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प्रेमसागर/३८ व्योमासुर वध

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ११७ से – ११९ तक

 

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जो श्रीकृष्णचंद ने केसी को मारा औ नारद ने जय स्तुति करी, पुनि हरि नै ब्योमासुर को हना तो सब चरित्र कहता हूँ, तुम चित्त दे सुनो कि भोर होते ही केसी अप्ति ऊँचा भयावना घोड़ा बन बूंदाबन में आया और लगा लाल लाल आँखै कर नथने चढ़ाय कान पूँँछ उठाय टाप टाप भूँ खोदने, हीस हीस कांधा कृपाय लाते चलाने।

उसे देखते ही ग्वालबालो ने भय खाय भाग श्रीकृष्ण से जा कहा। वे सुनके वहाँ आये, जहाँ वह था औ विसे देख लड़ने को फट बाँध ताल ठोक सिह की भाँति गरज कर बोले―अरे, जो तू कंसका बड़ा प्रीतम है औ घोड़ा आया है तो और के पीछे क्या फिरता है, आ मुझसे लड़ जो तेरा बल देखू। दीप पतंग की भाँति कब तक फिरेगा, तेरी मृत्यु तो निकट आन पहुँची है। यह बचन सुन केसी कोप कर अपने मन में कहने लगा कि आज इसको बल देखूँगा औ पकड़ ईख की भाँति चवाय कंस को कारज कर जाऊँगा।

इतना कह मुँह बाय के ऐसे दौड़ा कि मानो सारे संसार को खा जायगा। आतेही पहले जो उसने श्रीकृष्ण पर मुँह चलाया तो उन्होने एक बेर तो धकेल कर पीछे हटाया। जब दूसरी बेर वह फिर सँभल के मुख फैलाय धाया, तब श्रीकृष्ण ने अपना हाथ उसके मुँह में डाल लोह लाठ सा कर ऐसा बढ़ाया कि जिसने उसके दसो द्वार जा रोके, तब तो केसी घबरा जी से कहने लगा कि अब देह फँटती है, यह कैसी भई अपनी मृत्यु आप मुँह में ली, जैसे मछली बंसी को निगल प्राण देती है, तैसे मैने भी अपना जीव खोया।

इतना कह उसने बहुतेरे उपाय हाथ निकालने को किये पर एक भी काम न आया। निदान सांस रुक कर पेट फट गया तो पछाड़ खाय के गिरा तब उसके शरीर से लोहू नदी की भाँति बह निकली। तिस समय ग्वालबाल आय आय देखने लगे औ श्रीकृष्णचंद आगे जाय वन में एक कदम की छाँह तले खड़े हुए।

इस बीच बीन हाथ में लिए नारद मुनि जी आन पहुँचे, प्रनाम कर खड़े होय बीन बजाय श्रीकृष्णचंद की भूत भविष्य की सब लीला औ चरित्र गायके बोले कि कृपानाथ तुम्हारी लीला अपरंपार है, इतनी किस में सामर्थ है जो आपके चरित्रों को बखाने, पर तुम्हारी दया से मै इतना जानता हूँ कि आप भक्तो को सुख देने के अर्थ औं साधों की रक्षा के निमित्त औं दुष्ट असुरो के नाश करने के हेतु बार बार औतार ले संसार मे प्रगट हो भूमि का भार उतारते हो।

इतना बचन सुनतेही प्रभु ने नारद मुनि को तो बिदा दी। वे दंडवत कर सिधारे औ आप सब ग्वालबाल सखाओं को साथ लिये, एक बड़ के तले बैठ पहले तो किसी को मंत्री, किसी को प्रधान, किसी को सेनापति बनाये आप राजा हो राजरीति के खेल खेलने लगे औ पीछे आँखमिचौली। इतनी कथा कह श्रीशुकदेव जी बोले कि पृथ्वीनाथ,


मान्यों केसी भोर ही, सुनी कंस यह बात।
ब्योमासुर सो कहतु है, झंखत कंपत गात॥

अरि कुंदन ब्योमासुर बली। तेरी जग में कीरति भली॥

ज्यों राम के पवन को पूत। त्यों ही तू मेरे यमदूत॥
बसुदेव के पूत हनि ल्याव। आजकाज मेरौ करि आव॥

यह सुन, कर जोड़ ब्योमासुर बोला―महाराज जो बसायगी सो करूंगा आज, मेरी देह है आप ही के काज। जो जी के लोभी हैं, तिन्हे स्वामी के अर्थ जी देते आती हैं लाज। सेवक औ स्त्री को तो इसी में जस धरम है जो स्वामी के निमित्त प्रान दे।

ऐसे कह कृष्ण बलदेव पर बीड़ा उठाय कंस को प्रनाम कुर ब्योमासुर बृंदाबन को चला। बाद में जाय ग्बाल का भेष बनाय चला चला वहाँ पहुँचा, जहाँ हरि ग्बालबाल सखाओं के साथ आँखमिचौली खेल रहे थे। जातेही दूर से जब उसने हाथ जोड़ श्रीकृष्णचंदसे कहा―महाराज, मुझे भी अपने साथ खिलाओ, तब हरि ने उसे पास बुला कर कहा–तू अपने जी में किसी बात की होसे मत रख जो तेरा मन माने सो खेल हमारे संग खेल। यो सुन वह प्रसन्न हो बोला कि वृक मेढ़े का खेल भला हैं। श्रीकृष्णचंद ने मुसकुराय के कहा―बहुत अच्छा, तू बन भेड़िया ओ सब ग्वालबाल होवे मेंढ़े। सुनते ही फूलकर व्योमासुर तो ल्यारो हुआ औ ग्बालबाल बने मेढ़े, भिलकर खेलने लगे।

तिस समै वह असुर एक एक को उठा ले जाय औ पर्बत की गुफा में रख उस के मुँह पर आड़ी सिला धर मूँद के चला आवे। ऐसे जब सब को वहाँ रख आया औ अकेले श्रीकृष्ण रहे, तब ललकार कर बोला कि आज कंस का काज सारूँगा औ सब यदुवंसियो को मारूँगा। यों कह ग्वाल का भेष छोड़ सचमुच भेड़िया बन जो हरि पर झपटा तो उन्होने उसको पकड़ गला घोट मारे घूसों के यों मार पटका कि जैसे यज्ञ के बकरे को मार डालते हैं।