प्रेमसागर/२५ गोवर्धनपूजन

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[ ७५ ]श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, जैसे श्रीकृष्णचंद ने गिर गोवर्धन उठाया औ इन्द्र का गर्व हरा, अब सोई कथा कहता हूँ तुम चित दे सुनो, कि सब ब्रजबासी बरसवें दिन कातिक बदी चौदस को न्हाय धोय केसर चंदन से चौक पुराय भाँति भाँति की मिठाई औ पकवान धर, धूप दीप कर इन्द्र की पूजा किया करे। यह रीति उनके यहाँ परंपरा से चली आती थी। एक दिन वही दिवस आया, सब बंदजी ने बहुतसी खाने की सामग्री बनवाई औ सब ब्रजवासियों के भी घर घर सामग्री भोजन की हो रही थी। तहाँ श्रीकृष्ण ने आ मा से पूछा कि भाजी, आज घर भर मैं पकवान मिठाई जो हो रही है सो क्या है, इसका भेद मुझे समझाकर कहो जो मेरे मन की दुवधा जाय। जसोदा बोली कि बेदा, इस समै मुझे बात कहने का अवकाश नहीं, तुम अपने पिता से जो पूछो वे बुझायकर कहेगे। यह सुन नंद उपनंद के पास आय श्रीकृष्ण ने कहा कि पिता, आज किस देवता के पूजने की ऐसी धूम धाम है कि जिनके लिये घर घर पकवान मिठाई हो रही है, वे कैसी भक्ति मुक्ति बर के दाता हैं, विनका नाम औ गुन कहो जो मेरे मन का संदेह जाय।

नंदमहर बोले कि पुत्र यह भेद तूने अब तक नहीं समझा कि मेघों के पति जो हैं सुरपति, तिनकी पूजा है, जिनकी कृपा से संसार में रिद्धि सिद्धि मिलती है औ तृन, जल, अन्न होता है, बन उपबन फूलते फलते हैं, विनसे सब जीव, जंतु, पशु, पक्षी [ ७६ ] आनंद में रहते हैं, यह इंद्रपूजा की रीति हमारे यहाँ पुरुषाओं के आगे से चली आती है, कुछ आजही नई नहीं निकाली । नंदजी से इतनी बात सुन श्रीकृष्णचंद बोले-है पिता, जो हमारे बड़ो ने जाने अनजाने इन्द्र की पूजा की तो की, पर अब तुम जान बूझकर धर्म पंथ छोड़ अब बाट क्यों चलते हो । इन्द्र के मानने से कुछ नहीं होता क्योंकि वह भक्ति मुक्ति का दाता नहीं औ जिससे रिद्धि सिद्धि किसने पाई है । यह तुमही कहो जिनने किसे बर दिया है ।

हॉ एक बात यह है कि तप यज्ञ करने से देवताओं ने अपना राजा बनाय इन्द्रासन दे रखा है, इससे कुछ परमेश्वर नहीं हो सकता । सुनो, जब असुरों से बार बार हारता है, तब भाग के कहीं जा छिपकर अपने दिन काटता है। ऐसे कायर को क्यों मानो, अपना धर्म किस लिये नही पहचानो । इन्द्र का किया कुछ नहीं हो सकता, जो कर्म मे लिखा है सोई होता है । सुख, संपत, दारा, भाई, बन्धु, ये भी सब अपने धर्म कर्म से मिलते हैं, और आठ मास जो सूरज जल सोखता है सोई चार महीने बरसता है, तिसीसे पृथ्वी में तृन, जल, अन्न होता है और ब्रह्मा ने जो चारों बरन बनाये हैं, ब्राह्मच, क्षत्रीवैश्य, सूद्र, तिनके पीछे भी एक एक कर्म लगा दिया है कि ब्राह्मन तो वेद विद्या पढ़े, क्षत्री सबकी रक्षा करे, वैश्य खेती बनज, और सूद्र इन तीनो की सेवा में रहैं ।

पिता, हम वैश्य हैं, गायें बढ़ीं, इससे गोकुल हुआ, तिसीसे नाम गप पड़ गया । हमारा यह कर्म है कि खेती बनज करें और गौ ब्राह्मण की सेवा में रहै । वेद की आज्ञा है कि अपनी [ ७७ ]कुलरीत्ति न छोड़िये, जो लोग अपना धर्म तज और का धर्म पालते हैं सो ऐसे हैं, जैसे कुलबधू हो परपुरुष से प्रीति करै। इससे अब इंद्र की पूजा छोड़ दीजै और बन पर्वन की पूजा कीजै, क्योकि हम बनबासी हैं, हमारे राजा वेई हैं जिनके राज में हम सुख से रहते हैं, तिन्हें छोड़ और को पूजना हमें उचित नहीं। इससे अब सब पकवान मिठाई अन्न ले चलो और गोवर्द्धन की पूजा करो।

इतनी बात के सुनते ही नंद उपनंद उठकर वहाँ गये जहाँ बड़े बड़े गोप अथाई पर बैठे थे। इन्होने जाते ही सब श्रीकृष्ण की कही बाते विन्हें सुनाईं। वे सुनतेही बोले कि कृष्ण सच कहता है, तुम बालक जान उसकी बात तम टालो। भला तुमहीं बिचारो कि इंद्र कौन है, और हम किस लिये विसे मानते है, जो पालता है उसकी तो पूजाही भुलाई।

हमें कहा सुरपति सो काज, पूजे अन सरिता गिरिराज।

ऐसे कह फिर सब गोपो ने कहा―

भलौ मतौ कान्हर कियौ, तजिये सिगरे देव।
गोवर्द्धन पर्वत बड़ो, ताकी कीजै सेव॥

यह बचन सुनतेही नंदजी ने प्रसन्न हो गॉव में ढँढोरा फिर वाय दिया कि कल हम सारे ब्रजबासी चलकर गोवर्द्धन की पूजा करेंगे, जिस जिसके घर में इंद्र की पूजा के लिए पकवान मिठाई बनी है सो सब ले ले भोरही गोवर्द्धन पै जाइयो। इतनी बात सुन सकल ब्रजबासी दूसरे दिन भोरके तड़के उठ, स्नान ध्यान कर, सब सामग्री झालों, परातो, थालो, डलो, हंडो, चरुओं में भर, गाडो, बहंगियो पर रखवाय गोवर्द्धन को चले। तिसी समै नंद [ ७८ ] उपनंद भी कुटुंब समेत सामान ले सबके साथ हो लिये और बाजे गाजे से चले चले सब मिल गोवर्द्धन पहुँचे ।

वहाँ जाय पर्वत के चारो ओर भाड़ बुहार, जल छिड़क, घेवर, वाबर, जलेबी, लड्डू, खुरमे, इमारती, फेनी, पेड़े, बरफी, खाजे, गूझे, मठडी, सीरा, पूरी, कचौरी, सेव, पापड़, पकौड़ी आदि पकवान और भॉति भॉति के भोजन, बिंजन, संधाने, चुन चुन रख दिये, इतने कि जिनसे पर्वत छिप गया और अपर फूलों की माला पहराय, बरन बरन के पाटंबर तान दिये ।

तिस समै की शोभा बरनी नहीं जाती । गिरि ऐसा सुहावना लगता था, जैसे किसीने गहने कपड़े पहराय नख सिख से सिगारा होय, और नवजी ने पुरोहित बुलाये सब ग्वाल बालो को साथ ले, रोली अक्षत पुष्प चढ़ाय, धूप दीप नैवेद्य कर, पान सुप्यारी दुझिना धर, वेद की विधि से पूजा की तन श्रीकृष्ण ने कहा कि अब तुम शुद्ध मन से गिरिराज का ध्यान करो तो वे आय दरसन दे भोजन करे ।


श्रीकृष्ण से यो सुनतेही नंद जसोदा समेत सब गोपी गोप कर जोड़ नैन मूंद ध्यान लगाय खड़े हुए, तिस काल नंदलाल उधर तो अति मोदी भारी दूसरी देह धर बड़े बड़े हाथ पाँव कर, कमल-नैन, चंदुमुख हो, मुकुट धरे, बनमाल गरे, पीत बसन और रतन जटिल आभूषन पहरे, मुँह पसारे चुप चाप पर्वत के बीच से निकले, और इधर अपही अपने दूसरे रूप को देख सबसे पुकारके कहा- देखो गिरिराज ने प्रगट होय दरसन दिया, जिनकी पूंजा तुमने जी लगाय करी है। इतना बचन सुनाय श्रीकृष्णचंद् जी ने गिरिराज को दंडवत की, उनकी देखादेखी सब गोपी गोप [ ७९ ] प्रनाम कर आपस मे कहने लगे कि इस भॉति इंद्र ने कब दरसन दिया था, हम वृथा उसकी पूजा किया किये और क्या जानिये पुरुषाओ ने ऐसे प्रत्यक्ष देव को छोड़ क्यो इंद्र को माना था, यह बात समझी नहीं जाती ।

यो सब बतराय रहे थे कि श्रीकृष्ण बोले-अब देखते क्या हो, जो भोजन लाये हो सो खिलाओ । इतना वचन सुनते ही गोपी गोप षटरस भोजन थाल परातो में भर भर उठाय उठाय लगे देने और गोवर्द्धननाथ, हाथ बढ़ाय बढ़ाय ले ले भोजन करने । निदान जितनी सामग्र नंद समेत सब ब्रजबासी ले गये सो खाई, तब वह मूरत पर्वत में समाई । इस भॉति अद्भुत लीला कर श्रीकृष्णचंद सबको साथ ले पर्वत की परिक्रमा दे दूसरे दिन गोवर्द्धन से चल हँसते खेलते बृदावन आए । तिस काल घर घर आनंद मंगल बधाए होने लगे और ग्वाल बाल सब गाय बछड़ो को रंग रंग उनके गले में गंडे घंटालियाँ घूँघरू बाँध बाँध न्यारे ही कुतूहल कर रहे थे ।