प्रेमसागर/२६ ब्रजरक्षा

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[ ८० ]इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले―

सुरपति की पूजा तजी, करी पर्वत की सेव।
तबहि इंद्र मन कोपि कै, सबै बुलाए देव॥

जब सारे देवता इंद्र के पास गये तब वह विनसे पूछने लगा कि तुम मुझे समझाकर कहो कल ब्रज में पूजा किसकी थी? इस बीच नारद जी आय पहुँचे तो इंद्र से कहने लगे कि सुनो महाराज, तुम्हें सब कोई मानता है पर एक ब्रजवासी नहीं मानते क्योकि नंद के एक बेटा हुआ है, तिसीको कहा सब करते हैं, विन्हीने तुम्हारी पूजा मेट कल सबसे पर्बत पुजवाया। इतनी बात के सुनते ही इंद्र क्रोध कर बोला कि ब्रजवासियों के धन बढ़ा है, इसीसे विन्हें अति गर्व हुआ है।

तप जप यज्ञ तज्यौ ब्रज मेरौ। काल दुद्धि बुलायौ नैरो॥
मानुष कृष्ण देव के मानैं। ताकी बाते सॉची जानैं॥
वह बालक मूरख अज्ञान। बहुबादी राखै अभिमान॥
अब हौ उनको गर्व परिहौं। पशु खोऊँ लक्ष्मी बिन करौं॥

ऐसे बक झक खिजलायकर सुरपति ने मेघपति को बुलाय भेजा, वह सुनते ही डरता कॉपता हाथ जोड़ सनमुख आ खड़ा हुआ, विसे देखते ही इंद्र तेह कर बोला कि तुम अभी अपना सब दल साथ ले जाओ और गोवर्द्धन पर्बत समेत ब्रजमंडल को बरस बहाओ, ऐसा कि कहीं गिरि का चिह्न औ ब्रजवासियों का नाम न रहे। [ ८१ ]इतनी आज्ञा पाय मेघपति दंडवत कर राजा इंद्र से बिदा हुआ और जिसने अपने स्थान पर आय बड़े बड़े मेघों को बुलाय के कहा-सुनो, महाराज की आज्ञा है कि तुम अभी जाय ब्रजमंडल को बरस के बहा दो । यह बचन सुन सब मेघ अपने अपने दुल बादल ले ले मेघपति के साथ हो लिये । विसने आते ही ब्रजमंडल को घेर लिया और गरज गरज बड़ी बड़ी बूंदों से लगा मूषलाधार जल बरसाने और उँगली से गिरि को बतावने ।

इतनी कथा कथ श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, जब ऐसे चहुँ ओर से घनघोर घटा अखंड जल बरसने लगीं, तब नंद जसोदा समेत सब गोपी ग्वाल बाल भय खाय भींगते थर थर काँपते श्रीकृष्ण के पास जाय पुकारे कि हे कृष्ण, इस महाप्रलय के जल से कैसे बचेंगे, तब तो तुमने इंद्र की पूजा मेट पर्बत पुजवाया, अब बेग उसको बुलाइये जो आय रक्षा करे, नहीं तो क्षन भर में नगर समेत सब डूब मरते हैं। इतनी बात सुन औ सबको भयातुर देख श्रीकृष्णचंद बोले कि तुम अपने जी में किसी बात की चिंता मत करो, गिरिराज अभी आय तुम्हारी रक्षा करते हैं । यो कह गोबर्द्धन को तेज से तपाय अग्नि सम किया औ बायें हाथ की छिंगुली पर उठाय लिया । तिस काल सब ब्रजबासी अपने ढोरों समेत आ उसके नीचे खड़े हुए और श्रीकृष्णचंद को देख देख अजरज कर आपस में कहने लगे।

है कोऊ आदि पुरुष औतारी । देवन हू को देव मुरारी ॥
मोहन मानुष कैसो भाई । अंगुरी पर क्यो गिरि ठहराई ।।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि राजा परीक्षित से कहने लगे कि उधर तो मेघपति अपना दल लिये क्रोध कर मूसला [ ८२ ] धार जल बरसाता था और इधर पर्वत पै गिर छनाक तबे की बूँँद हो जाता था । यह समाचार सुन इंद्र भी कोप कर आप चढ़ आया और लगातार उसी भाँति सात दिन बरसा, पर ब्रज में हरि ‌प्रताप से एक बूँद भी न पड़ी। और सब जल निबड़ा तब मेघो ने आ हाथ जोड़ कहा कि हे नाथ, जितना महाप्रलय का जल था सबका सब हो चुका, अब क्या करे। यो सुन इंद्र ने अपने ज्ञान ध्यान से विचारा कि आदि पुरुष ने औतार लिया, नहीं तो ‌किसमें इतनी सामर्थ थी जो गिरि धारन कर ब्रज की रक्षा करता। ऐसे सोच समझ अछता पछता मेंघों समेत इंद्र अपने स्थान को गया और बादल उघड़ प्रकाश हुआ । तब सब ब्रजवासियों ने प्रसन्न हो श्रीकृष्ण से कहा―महाराज, अब गिरि उतार धरिये, मेघ जाता रहा । यह बचन सुनते ही श्रीकृष्णचंद ने पर्वत जहाँ का जहाँ रख दिया ।



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