प्रेमसागर/५६ प्रद्युम्नजन्म, संबरवध

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छप्पनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन श्रीमहादेवजी अपने स्थान के बीच ध्यान में बैठे थे कि एकाएकी कामदेव ने आ सताया तो हर का ध्यान छूटा औ लगे अज्ञान हो पार्वतीजी के साथ क्रीड़ा करने। इसमें कितनी एक बेर पीछे शिवजी को केलि करते करते जब ज्ञान हुआ, तब क्रोध कर कामदेव को जलाय भस्म किया।

काम बली जब शिव दह्यौ, तब रति धरत न धीर।
पति बिन अति तलफत खरी, बिहबल विकल शरीर॥

कामनारि अति लोटति फिरै। कंत कंत कहि क्षित भुज भरै॥
पिय बिन तिय कहँ दुखिया जान। तब यौ गौरा कियो बखान॥

कि हे रति, तु चिंता मत करै, तेरा प्रति तुझे जिस भाँति मिलेगा तिसका भेद सुन, मै कहती हूँ कि पहले तो वह श्रीकृष्णचंद के घर में जन्म लेगा विसका नाम प्रद्युम्न होगा। पीछे उसे संबर ले जाय समुद्र में बहावेगा। फिर वह मच्छ के पेट में हो संबरही की रसोई में आवेगा। तू बही जाय के रह, जब वह आवे तब उसे ले पालियो। पुनि वह संबर को मार तुझे साथ ले द्वारका में सुख से जायं बसेगा। महाराज,

शिवरानी यो रति समभाई। तब तन धर संबर घर आई॥
सुंदरि बीच रसोई रहै। निस दिन मारग पिय को चहै॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, उधर रति तो पिय के मिलन की आस कर यो रहने लगी औ इधर रुक्मिनीजी को गर्भ रहा औ दस महीने में पूरे दिनो का लड़का भया। [ २२३ ] यह समाचार पा जोतिषियों ने आय लग्न साध बसुदेवजी से कहा कि महाराज इस बालक के शुभ ग्रह देख हमारे बिचार में यो आता है कि रूप, गुन, पराक्रम मैं यह श्रीकृष्णचंदजीही के समान होगा पर बालकपन भर जल में रहेगा। पुनि रिपु को मार स्त्री समेत आन मिलेगा। यो कह प्रद्युम्न नाम धर जोतिषी तो दक्षिणी ले बिदा हुए और वसुदेवजी के घर में रीति भाँति औ मंगलाचार होने लगे। आगे श्रीनारद मुनिजी ने जाय उसी समै समझाय संबर से कहा कि तू किस नीद सोता है, तुम चेत है के नहीं। वह बोला-क्या? इन्होने कहा-तेरा बैरी काम का अवतार प्रद्युम्न नाम श्रीकृष्णचंद के घर जन्म ले चुका)

राज्ञा, नारदजी तो संबर को यों चिताय चले गये औ संबर ने सोच विचारकर सनही मन में यह उपाय ठहराया कि पवनरूप हो वहाँ जाय विसे हर लाऊँ औ समुद्र में बहाऊँ, तो मेरे मन की चिता मिटे औ निर्भय हो रहूँ। यह विचार कर संबर वहाँ से उठ अलखरूप हो चला चला श्रीकृष्णचंद के मंदिर में आया कि जहाँ रुक्मिनीजी सोअर में हाथ से दबाये, छाती से लगाये बालक को दूध पिलाती थी औ चुपचाप घात लगाय खड़ा हो रहा है जो बालक पर से रुक्मिनीजी का हाथ अलग हुआ, तों असुर अपनी माया फैलाय उसे उठाय ऐसे ले आया कि जितनी स्त्रियों वहाँ बैठी थी विनमें से किसीने न देखा न जाना कि कौन किस रूप से आय क्यो कर उठाय ले गया। बालक को आगे न देख रुक्मिनीजी अति घबराई औ रोने लगीं। उनके रोने का शब्द सुन सब्र यदुबंसी क्या स्त्री क्या पुरुष धिर आये औं अनेक अनेक प्रकार की बाते कह कह चिंता करने लगे। [ २२४ ]इस बीच नारदजी ने अयि सुबको समझायकर कहा कि तुम आलक के जाने की कुछ भावना मत करो, विसे किसी बात का डर नहीं, वह कहीं जाय पर उसे काल न व्यापैगा, और बालापन वितीत कर एक सुंदर नारी साथ लिये तुम्हें आय मिलेगा। महाराज, ऐसे सब यदुबंसियों को भेद बताय समझाय बुझाय नारद मुनि जब बिदा हुए, तब वे भी सोच समझ संतोष कर रहे।

अब आगे कथा सुनिये कि संबर जो प्रद्युम्न को ले गया था, उसने उन्हें समुद्र में डाल दिया। वहाँ एक मछली ने इन्हे निगल लिया। उस मछली को एक और बड़ी मछली निगल गई। इसमे एक मछुए ने जाय समुद्र में जो जाल फेका, तो वह मीन जाल में आई। धीमर जाल खैंच, उस मच्छ को देख, अति प्रसन्न हो ले अपने घर आया। निदान वह मछली उसने जा राजा संबर को भेट दी। राजा ने ले अपने रसोईघर में भेज दी। रसोई करने वाली ने जो उस मछली को चीरा तो उसमें से एक और मछली निकली। विसका पेट फाड़ा तो एक लड़का स्यामबरन अति सुंदर उसमें से निकला। उसने देखतेही अति अचरज किया औ वह लड़का ले जाय रति को दिया, उसने महा-प्रसन्न हो ले लिया। यह बात संबर ने सुनी तो रति को बुलायकै कहा कि इस लड़के को भली भाँति से यत्न कर पाल। इतनी बात राजा की सुन रति उस लड़के को ले निज मंदिर मे आई। उस काल नारदजी ने जाय रति से कहा-

अब तू याहि पाल चितलाय। पति प्रदमन प्रगट्यौ आय॥
संबर मार तोहि लै जैहै। बालापन या ठौर बितैहै॥

इतना भेद बताय नारद मुनि तो चले गए और रति अति [ २२५ ] हित से चित लगाय पालने लगी। जो जों वह बालक बढ़ता था तों तो रति को पति के मिलने का चाव होता था। कभी वह उसका रूप देख प्रेम कर हिये से लगाती थी, कभी दृग, सुख, कपोल चूम आप ही बिहँस उसके गले लगती थी और यो कहती थी,

ऐसौ प्रभु संयोग बनायौ। मछरी मांहिं कंत मै पायौ।
औ महाराज,
प्रेम सहित पय ल्याय कै, हित सौं प्यावत ताहि॥
हलरावत गुन गायकै, कहत कंत चित चाहि॥

आगे जब प्रद्युम्नजी पाँच बरस के हुए, तब रति अनेक अनेक भाँति के वस्त्र आभूषन पहनाय पहनाय, अपने मन का साद पूरा करने लगी औ नैनो को सुख देने! उस काल वह बालक जो रति को ऑचल पकड़कर मा मा कहने लगा तो वह हँसकर बोली-हे कंत, तुम यह क्या कहते हो, मैं तुम्हारी नारि, तुम देखो अपने हिये विचार। मुझे पार्वतीजी ने यह कहा था कि तू संबर के घर जाय रह, तेरा कंत श्रीकृष्णचंदजी के घर में जन्म लेगा, सो मछली के पेट में हो तेरे पास आवेगा औं नारदजी भी कह गये थे कि तुम उदास मत हो, तेरा स्वामी तुझे आय मिलता है, तभी से मै तुम्हारे मिलने की आस किये यहाँ बास कर रही हूँ। तुम्हारे आने से मेरी आस पूरी भई।

ऐसे कह रति नै फिर पति को धनुषविद्या सब पढ़ाई। जब वे धनुषविद्या में निपुण हुए, तब एक दिन रति ने पति से कहा कि स्वामी अब यहाँ रहना उचित नहीं, क्योंकि तुम्हारी माता श्रीरुक्मिनीजी ऐसे तुम बिन दुख पाय अकुलाती है, जैसे वच्छ [ २२६ ] बिन गाय। इससे अब उचित यही है कि असुर संबर को मार, मुझे संग ले, द्वारका में चल मात पिता का दरसन कीजे और विन्हें सुख दीजे, जो आपके देखने की लालसा किये हुए है।

श्रीशुकदेवजी यह प्रसंग सुनाय राजा से कहने लगे कि महाराज, इसी रीति से रति की बाते सुनते सुनते प्रद्युम्नुजी जब सयाने हुए तब तक दिन खेलते खेलते राजा संबर के पास गये। वह इन्हें देखतेही अपने लड़के के समान जान लड़ाकर बोला कि इस बालक को मैने अपना लड़का कर पाला है। इतनी बात के सुनतेही प्रद्युम्नजी ने अति क्रोध कर कहा कि मै बालक हूँ बैरी तेरा, अब तू लड़कर देख बल मेरा। यो सुनाय खंम ठोक सनमुख हुआ, तब हँसकर संबर कहने लगा कि भाई, यह मेरे लिए दूसरा प्रद्युम्नजी कहाँ से आया, क्या दूध पिला मैने सर्प बढ़ाया, जो ऐसी बातें करता है। इतना कह फिर बोला-अरे बेटा, तू क्यों कहता है ये बैन, क्या तुझे जमदूत आये है लेन।

महाराज, इतनी बात संबर के मुँह से सुनतेही वह बोला-प्रद्युम्न मेराही है नाम, मुझसे आज तू कर संग्राम मैंने तो था मुझे सागर में, बहाया, पर अब मैं अपना बैर लेने फिर आया। तूने अपने घर में अपना काल बढ़ाया अप, कौन किसका बेटा और किसका बाप।

सुन संबर आयुध गहे, बढ्यौ क्रोध मन भाव॥
मनहु सर्प की पूँछ पर, पड़्यौ अँधेरे पाँव॥

आगे संबर अपना सब दुल मंगवाय, प्रद्युम्न को बाहर ले आय क्रोध कर गदा उठाय, मेथ की भॉति गरजकर बोला-देखूं अब तुझे काल से कौन बचाता है। इतना कहे जो उसने [ २२७ ] दपटकै गदा चलाई, तो प्रद्युम्नजी ने सहजही काट गिराई। फिर उसने रिसाय कर अग्निबान चलाये, इन्होंने जलबान छोड़ बुझाय गिराए। तब तो संबर ने महा क्रोध कर जितने आयुध उसके पास थे सब किये औइन्होने काट काट गिराय दिये। जद कोई आयुध उसके पास न रहा, तद क्रोध कर धाय प्रद्युम्नजी जाय लिपटे औ दोनो मे मल्लयुद्ध होने लगा। कितनी एक बेर पीछे ये उसे आकाश को ले उड़े, वहाँ जाय खड्ग से उसका सिर काट गिराय दिया और फिर असुरदल का बध किया।

संबर को मारा रति ने सुख पाया औ विसी समय एक विमान स्वर्ग से आया, उसपर रति पति दोनो चढ़ बैठे और द्वारका को चले ऐसे कि जैसे दामिनी समेत सुन्दर मेघ जाता हो और चले चले वहाँ पहुँचे कि जहाँ कंचन के मंदिर ऊँचे सुमेरु से जगमगाय रहे थे। विमान से उतर अचानक दोनों रनवास में गये, इन्हें देख सब सुन्दरी चौक उठी और यो समझ कि श्रीकृष्ण एक सुंदरी नारी संग ले आए सकुच रहीं। पर यह भेद किसी ने न जाना कि प्रद्युम्न है। सब कृष्ण ही कृष्ण कहती थीं। इसमें जब प्रद्युम्नजी ने कहा कि हमारे माता पिता कहाँ हैं, तब रुक्मिनी जी अपनी सखियो से कहने लगी-हे सखी, यह हरि की उनहार कौन है? वे बोलीं-हमारी समझ मे तो ऐसा आता है कि हो न हो यह श्रीकृष्णही का पुत्र है। इतनी बात के सुनतेही रुक्मिनी जी की छाती से दूध की धार बह निकली औ बाई बाह फड़कने लगी और मिलने को मन घबराया पर बिन पति की आज्ञा मिल न सकी। उस काल वहाँ नारदजी ने आय पूर्व कथा कह सबके मन का संदेह दूर किया, तब तो रुक्मिनीजी ने दौड़कर पुत्र का सिर चूम उसे छाती से लगाया और रीति भाँति से ब्याहकर [ २२८ ] बेटे बहू को घर मे लिया। उस समय क्या स्त्री क्या पुरुष सब यदुवंसियो ने आय, मंगलाचार कर अति आनन्द किया। घर धर बधाई बाजने लगी औ सारी द्वारकापुरी मे सुख छाय गया।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, ऐसे प्रद्युम्नजी जन्म ले बालकपन अनल बिताय रिपु को मार रति को ले द्वारकापुरी मे आए तब घर घर आनन्द मंगल हुए बधाए।