प्रेमसागर/३७ कंस नारद संवाद

विकिस्रोत से

[ १११ ]श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन श्रीकृष्ण बलराम साँझ समै धेनु चरायके बन से घर को आते थे, इस बीच एक असुर अति बड़ा बैल बन आय गायो में मिला।

आकाश लौ देह तिनि धरी। पीठ कड़ी पाथर सी करी।
बड़े सींग तीछन दोउ खरे। रक्त नैन अति ही रिस भरे॥
पूँछ उठाय डकारतु फिरै। रहि रहि मूतत गोबर केरै॥
फड़कै कंध हिलावै कोन। भजे देव सब छोड़ बिमान॥
खुर स खोदै नदी करारे। पर्वत उथल पीठ सो डारे॥
सब कौ त्रास भयो तिहि काल। कंपहि लोकपाल दिगपाल॥
पुथ्वी हलै शेष थरहरै। तिय औं धेनु गर्भ भू परें॥

उसे देखतेही सब गाये तो जिधर तिधर फैल गईं औ ब्रजबासी दौड़ वहाँ आए, जहाँ सब के पीछे कृष्ण बलराम चले आते थे। प्रनाम कर कहा―महाराज, आगे एक अति बड़ा बैल खड़ा है, उससे हमें बचाओ। इतनी बात के सुनतेही अन्तरजामी श्रीकृष्णचंद बोले कि तुम कुछ मत डरो उससे, वह वृषभ का रूप बनकर आया है नीच, हमसे चाहता है अपनी मोच। इतना कह आगे जाय उसे देख बोले बनवारी, कि अब हमारे पास कपट तन धारी। लू और किसू को क्यौ डराता है, मेरे निकट किस लिये नहीं आता। जो बैरी सिंह का कहावत है, सो मृग पर नहीं धावता। देख मैं ही हूँ कालरूप गोविंद, मैने तुझसे बहुतों को मार के किया है निकंद। [ ११२ ]यो कह फिर ताल ठोक ललकारे―आ मुझसे संग्राम कर। यह बचन सुनते ही असुर ऐसे क्रोध कर धाया कि मानौ इंद्र का बज्र आया। जों जो हरि उसे हटाते थे त्यो त्यो वह सँभल सँभल बढ़ा आता था। एक बार जो इन्होने विसे दे पटका तो ही खिजलाकर उठा औ दोनों सींगों में उसने हरि को दबाया, तब तो श्रीकृष्णजी ने भी फुरती से निकल झट पाँव पर पाँव दे उसके सींग पकड़ यो मरोड़ा कि जैसे कोई भीगे चीर को निचोड़ै। निदान वह पछाड़ खाय गिरा औ उसका जी निकल गया। तिस समै सब देवता अपने अपने बिमानों में बैठ आनंद से फूल बरसोवने लगे औ गोपी गोप कृष्णजस गाने। इस बीच श्रीराधिकाजी ने आ हरि से कहा कि महाराज बृपभ रूप जो तुमने मारा इसका पाप हुआ, इससे अब तुम तीरथ न्हाय आओ तब किसी को हाथ लगाओ। इतनी बात के सुनते ही प्रभु बोले कि सब तीरथो को मैं ब्रजही में बुला लेता हूँ। यो कह गोवर्द्धन के निकट जाय दो औडे कुंड खुदवाए, तही सब तीरथ देह धर आए और अपना नाम कह कह उनमें जल डाल डाल चले गये। तब श्रीकृष्णचंद उसमें स्नान कर, बाहर आय, अनेक गोदान दे, बहुत से ब्राह्मन जिमाय शुद्ध हुए, औं विसी दिन से कृष्णकुंड, राधाकुंड करके वे प्रसिद्ध हुए।

यह प्रसंग सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, एक दिन नारद मुनि जी कंस के पास आए, औ उसका कोप बढ़ाने को जब उन्होंने बलराम औ स्याम के होने औ माया के आने औ कृष्ण के जाने का भेद समझाकर कहा तब कंस क्रोध कर बोला―नारद जी तुम सच कहते हो। [ ११३ ]

प्रथम दियौ सुत आनिकै, मन परतीत बढ़ाय।
जो ठग कछू दिखाई कै, सर्वसु ले भजि जाय॥

इतना कह वसुदेव को बुलाय पकड़ बाँँधा औ खांड़े पर हाथ रख अकुला कर बोला।

मिला रहा कपटी तू मुझे। भेला साध जाना मैं तुझे॥
दिया नंद के कृष्ण पठाय। देवी हमें दिखाई आय॥
मन में कुछ कही मुख और। आज अवश्य मारूं इहि ठौर॥
मित्र सगो सेवक हितकारी। करै कपट सो पापु भारी॥
मुख मीठा मन विष भरा, रहे कपट के हेत।
आप काज पर द्रोहिया, उससे भला जु प्रेत॥

ऐसे बेक झक फिर कंस नारदजी से कहने लगा कि महाराज, हमने कुछ इसके मन का भेद ने पाया, हुआ लड़का औ कन्या को ला दिखाया, जिसे कहा अधूरा गया, सोई जा गोकुल में बलदेव भया। इसना कह क्रोध कर ओठ चबाय खड़क उठाय जो चाहा कि वसुदेव को मारूँ, तो नारद मुनि ने हाथ पकड़कर कहा―राजा, बसुदेव को तो तू रख आज, औ जिसमें कृष्ण बलदेव आवे सो कर काज। ऐसे समझाय बुझाय जब नारद मुनि चले गये, तब कंस ने बसुदेव देवकी को तो एक कोठड़ी में मूँद दिया औ आप भयातुर हो केसी नाम राक्षस को बुलाके बोला।

महा बली तू साथी मेरा। बड़ा भरोसा मुझको तेरा।
एक बार तू ब्रज में जा। रामकृष्ण हनि मुझे दिखा॥

इतना बचन सुनतेही केसी तो आज्ञा पा विदा हो दंडवत कर वृंदावन को गया है कंस ने साल, तुसाल, चानूर, अरिष्ठ, ब्योमासुर, आदि जितने मंत्री थे सब को बुला भेजा। वे आए, [ ११४ ]तिन्हे समझाकर कहने लगा कि मेरा बैरी पास आय बसा है, तुम अपने जी में सोच विचार करके मेरे मन का सूल जो खट- कता है निकालो। मन्त्री बोले―पृथ्वीनाथ, आप महा बली हो, किससे डरते है। राम कृष्ण का मारना क्या बड़ी बात है, कुछ चिंता मत करो, जिस छल बल से वे यहाँ आवे सोई हम मता बतावे।

पहले तो यहाँ भली भाँति से एक ऐसी सुंदर रंगभूमि वन- वावे, कि जिसकी सोभा सुनतेही देखने को नगर नगर गाँव गाँव के लोग उठ धावे। पीछे महादेव का जज्ञ करवाओ औ होम के लिये बकरे भैंसे मँगवाओ। यह समाचार सुन सब ब्रजबासी भेट लावेगे, तिनके साथ रामकृष्ण भी आवेगे। उन्हें तभी कोई मल्ल पछाड़ेगा, कै कोई और ही बली पौर पै मार डालेगा। इतनी बात के सुनते ही―

कहै कंस मन लाय, भलौ मतौ मन्त्री कियौ।
लीने मल्ल बुलाय, आदर कर बीरा दए॥

फिर सभा कर अपने बड़े बड़े रासक्षो से कहने लगा कि जब हमारे भानजे राम कृष्ण यहाँ आवे तब तुममें से कोई उ हें मार डालियो, जो मेरे जी का खटका जाय। विन्हे यो समझाय पुनि महावत को बुलाके बोला कि तेरे बश में मतवाला हाथी है, तू द्वार पर लिये खड़ा रहियो। जद वे दोनो आवे औ बार में पाँव दें तद तू हाथी से चिरवा डालियो, किनी भाँति भागने न पावे। जो विन दोनों को मारेगा, सो मुँह माँगा धन पावेगा।

ऐसे सब को सुनाय समझाय बुझाय कार्तिक बदी चौदस को शिव का जज्ञ टहराय, कंस ने साँझ समै अक्रर को बुलाय [ ११५ ]अति आवभगति कर, घर भीतर ले जाय, एक सिहासन पर अपने पास बैठाय, हाथ पकड़ अति प्यार से कहा कि तुम यदुकुल में सबसे बड़े, ज्ञानी, धरमात्मा, धीर हो, इस लिये तुम्हें सब जानते है। ऐसा कोई नहीं जो तुम्हें देख सुखी न होय, इससे जैसे इन्द्र को काज बावन ने जो किया जो छल कर बलि का सारा राज ले दिया औ राजा बलि को पाताल पठाया, तैसे तुम हमारा काम करो तो एक बेर बृंदावन जाओ और देवकी के दोनो लड़को को जो बने तो छल बल कर यहाँ ले आओ।

कहा है जो बड़े हैं सो आप दुख सह करते हैं पराया काज, तिसमें तुम्हें तो है हमारी सब बात की लाज। अधिक क्या कहेगे जैसे बने वैसे उन्हें ले आओ, तो यहाँ सहजही में मारे जायँगे। कै तो देखते चानूर पछाड़ेगा, कै गज कुबलिया पकड़ चीर डालेगा, नहीं तो मैं ही उठ मारूँँगा, अपना काज अपने हाथ सँवारूँँगई। और उन दोनों को मार पीछे उग्रसेन को हनूँँगा, क्योंकि वह बड़ा कपटी है, मेरा मरना चाहता है। फिर देवकी के पिता देवक को आग से जलाय पानी में डबोऊँगा। साथ ही उसके बसुदेव को मार हरिभक्तो को जड़ से खोऊंगा, तब निकैदक राज कर जरासिंधु जो मेरा मित्र है प्रचंड, उसके त्रास से काँपते है नौखंड। औ नरकासुर, बामासुर, आदि बड़े बड़े महाबली राक्षस जिसके सेवक है तिससे जा मिलूँगा, जो तुम राम कृष्ण को ले आओ।

इतनी बातें कहकर कंस फिर अक्रूर को समझाने लगा कि तुम बृंदावन में जाय नंद के यहाँ कहियो जो शिव का यज्ञ है, धनुष धरा है औ अनेक प्रकार के कुतूहल वहाँ होयँगे। यह सुन [ ११६ ]नंद उपनंद गोपो समेत बकरे भैसे ले भेंट देने लावरो, तिनके साथ देखने को कृष्ण बलदेव भी आवेगे। यह तो मैंने तुम्हें उनके लावने का उपाय बता दिया, आगे तुम सज्ञान हो, जो और उकत बनि आवे सो करि कहियो, अधिक तुमसे क्या कहें। कहा है―

होय बिचित्र बसीठ, जाहि बुद्धि बल आपनौ।
पर कारज पर ढीठ, करहि भरोसो ता तनौ॥

इतनी बात के सुनतेही पहले तो अक्रूर ने अपने जी में विचारा कि जो मैं अब इसे कुछ भली बाल कहूँगा तो यह न मानेगा, इससे उत्तम यही कि इस समय इनके मनभाती सुहार्ती बात कहूँ। ऐसे और भी ठौर कहा है कि वही कहिए जो जिसे सुहाय। यो सोच विचार अक्रूर हाथ जोड़ सिर झुकाय बोला―महाराज, तुमने भला मता किया, यह वचन हमने भी सिर चढ़ाय लिया, होनहार पर कुछ बस नहीं चलता। मनुष्य अनेक मनोरथ कर धावता है, पर करम का लिखा ही फल पावता है। आगम बाँध तुमने यह बात विचारी है, न जानिए कैसी होय, मैंने तुम्हारी बात मान ली, कल भोर को जाऊँगा औ रामकृष्ण को ले आऊँगा। ऐसे कह कंस से बिदा हो अक्रूर अपने घर आया।