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प्रेमसागर/३६ गोपीगीतवर्णन

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ११०

 

श्रीशुकदेव मुनि बोले―राजा, जब तक हरि बन में धेनु चरावे तब तक ब्रज युवतियाँ नंदरानी के पास आय बैठ कर प्रभु का जस गावे। जो लीला श्रीकृष्ण बन में करे, सो गोपियाँ घर बैठी उच्चरे।

सुनौ सूखी बाजति है बैन। पशु पक्षी पावत है चैन॥
पति सँग देवी थकी बिमान। मगन भई हैं धुनि सुन कान॥
करते परहि चुरी मूँदरी। बिहबल मन तन की सुधि हरी॥
तबहीं एक कहैं ब्रजमारि। गरजनि मेघ तेज़ी अति हारि॥
गावत हरि आनंद अडोल। भोह नचावत पानि कपोल॥
पिय सँग मृगी थकी सुनि बेनु। जमुना फिरी घिरी तहँ धेनु॥
मोहे बादुर छैयाँ करे। मानौ छत्र कृष्ण पर धरे॥
अब हरि सघन कुंज कौ धाए। पुनि सब बंसीबट तर आए॥
गायन पाछे डोलत भये। घेर लई जल प्यावन गये॥
सॉझ भई अब उलटे हरी। रांभति गाय धेनु धुनि करी॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इसी रीति से नित गोपियाँ दिन भर हरि के गुन गावे औ साँझ समय आगे जाये श्रीकृष्णचंद आनंदकंद से मिल सुख मान ले आवे। औ तिस समै जसोदा रानी भी रजमंडित पुत्र का मुख प्यार से पोंछ कंठ लगाय सुख माने।

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