प्रेमसागर/३४ रासलीला-वर्णन

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[ १०३ ]श्रीशुकदेव मुनि बोले―राजा, जब श्रीकृष्णचंद ने इस ढब से रस के बचन कहे, तब तो सब गोपियाँ रिस छोड़ प्रसन्न हो उठ हरि से मिलि भाँति भाँति के सुख मान आनन्द मगन हो कुतूहले करने लगीं। तिस समै,

कृष्ण जोगमाया ठई, भये अंस बहु देह।
सब कौ सुख चाहत दियौ, लीला परम सनेह॥

जितनी गोपियाँ थीं तितने ही शरीर श्रीकृष्णचंद ने धर, उसी रासमंडल के चौतरे पर, सब को साथ ले फिर रास विलास को आरम्भ किया।

द्वै द्वै गोपी जोरे हाथा। तिन के बीच बीच हरि साथा॥
अपनी अपनी ढिग सब जाने। नहीं दूसरे को पहिचाने॥
अंगुरिन में अंगुरी कर दिये। प्रफुलित फिरे संग हरि लिये॥
बिच गोपी बिच नंद किशोर। सघन घटा दामिनि चहुँ ओर॥
स्याम कृष्ण गोपी ब्रज बाला। मानहुँ कनक नील मनि माला॥

महाराज, इसी रीति से खड़े होय गोपी और कृष्ण लगे अनेक अनेक प्रकार के यंत्रो के सुर मिलाय मिलाय, कठिन कठिन राग अलाप अलाप, बजाय बजाय गाने औ तीखी, चोखी, आड़ी, डौढ़ी, दुगन, तिगन की ताने उपजे ले ले बोल बताय बताय नाचने। औ आनन्द में ऐसे मगन हुए कि उनको तन मन की भी सुध न थी। कहीं इनका अंचल उघड़ जाता था, कहीं उनका मुकुट खिसल। इधर मोतियों के हार टूट टूट गिरते थे, उधर बनमाल। [ १०४ ]पसीने की बूँदे माथो पर मोतियों की लड़ी सी चमकती थीं औ गोपियों के गोरे गोरे मुखड़ो पर अलके यो बिखर रही थी, कि जैसे अमृत के लोभ से संपोलिये उड़कर चाँद को जा लगे होयँ। कभी कोई गोपी श्रीकृष्ण की मुरली के साथ मिलकर जील में गाती थी, कभी कोई अपनी तान अलग ही ले जाती थी औ जब कोई बंसी को छेक उसकी ताल समूची जो की तो गले से निकालती थी, तब हरि ऐसे भूल रहते थे कि जो बालक दरपन में अपनी प्रतिबिंब देख भूल रहै।

इसी ढब से गाय गाय, नाच नाच, अनेक अनेक प्रकार के हाव, भाव, कटाक्ष कर कर सुख लेते देते थे, औ परस्पर रीझ रीझ हँस हँस, कंठ लगाय लगाय, वस्त्र आभूपन निछावर कर रहे थे। उस काल ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, आदि सब देवता औ गंधर्व अपनी अपनी स्त्रियो समेत विमानों में बैठे रास मंडली का सुख देख देख आनन्द से फूल बरसावते थे, और उनकी स्त्रियाँ वह सुख लख हौस कर मन में कहती थी कि जो जन्म ले ब्रज में जाती तो हम भी हरि के साथ रास बिलास करलीं। औ राग रागनियों का ऐसा समा बँधा हुआ था कि जिसे सुन के पौन पानी भी न बहती थी, औ तारामंडल समेत चन्द्रमा थकित हो किरनो से अमृत बरसाता था। इसमें रात बढ़ी तो छः महीने बीत गये औ किसी ने न जाना, तभी से उस रैन का नाम ब्रह्मरात्रि हुआ।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले―पृथ्वीनाथ, रास लीला करते करते जो कुछ श्रीकृष्णचंद के मन में तरंग आई तो गोपियो को लिये यमुनातीर पै जाय, नीर में पैठ, जल क्रीड़ा कर, श्रम मिटाय, बाहर आय, सब के मनोरथ पूरे कर बोले कि [ १०५ ]अब चार घड़ी रात रही है तुम सब अपने घर जाओ। इतना बचन सुन, उदास हो गोपियों ने कहा—नाथ, आपके चरनकॅबल छोड़के घर कैसे जाँय, हमारा लालची मन तो कहा मानता ही नहीं। श्रीकृष्ण बोले कि सुनौ, जैसे जोगी जन मेरा ध्यान धरते है, तैसे तुम भी ध्यान कीजियो, मैं तुम्हारे पास जहाँ रहोगी तहाँ रहूँगा। इतनी बात के सुनते ही संतोष कर सब विदा हो अपने अपने घर गई औ यह भेद उनके घरवालो में से किसी ने न जाना कि ये यहाँ न थीं।

इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेव मुनि से पूछा कि दीनदयाल, यह तुम मुझे समझाकर कहो जो श्रीकृष्णचंद तो असुरों को मार पृथ्वी का भार उतारने औ साध संत को सुख दे धर्म का पंथ चलाने के लिये औतार आये थे, विन्होने पराई स्त्रियो के साथ रास बिलास क्यों किया, यह तो कुछ लंपट का कर्म है जो विरानी नारी से भोग करें। शुकदेवजी बोले,―

सुन राजा यह भेद न जान्यौ। मानुष सम परमेश्वर मान्यौ॥
जिनके सुमिरे पातक जात। तेजवंत पावन है गात॥
जैसे अग्नि मॉझ कुछ परै। सोऊ अग्नि होय कै जरै॥

सामर्थी क्या नहीं करते क्यौकि वे तो करके कर्म की हानि करते है, जैसे शिवजी ने विष लिया औ खाके केंट को भूषन दिया, औ काले सॉप का किया हार, कौन जाने उनका व्यौहार। वे तो अपने लिये कुछ भी नहीं करते जो विनका भजन सुमिरन कर कोई वर मांगता है तैसाही तिसको देते है।

उनकी तो यह रीति है कि सब से मिले दृष्ट आते है औ ध्यान कर देखिये तो सब ही से ऐसे अगले जनाते हैं जैसे जल से [ १०६ ]कँवल को पाता, और गोपियों की उत्पत्ति तो मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ कि देवी औ वेद की ऋचाएँ हरि का दरस परस करने को व्रज में जन्म ले आई हैं औ इसी भाँति श्रीराधिका भी ब्रह्मा सै बर पाय श्रीकृष्णचंद की सेवा करने को जन्म ले आई और प्रभु की सेवा में रही।

इतना कह श्रीशुकदेवजी बोले–महाराज, कहा है कि हरि के चरित्र मान लीजे पर उनके करने में मन न दीजे। जो कोई गोपीनाथ का जस गाता है सो निर्भय अटल परम पद पाता है, औ जैसा फल होता है अठसठ तीरथ के न्हाने में, तैसा ही फल मिलता है श्रीकृष्ण जस गाने में।


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