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प्रेमसागर/३३ गोपीकृष्ण-संवाद

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १०० से – १०२ तक

 

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जद श्रीकृष्णचंद अंतरजामी ने जाना जो अब ये गोपियाँ मुझ बिन जीती न बचगी।

तब तिनहीं में प्रगट भये नंदनंदन यौं।
दृष्टबंध कर छिपै फेर प्रगटै नटवर जौं॥
आए हरि देखे जबै, उठी सबै थौं चैत।
प्रान परे ज्यौ मृतक में, इंद्री जयें अंधेत॥
बिन देखे सबकौ भन व्याकुल हो भयौ।
मानो मनमथ भुवंग सबनि डसि कै गयौ॥
पीर खरी पिय जान पहुँचे आई है।
अमृत बेलनि सीच लई सब जाइ कै॥
मनलु कमल निसि मलिन, हैं, ऐसेही ब्रजबाल।
कुंडल रवि छबि देखिकै, फूले नैन बिसाल॥

इतनी कथा कथे श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराजश्रीकृष्णचंद आनंदकंद को देखतेही सब गोपियाँ एकाएकी विरहसागर से निकल उनके पास जाय ऐसे प्रसन्न हुईं कि जैसे कोई अथाह समुद्र में डूब थाह पाय प्रसन्न होय। और चारों ओर से घेरकर खड़ी भई। तब श्रीकृष्ण उन्हें साथ लिये वहाँ आए जहाँ पहले रास विलास किया था। जातेही एक गोपी ने अपनी ओढ़नी उतार के श्रीकृष्ण के बैठने को बिछा दी। जों वे उस पर बैठे तो कई एक गोपी क्रोध कर बोलीं कि महाराज, तुम बड़े कपटी बिराना मन धन ले जानते हो, पर किसी को कुछ गुन नहीं मानते। इतना कह आपस में कहने लगी―

गुन छाँड़ै औगुन गहै, रहै कपट मन भाय।
देखो सखी विचारि कै तासो कहा बसाय॥

यह सुन एक विनमे से बोलो कि सखी, तुम अलगी रहो, अपने कहे कुछ सोभा नहीं पातीं। देखो मैं कृष्णही से कहाती हूँ। यो कह विसने मुसकुरायके श्रीकृष्ण से पूछा कि महाराज, एक बिन गुन किये गुन मान ले, दूसरा किये गुन का पलटा दे, तीसरा गुन के पलटे औगुन करै, चौथा किसीके किये गुन को भी मन में न धरै। इन चारो में कौन भला है की कौन बुरा, यह तुम हमें समझाके कहो। श्रीकृष्णचंद बोले कि तुम सब मन दे सुनौ भला औ बुरा मै बुझा कर कहता हूँ। उत्तम तो वह है जो बिन किये करे, जैसे पिता पुत्र को चाहता है, और किये पर करने से कुछ पुन्य नहीं, सो ऐसे है जैसे बॉट के हेत गौ दूध देती है। गुन को औगुन माने तिसे शत्रु जानिये। सबसे बुरा कृतघ्नी जो किये को मेदे।

इतना बचन चुनतेही जब गोपियाँ आपस में एक एक को मुँह देख हँसने लगी, तब तो श्रीकृष्णचंद घबराकर बोले कि सुनौ मैं इन चार की गिनती में नही, जो तुम जानके हँसती हो, बरन मेरी तो यह रीति है कि जो मुझसे जिस बात की इच्छा रखता है तिसके मन की वॉछा पूरी करता हूँ। कदाचित तुम कहो कि जो तुम्हारी यह चाल है तो हमे बन में ऐसे क्यों छोड़ गये, इस का कारन यह है कि मैने तुम्हारी प्रीति की परीक्षा ली, इस बात का बुरा मत मानो, मेरा कहा सच्चही जानौ। यो कह फिर बोले―

अब हम परचौ लियौ तिहारौ। कीनौ सुमिरन ध्यान हमारौ॥
मोही सो तुम प्रीत बड़ाई। निर्धन मनो संपदा पाई॥
ऐसे आई मेरे काज। छाँड़ी लोक बेद की लाज॥
जो बैरागी छाँड़े गेह। मन दे हरि स करै सनेह॥
कहा तिहारी करें बड़ाई। हमयै पलट दियौ न जाई॥

जो ब्रह्मा के सौ बरस जिये तौ भी हम तुम्हारे ऋन से उतरन न होय।