प्रेमसागर/५१ जरासंधपराजय

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एक्यावनवांं अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जो श्रीकृष्णाचंद दुल समेत जरासंध को जीत कालयवन को मार मुचकुंद को तार ब्रज को तज द्वारका में जाय बसे, तो मैं सब कथा कहता हूँ, तुम सचेत हो चित्त लगाय सुनो कि राजा उग्रसेन तो राजनीति लिये मथुरा पुरी का राज करते थे, औ श्रीकृष्ण बलराम सेवक की भाँति उनकी आज्ञाकारी। इससे राजा राज प्रजा सुखी थी, पर एक कंस की रानियाँ ही अपने पति के शोक से महा दुखी थीं। न उन्हें नींद आती थी न भूख प्यास लगती थी, आठ पहर उदास रहती थीं।

एक दिन वे दोनों बहन अति चिंता कर आपस में कहने लगी कि जैसे नृप बिना प्रजा, चंद बिन जामिनी, शोभा नहीं पाती, तैसे कंत बिन कामिनी भी शोभा नहीं पाती। अब अनाथ को यहाँ रहना भला नहीं, इससे अपने पिता के घर चल रहिये सो अच्छा। महाराज, वे दोनो रानियाँ जैसे आपस में सोच विचार रथ मँगवाय उसपर चढ़, मथुरा से चली चली मगध देश में अपने पिता के यहाँ आईं, औ जैसे श्रीकृष्ण बलरामजी ने सब असुरो समेत कंस को मारा, तैसे उन दोनों ने रो रो समाचार अपने पिता से कह सुनाया।

सुनते ही जरासंध अति क्रोध कर सभा में आया औ लगा कहने कि ऐसे बली कौन यदुकुल में उपजे, जिन्होने सबै असुरो समेत महाबली कंस को भार मेरी बेटियों को राँड़ किया। मैं [ १७७ ]
अभी अपना सब कटक ले चढ़ धाऊँ औ सब यदुबंसियों समेत मथुरा पुरी को जलाय राम कृष्ण को जीता बाँध लाऊँ, तो मेरा नाम जरासंध, नहीं तो नहीं।

इतना कह उसने तुरंतही चारो ओर के राजाओ को पत्र लिखे कि तुम अपना दल ले ले हमारे पास आओ, हम कंस का पलटा ले यदुबंसियों को निर्वश करेगे। जरासंध का पत्र पाते ही सब देश देश के नरेश अपना अपना दल साथ ले झट चले आये, और यहाँ जरासंध ने भी अपनी सब सेना ठीक ठाक बनाय रक्खी। निदान सब असुरल साथ ले जरासंध ने जिस समै मगध देश से मथुरा पुरी को प्रस्थान किया तिस समैं उसके संग तेईस अक्षौहिनी थी। इक्कीस सहस्र आठ सौ सत्तर रथी, औ इतनेही गजपति, एक लाख नव सहस्त्र साढ़े तीन सौ पैदल, औ छःसठ सहस्र अश्वपति, यह अक्षौहिनी का प्रमाण हैं।

ऐसी तेईस अक्षौहिनी उसके साथ थी औ उनमें जो एक एक राक्षस जैसा बली था सो मैं कहाँ तक वर्नेन करूँ। महाराज जिस काल जरासंध सब असुर सेना साथ ले धौसा दे चला, उस काल दुसो दिसा के दिगपाल लगे थर थर काँपने, औं सब देवता मारे डर के भागने, पृथ्वी न्यारीही बोझ से लगी छोत सी हिलने। निदान कितने एक दिन में चला चला जा पहुँचा औ उसने चारों ओर से मथुरा पुरी को घेर लिया, तब नगरनिवासी अति भय खाये श्रीकृष्ण के पास जा पुकारे कि महाराज, जरासन्ध ने आय चारों ओर से नगर घेरा अब क्या करें औ किधर जायँ।

इतनी बात के सुनतेही हरि कुछ सोच विचार करने लगे, इसमे बलरामजी ने आय प्रभु से कहा कि महाराज, आपने भक्तो [ १७८ ]
का दुख दूर करने के हेतु अवतार लिया है, अब अग्नितन धारन कर असुररूपी बन को जलाय, भूमि का भार उतारिये। यह सुन श्रीकृष्णचंद उनको साथ ले उग्रसेन के पास गये औ कहा कि महाराज, हमें तो लड़ने की आज्ञा दीजै, और अप सब यदुबंसियों को साथ ले गहू की रक्षा कीजै।

इतना कह जो मात पिता के निकट आए, तो सब नगरनिवासी घिर आए, औं लगे अति व्याकुल हो कहने कि हे कृष्णा, हे कृष्ण, अब इन असुरो के हाथ से कैसे बचे। तब हरि ने मात पिता समेत सब को भयातुर देख समझाके कहा कि तुम किसी भाँति चिन्ता मत करो। यह असुरदल जो तुम देखते हो, सो पल भर में यहाँ का यही बिलाय जायगा कि जैसे पानी के बलूले पानी में बिलाय जाते है। यो कह सबको समझाय बुझाय ढाढ़स बँधाय उनसे विदा हो प्रभु जो आगे बढ़े तो देवताओं ने दो रथ शस्त्र भर इनके लिये भेज दिये। वे आये इनके सोहीं खड़े हुए तब ये दोनो भाई उन दोनों रथ में बैठ लिये।

निकसे दोऊ यदुराय। पहुँचे सुदल में जाय॥

जहाँ जरासंध खड़ा था तहाँ जा निकले, देखतेही जरासन्ध श्रीकृष्णचंद से अति अभिमान कर कहने लगा―अरे तू मेरे सोही से भाग जा मैं तुझे क्या मारूँ, तू मेरी समान को नहीं जो मैं तुझ पर शस्त्र चलाऊँ, भला बलराम को मैं देख लेता हूँ। श्रीकृष्णचंद बोले―अरे मूरख अभिमानी, तू यह क्या बुकता है, जो सूरमा होते है सो बड़ा बोल किसी से नहीं बोलते, सबसे दीनता करते हैं, काम पड़े अपना बल दिखाते हैं, और जो अपने मुँह अपनी [ १७९ ]बड़ाई मारते हैं सो क्या कुछ भले कहाते है। कहा है कि गरजता है सो बरसता नहीं, इससे बृथा बकवाद क्यो करता है।

इतनी बात के सुनतेही जरासंध ने जो क्रोध किया, तों श्रीकृष्ण बलदेब चल खड़े हुए। इनके पीछे वह भी अपनी सब सेना ले धाया औ उसने यो पुकारके कह सुनाया―अरे दुष्टो, मेरे आगे से तुम कहाँ भाग जाओगे, बहुत दिन जीते बचे। तुमने अपने मन में क्या समझा है। अब जीते न रहने पओगे, जहाँ सब असुरो समेत कंस गया है तहाई सब यदुबंसियो समेत तुम्हें भी भेजूँगा। महाराज, ऐसा दुष्ट बचन उस असुर के मुख से निकलतेही, कितनी एक दूर जाय दोनों भाई फिर खड़े हुए। श्रीकृष्णजी ने तो सब शस्त्र लिये औ बलरामजी ने हल मूसल। जों असुरदल उनके निकट गया तो दोनों बीर ललकार के ऐसे टूटे कि जैसे हाथियो के यूथ पर सिंह टूटे, औ लगा लोहा बाजने।

उस काल मारू जो बाजता था, सो तो मेघ सा गाजता था, औ चारो ओर से राक्षस का दल जो घिर आया था, सो दल बादल सा छाया था। औ शस्त्रों की झड़ सी लगी थी। उसके बीच श्रीकृष्ण बलराम युद्ध करते ऐसे शोभायमान लगते थे, जैसे सघन घन में दामिनी सुहावनी लगती है। सब देवता अपने अपने बिमानो पर बैठे आकाश से देख देख प्रभु का जस गाते ये, औ उन्हीं की जीत मानने थे, और उग्रसेन समेत सब यदुवंसी अति चिन्ता कर मनही मन पछताते थे कि हमने यह क्या किया, जो श्रीकृष्ण बलराम को असुर दल में जाने दिया।

इतनी कथा सुनाथ श्रीशुकदेवजी बोले कि पृथ्वीनाथ―जब लड़ते लड़ते असुरो की बहुत सी सेना कट गई, तब बलदेवजी ने [ १८० ]रथ से उतर जरासंघ को बाँध लिया। इसमें श्रीकृष्णचंदजी ने जा बलराम से कहा कि भाई, इसे जीता छोड़ दो, मारो मत, क्यौकि यह जीता जायगा तो फिर असुरों को साथ ले आवेगा, तिन्हें मार हम भूमि का भार उतारेगे, औ जो जीता न छोड़ने तो जो राक्षस भाग गये है सो हाथ न आवेगे। ऐसे बलदेवजी को समझाय प्रभु ने जरासंध को छुड़वाय दिया। वह अपने विन लोगों में गया जो रन से भाग के बचे थे।

चहुँ दिस चाहि कहै पछताय। सिगरी सेना गई बिलाय॥
भयो दुःख अति कैसे जीजै। अब घर छाडि तपस्या कीजै॥
मन्त्री तबै कहै समझाय। तुमस झानी क्यो पछताये॥
कबहूँ हार जीत पुनि होइ। राज देस छोड़े नहि कोइ॥

क्या हुआ जो अब की लड़ाई में हारे। फिर अपना दल जोड़ लावेगे औ सब यदुबंसियों समेत कृष्ण बलराम को स्वर्ग पठावेगे। तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। महाराज, ऐसे समझाय बुझाय जो असुर रन से भाग के बचे थे तिन्हे औ जरासंध को मन्त्री ने घर ले पहुँचाया, औ वह फिर वहाँ कटक जोड़ने लगा। यहाँ श्रीकृष्ण बलराम रनभूमि में देखते क्या है कि लोहू की नदी बह निकली है, तिसमें रथ बिना रथी नाव से बहे जाते हैं। ठौर ठौर हाथी मरे पहाड़ से पड़े दृष्ट आते है। उनके घावों से रक्त झरनों की भाँति झरता है तहाँ महादेवजी भूत प्रेत संग लिये अति आनन्द कर नाच नाच गाय गाय मुंडो की माला बनाय बनाय पहनते है। भूतनी प्रेतनी जगिनियाँ खप्परो भर भर रक्त पीती है, गिद्ध, गीदड़, काग लोथों पर बैठ बैठ मास खाते है औ आपस में लड़ते जाते है। [ १८१ ]इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जितने रथ हाथी घोड़े औ राक्षस उस खेत में रहे थे तिन्हें पवन ने तो समेट इकट्ठा किया और अग्नि ने पल भर में सबको जलाय भस्म कर दिया। पंचतत्व पंचतत्व में मिल गये। उन्हें आते सबने देखा पर जाते किसी ने न देखा कि किधर गये। ऐसे असुरों को मार भूमि का भार उतार श्रीकृष्ण बलराम भक्तहितकारी उग्रसेन के पास आय दंडवत कर हाथ जोड़ बोले कि महाराज, आपके पुन्य प्रताप से असुरदल मार भगाया, अब निर्भय राज कीजे, औ प्रजा को सुख दीजे। इतनी बचन इनके मुख से निकलतेही राजा उग्रसेन ने अति आनन्द मान बड़ी बधाई की औ धर्मराज करने लगे। इसमें कितने एक दिन पीछे फिर जरासंध उतनीही सेना ले चढ़ि आया, औ श्रीकृष्ण बलदेवजी ने पुनि त्यौही मार भगाया। ऐसे तेईस तेईस अक्षौहिनी ले जरासंध सत्रह बेर चढ़ि आया, औ प्रभु ने मार मार हटाया।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इस बीच नारद मुनि जी के जो कुछ जी से आई तो ये एकाएकी उठकर कालयवन के यहाँ गये। इन्हें देखतेही वह सभा समेत उठ खड़ा हुआ, औ उसने दंडवत कर, कर जोड़ पूछा कि महाराज, आपका आना यहाँ कैसे भया।

सुनिकै नारद कहै बिचारि। मथुरा में बलभद्र मुरारि।
तो बिन तिन्है हतै नहि कोइ। जरासंध सो कछु नहि होइ॥

तू है अमर अति बत, बालक हैं बलदेव औ हरी। यो कह फिर नारदजी बोले कि जिसे तू मेघबरन, कॅवलनैन, अति सुंदर बदन, पीतांबर पहरे, पीतपट ओढ़े देखे तिसका तू पीछा बिन [ १८२ ]
मारे मत छोड़ियो। इतना कह नारद मुनि तो चले गये औ कालयवन अपना दल जोड़ने लगी। इसमें कितने एक दिन बीच उसने तीन कड़ोड़ महा मलेच्छ अति भयावने इकट्ठे किये। ऐसे कि जिनके मोटे भुज, गले, बड़े दाँत, मैले भेस, भूरे केस, नैन लाल घँघची से, तिन्हें साथ ले डंका दे मथुरा पुरी पर चढ़ि आया, औ उसे चारों ओर से घेर लिया। इस काल श्रीकृष्णचंद जी ने उसका व्योहार देख अपने जी में बिचारा कि अब यहाँ रहना भला नहीं क्यौकि आज यह चढ़ आया है, औ कल को जरासंध भी चढ़ आवे तो प्रजा दुख पावेगी। इससे उत्तम यही है कि यहाँ ने रहिए, सब समेत अनत जाय बसिये। महाराज, हरि ने यो बिचार कर बिस्वकर्मा को बुलाय समझाये बुझायके कहा कि तू अभी जाके समुद्र के बीच एक नगर बनाव, ऐसा जिसमें सब यदुबंसी सुख से रहै, पर वे यह भेद न जाने कि ये हमारे घर नही औ पल भर में सबको वहाँ ले पहुँचाव।

इतनी बात के सुनतेही जा बिश्वकर्मा ने समुद्र के बीच सुदरसन के ऊपर, बारह योजन का नगर जैसा श्रीकृष्णजी ने कहा था तैसाही रात भर में बनाय, उसका नाम द्वारका रख, आ, हरि से कहा। फिर, प्रभु ने उसे आज्ञा दी कि इसी समै तू सब यदुबंसियो को वहाँ ऐसे पहुँचाय थे कि कोई यह भेद न जाने जो हम कहाँ आए औ कौन ले आया।

इतना बचन प्रभु के मुख से जो निकला तो रातों रातही देवकी वसुदेव समेत विस्वकर्मा ने सथ यदुबंसियो को ले पहुँचाया, औ श्रीकृष्ण बलराम भी वहाँ पधारे। इस बीच समुद्र की लहर का शब्द सुन सब यदुबंसी चौक पड़े औ अति अचरज कर [ १८३ ]
आपस में कहने लगे कि मथुरा में समुद्र कहाँ से आया, यह भेद कुछ जाना नहीं जाता।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा पृथ्वीनाथ, ऐसे सब यदुबंसियो को द्वारका में बसाय श्रीकृष्णचंद- जी ने बलदेवजी से कहा कि भाई अब चलके प्रजा की रक्षा कीजे औ कालयवन का बध। इतना कह दोनो भाई वहाँ से चल ब्रज- मंडल में आए।




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