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प्रेमसागर/५२ कालयवनमरण, मुचकुंदतारण, द्वारकागमन

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प्रेमसागर
लल्लूलाल जी, संपादक ब्रजरत्नदास

वाराणसी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १८४ से – १८९ तक

 
बावनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, ब्रजमंडल में आतेही श्रीकृष्णचंद ने बलरामजी को तो मथुरा में छोड़ा आप रूपसागर, जगतउजागर, पीतांबर पहने, पीतपट ओढ़े, सब सिगार किये, कालयवन के दल मे जाय उसके सन्मुख हो निकले। वह इन्हे देखतेही अपने मन मे कहने लगा कि हो न हो चही कृष्ण है, नारद मुनि ने जो चिह्न बताते थे सो सब इसमे पाये जाते हैं। इन्होने कंसादि असुर मारे, जरासंध की सब सेना हनी। ऐसे मनही मना बिचार―

कालयवन यो कहै पुकारि। काहे भागे जात मुरारि॥
आय पच्यौ अब मोसो काम। ठाढ़े रहौ करौ संग्राम॥
जरासंध हो नाहीं कंस। यादवकुल कौ करौ विध्वंस॥

हे राज, यो कह कालयवन अति अभिमान कर अपनी सब सेना को छोड़ अकेला श्रीकृष्णचंद के पीछे धाया, पर उस मूरख ने प्रभु का भेद न पाया। आगे आगे तो हरि भाजे जाते थे औ एक हाथ के अन्तर से पीछे पीछे वह दौड़ा जाता था। निदान भागते भागते जब अनेक दूर निकल गये तब प्रभु एक पहाड़ की गुफा में अड़ गये, वहां जो देखे तो एक पुरुष सोया पड़ा है। ये झट अपना पीतांबर उसे उढ़ाय आप अलग एक ओर छिप रहे। पीछे से कालयवन भी दौड़ती हॉफता उस अति अँँधेरे कंदरा में जा पहुँचा, औ पीतांबर ओढ़े विस पुरुष को सोता देख इसने अपने जी में जाना कि यह कृष्ण ही छलकर सो रहा है। महाराज, ऐसे मनही मन विचार क्रोध कर उस सोते हुए को एक लात मार कालयवन बौला―अरे कपटी, क्या मिसकर साधु की भॉति निचिताई से सो रहा है, उठ, मैं तुझे अबहीं मारता हूँ। यो कह इसने उसके ऊपर से पीतांबर झटक लिया। वह नींद से चौक पड़ा और जो क्सिने इसकी ओर क्रोध कर देखा तो यह जल बल भस्म हो गया। इतनी बात सुनते राजा परीक्षित ने कहा―

यह शुकदेव कहौ समझाय। को वह रह्यौ केंदरी जाय॥
ताकी दृष्ट भस्म क्यौ भयौ। कृाने वाहि महा बर दुयौ॥

श्रीशुकदेव मुनि बोले पृथीनाथ, इक्ष्वाकुवंसी क्षच्री मानधाता का बेटा मुचकुन्द अतिबली महाप्रतापी जिसका अरिदल दलन जस छाय रहा नौचंड, एक समै सब देवता असुरो के सताये निपट घबराये मुचकुन्द के पास आये, औ अति दीनता कर उन्होने कहा―महाराज, असुर बहुत बढ़े, अब तिनके हाथ से बच नही सकते, बेग हमारी रक्षा करो। यह रीतिं परंपरा से चली आई है कि जब जब सुर मुनि ऋषि प्रबल हुए हैं, तब तब उनकी सहायता क्षत्रियो ने करी है।

इतनी बात के सुनते ही मुचकुन्द उनके साथ हो लिया, औ जाके असुरो से युद्ध करने लगा। इसमें लड़ते लड़ते कितने ही जुग बीत गये तत्र देवताओ ने मुचकुन्द से कहा कि महाराज, आपने हमारे लिये बहुत श्रम किया अब कहीं बैठ बिश्राम लीजिये औ देह को सुख दीजिये।

बहुत दिननि कीनौ संग्राम। गयौ कुटुम्ब सहित धन धाम॥
रह्यौ न कोऊ तहाँ तिहारौ। ताते अब जिन घर पग धारौ॥

और जहाँ तुम्हारा मन माने तहाँ जाओ। यह सुन मुचकुन्द
ने देवताओं से कहा―कृपानाथ, मुझे कहीं कृपा कर ऐसी एकान्त ठौर बताइये कि जहाँ जाय मैं निचंताई से सोऊँ औ कोई न जगावे। इतनी बात के सुनते ही प्रसन्न हो देवताओं ने मुचकुंद से कहा कि महाराज, आप धौलागिरि पर्वत की कन्दरा में जाय सयन कीजिये, वहाँ तुम्हें कोई न जगावेगा औ जो कोई जाने अनजाने वहाँ जाके तुम्हें जगावेगा, तो वह देखते ही तुम्हारी दृष्ट से जल बल राख हो जावेगा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज ऐसे देवताओं से बर पाय मुचकुन्द विस गुफा में सो रहा था। इससे उसकी दृष्टि पड़तेही कालयवन जखकर छार हो गया। आगे करुनानिधान कान्ह भक्तहितकारी ने मेघबरन, चंदमुख, कँवलनैन, चतुर्भुज हो, शंख, चक्र, गदा, पद्म लिये,,मोर मुकुट, मकराकृत कुंडल, बनमाला औ पीताम्बर पहरे मुचकुन्द को दरसन दिया। प्रभु का स्वरूप देखतेही वह अष्टांग प्रनाम कर खड़ा हो हाथ जोड़ बोला कि कृपानाथ, जैसे आपने इस महा अँधेरी कन्दरा में आय उजाला कर तम दूर किया, तैसे दया कर अपना नाम भेद बताय मेरे मन का भी भरम दूर कीजे।

श्रीकृष्णचंद बोले कि मेरे तो जन्म कर्म और गुन हैं घने, वे किसी भाँति गने न जायँ। कोई कितना ही गिने। पर मैं इस जन्म का भेद कहता हूँ सो सुनौ अब के वसुदेव के यहाँ जन्म लिया इससे बासुदेव मेरा नाम हुआ औ मथुरा पुरी में सब असुरो समेत कंस को मैनेही मार भूमि का भार उतारा, औ सत्रह बेर तेईस तेईस अक्षौहिनी सेना ले जरासन्ध युद्ध करने को चढ़ि आयी, सो भी मुझसे हारा और यह कालयवन तीन कड़ोड़ म्लेच्छ की भीड़ भाड़ ले लड़ने को आया था सो तुम्हारी दृष्ट से जल मरा। इतनी बात प्रभु के मुख से निकलते ही सुनकर मुचकुंद को ज्ञान हुआ तो बोला कि महाराज आपकी माया अति प्रबल है, उसने सारे संसार को मोहा हैं, इसी से किसीकी कुछ सुध बुद्धि ठिकाने नहीं रहती।

करत कर्म सब सुख के हेत। ताते भारी दुख सहि लेत॥
चुभे हाड़ ज्यौं स्वान मुख, रुधिर चचोरे आप।
जानत ताही से चुवत, सुख माने संताप॥

और महाराज, जो इस संसार में आया है सो गृहरूपी अंधकूप से बिन आपकी कृपा निकल नहीं सकता, इससे मुझे भी चिता है कि मैं कैसे गृहरूप कूप से निकलूँगा। श्रीकृष्णजी बोलेसुन मुचकुन्द बात तो ऐसे ही है, जैसे तूने कही, पर मै तेरे तरने का उपाय बता देता हूँ सो तू कर। तैने राज पाय, भूमि, धन, स्त्री के लिये अधिक अधर्म किये हैं सो बिन तप किये न छूटेगे, इससे उत्तर दिस में जाय तु तपस्या कर। यह अपनी देह छोड़ फिर ऋषि के घर जन्म लेगा, तब तू मुक्ति पदारथ पावेगा। महाराज, इतनी बात जो मुचकुन्द ने सुनी तो जाना कि अब कलियुग आया। यह समझ प्रभु से बिदा हो दण्डवत कर, परिक्रमा दे मुचकुन्द तो बद्रीनाथ को गया, और श्रीकृष्णचंदजी ने मथुरा में आय बलरामजी से कहा—

 
कालयवन कौ कियौ निकंद। बद्री दिस पठयौ मुचकुन्द।
कालयवन की सेना घनी। तिन घेरी मथुरा आपनी।
आवहु तहाँ मलेछन मारै। सकल भूमि को भार उतारै।

ऐसे कह हलधर को साथ ले श्रीकृष्णचंद मथुरा पुर से निकल वहाँ आए जहाँ कालयवन का कटक खड़ा था, औ आतेही दोनों उनसे युद्ध करने लगे। निंदान लड़ते लड़ते जब म्लेच्छ की सेना प्रभु ने सब भारी तब बलदेवजी से कहा कि भाई, अब मथुरा की सब सम्पति ले द्वारका को भेज दीजे। बलरामजी बोले—बहुत अच्छा। तब श्रीकृष्णचंद ने मथुरा का सब धन निकलवाय भैंसो, छकड़ो, ऊटो, हाथियों पर लदवाय द्वारका को भेज दिया। इस बीच फिर जरासन्ध तेईसही अक्षौहिनी सेना ने मथुरा पुरी पर चढ़ि आया, तब श्रीकृष्ण बलराम अति धबरायके निकले औ उसके सनमुख जा दिखाई दें विसके मन का संताप मिटाने को भाग चले, तद मन्त्री ने जरासन्ध से कहा कि महाराज, आपके प्रताप के आगे ऐसा कौन बली है जो ठहरे, देखो वे दोनों भाई कृष्ण बलराम, छोड़के सब धन धाम, लेके अपना प्रान, तुम्हारे त्रास के मारे नंगे पाओं भागे चले जाते हैं। इतनी बात मन्त्री से सुन जरासन्ध भी यो पुकारकर कहता हुआ सेना ले उनके पीछे दौड़ा।

काहे डर के भागे जात। ठाढे रहौ करौ कछु बात॥
परत उठत कंपत क्यौं भारी। आई है ढिग मीच तिहारी॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेव मुनि बोले कि पृथीनाथ, जब श्रीकृष्ण औ बलदेवजी ने भाग के लोक रीति दिखाई, तब जरासन्ध के मन से पिछला सब शोक गया औ अति प्रसन्न हुआ, ऐसा कि जिसका कुछ बरनन नहीं किया जाता। आगे श्रीकृष्ण बलराम भागते भागते एक गौतम नाम पर्वत, ग्यारह जोजन ऊँचा था, तिसपर चढ़ गये और उसकी चोटी पर जाय खड़े भये।

देख जरासन्ध कहै पुकारि। शिखर चढे बलभद्र मुरारि॥
अंब किम हो जायँ पलाय। या पर्वत को देहु जलाय॥

इतना बचन जरासन्ध के मुख से निकलते ही सब असुरों ने

उस पहाड़ को जा घेरा और नगर नगर गाँव गाँव से काठ कबाड़ लाय लाय उसके चारो ओर चुन दिया, तिसपर गड़गूदड़ घी तेल से भिंगो डालकर आग लगा दी। जब वह आग पर्वत की चोटी तक लहकी तब उन दोनों भाइयों ने वहाँ से इस भाँति द्वारका की बाट ली कि किसी ने उन्हें जाते भी न देखा, और पहाड़ जलकर भस्म हो गया। उस काल जरासन्ध श्रीकृष्ण बलराम को उस पर्वत के संग जल भरा जान, अत्ति सुख मान, सब दुल साथ ले मथुरापुरी में आया, और वहाँ का राज ले नगर में ढँढोरा दे उसने अपना थाना बैठाया। जितने उग्रसेन बसुदेव के पुराने मंदिर थे सो सब ढवाए, और उसनें आप अपने नये बनवाए।

इतनी कथा सुनाय श्रीसुकदेवजी ने राजा से कहा कि महा- राज इस रीति से जरासंध को धोखा दे श्रीकृष्ण बलरामजी तो द्वारका में जाय बसे, और जरासंघ भी मथुरा नगरी से चल सब सेना ले अति आनंद करता निसंक हो अपने घर आया।