुछ ध्यान में न लाये, बरन इनकी ओर से मुँह फेर आपस में कहने लगे।

बड़े मूढ़ पशुपालक नीच। माँगत भात होम के बीच॥

[ ७२ ]

तब तो ये वहाँ से निरास हो अछताय पजताय श्रीकृष्ण के पास आय बोले―महाराज, भीख माँग मान महत गँवाया, तौ भी खाने को कुछ हाथ न आया। अब क्या करें। श्रीकृष्णजी ने कहा कि अब तुम तिनकी स्त्रियो से जा माँगो, वे बड़ी दयावंत धर्मात्मा हैं, उनकी भक्ति देखिंयो, वे तुन्हें देखते ही आदर मान से भोजन देगी। यो सुन ये फिर वहाँ गये जहाँ वे बैठी रसोई करती थीं। जाते ही उनसे कहा कि बन में श्रीकृष्ण को धेनु चराते क्षुधा भई है सो हमें तुम्हारे पास पठाया है, कुछ खाने को होय तो दो। इतना बचन ग्वालो के मुख से सुनते ही वे सब प्रसन्न हो कंचन के थालों में षटरस भोजन भर ले ले उठ धाई और किसी की रोकी न रुकीं।

एक मथुरनी के पति ने जो न जाने दिया तो वह ध्यान कर देह छोड़ सबसे पहले ऐसे जा मिली जैसे जल जल में जा मिले औ पीछे से सब चलीं चलीं वहाँ आई, जहाँ श्रीकृष्णचंद ग्वाल बाल समेत वृक्ष की छाँह में सखा के काँधे पर हाथ दिये, त्रिभंगी छबि किये, कँवल का फूल कर लिये खड़े थे। आते ही थाल आगे धर दंडवत कर हरि मुख देख देख आपस में कहने लगीं कि सखी, येई हैं नंदकिशोर जिनका नाम सुन ध्यान धरती थीं, अब चंदमुख देख लोचन सुफल कीजे औ जीतब का फल लीजे। ऐसे बलराय हाथ जोड़ बिनती कर श्रीकृष्ण से कहने लगीं कि कृपानाथ,आपकी कृपा बिनु तुम्हारा दर्शन कब किसी को होता है, आज धन्य भाग हमारे जो दर्शन पाया औ जन्म जन्म का पाप गँवाया।

मूरख बिप्र कृपन अभिमानी। श्रीमद लोभ मोह मद सानी॥

[ ७३ ]

ईश्वर को मानुष करि माने । माया अंध : कहा पहिचाने।। जप तप यज्ञ जासु हित कीजे । ताकौ कहाँ न भोजन दीजे ।।

महाराज, वही धन्य है धन जन लाज, जो आवे तुम्हारे काज, औ सोई है तप जप ज्ञान, जिसमे आवे तुम्हारा नाम । इतनी बात सुन श्रीकृष्णचंद उनकी क्षेम कुशल पूछ कहने लगे कि, मत तुम मुझको करो प्रनान । मै हूँ नन्द महर का श्याम ॥

जो ब्राह्मन की स्त्री से आपको पुजवाते हैं सो क्या संसार में कुछ बड़ाई पाते है । तुमने हमे भूखे जान दया करे बन में आन सुध ली, अब हम यहाँ तुम्हारी क्या पहुनई करे ।

वृंदावन घर दूर हमारा । किस विधि आदर करे तुम्हारा ।।

जो वहाँ होते तो कुछ फूल फल ला आगे धरते, तुन हमारे कारन दुख पाय जंगल में आई औ यहाँ हमसे तुम्हारी दहल कुछ न बन आई, इस बात का पछतावा ही रहा। ऐसे सिष्टाचार कर फिर बोले-तुम्हे आए बड़ी देर भई, अब घर को सिधारिये, क्योकि ब्राह्मण तुम्हारे तुम्हारी बाट देखते होगे, इसलिये कि स्त्री बिन यज्ञ सुफल नही । यह बचन श्रीकृष्ण से सुन वे हाथ जोड़ बोलीं-महाराज, हमने आपके चरन कमल से स्नेह कर कुटुंब की माया सब छोड़ी क्योंकि जिनका कहा न मान हमें उठ धाई तिनके यहाँ अब कैसे जायें, तो वे घर में न आने दें तो फिर कहाँ बसे, इससे आपकी सरण में रहें सो भेला, और नाथ, एक नारि हमारे साथ तुम्हारे दरसन की अभिलाषा किये अवती थी, जिसके पति ने रोक रखा, तब उस स्त्री ने अकुला कर अपना जीव दिया | इस बातके सुनते ही हँसकर श्रीकृष्णचंद ने जिसे दिखाया [ ७४ ] जो देह छोड़ आई थी । कहा कि सुनो जो हरि से हित करता है । ति जिसका विनास कभी नहीं होता, यह तुम से पहले आ मिली है।

इतनी कथा सुनाथ श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जिसको देखतेही तो एक बार सब अचंभे रहीं, पीछे ज्ञान हुआ तद् हरि गुन गाने लगीं । इस बीच' श्रीकृष्णचंद ने भोजन कर उनसे कहा कि अब स्थान को प्रस्थान कीजे, तुम्हारे पति कुछ न कहेंगे, जब श्रीकृष्ण ने चिन्हें ऐसे समझाय बुझाय के कहा तब वे बिदा हो दंडवत कर अपने घर गईं । औ जिनके स्वामी सोच विचारके पछताय पछताय कह रहे थे कि हमने कथा पुरान में सुना है, जो किसी समै नंद जसोदा ने पुत्र के निमित्त बड़ा तप किया था, तहाँ भगवान ने आ उन्हें यह बर दिया कि हम यदुकुल में औतार ते तुम्हारे यहाँ जायेंगे। वेई जन्म ले आये हैं, जिन्होंने ग्वाल बालों के हाथ भोजन मॅगवाय भेजा था । हमने यह क्या किया जो आदि पुरुष ने माँगा औ भोजन न दिया ।

यज्ञ धर्मं जो कारन ठये । तिनके सनमुख आज न भये ।। आदि पुरुष हम मानुष जान्यौ । नाहीं अचन ग्वालन की मान्यौ । हम मूरख पाप अभिमानी । कीनी दया न हरि गति जानी ।।

धिकार है हमारी मति को औ इस यज्ञ करने को जो भगवान को पहचान सेवा न करी ! हमसे नारी ही भलीं कि जिन्होने जप, तुप, यज्ञ, विन किये साहस कर जा श्रीकृष्ण के दरसन किये औ अपने हाथों विन्हें भोजन दिया । ऐसे पछताय मथुरियों ने अपनी स्त्रियों के सनसुख हाथ जोड़ कहा कि धन्य भाग तुम्हारे जो हरि की दरसन कर आई, तुम्हारा ही जीवन सुफल है ।।