प्रेमसागर/५७ जाम्बन्ती-सत्यभामा-विवाह

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सत्तावनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, सत्राजीत ने पहले तो श्री कुष्णचंद को मनि की चोरी लगाई, पीछे झूठ समझ लज्जित हो उसने अपनी कन्या सतिभामा हरि को ब्याह दी। यह सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से पूछा कि कृपानिधान, सत्राजीत कौन था, मनि उसने कहाँ पाई और कैसे हरि को चोरी लगाई, फिर क्योकर झूठ समझ कन्या ब्याह दी, यह तुम मुझे बुझाके कहो।

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, सुनिए मैं सब समझाकर कहता हूँ। सत्राजीत एक यादव था तिसने बहुत दिन तक सूरज की अति कठिन तपस्या की, तब सूरज देवता ने प्रसन्न हो उसे निकट बुलाय मनि देकर कहा कि सुमंत है इस मनि का नाम, इसमे है सुख सपत का विश्राम। सदा इसे मानियो और बल तेज में मेरे समान जानियो। जो तू इसे जप, तप, संजम, कर ध्यावेगा तो इससे मुँह माँगा फल पावेगा। जिस देस नगर घर मे रह जावेगा, तहाँ दुख दरिद्र काल कभी न आवेगा। सर्वदा सुकाल रहेगा औ ऋद्धि सिद्धि भी रहेगी।

महाराज, ऐसे कह सूरज देवता ने सत्राजीत को बिदा किया। वह मनि ले अपने घर आया। आगे प्रातही उठ वह प्रातस्नान कर संध्या तर्पन से निचिंत हो, नित चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य सहित मनि की पूजा किया करै और विस भनि से जो आठभार सोना निकले सो ले और प्रसन्न रहै। एक दिन पूजा करते करते सनाजीत ने मनि की शोभा औ कांति देख [ २३० ] निज मन में बिचारा कि यह मनि श्रीकृष्णचंद को लेजाकर दिखाइए तो भला।

यो बिचार मनि कंठ में बाँध सत्राजीत यदुबंसियो की सभा को चला। मनि का प्रकास दूर से देख सब यदुबंसी खड़े हो श्रीकृष्णजी से कहने लगे कि महाराज, तुम्हारे दरसन की अभिलाषा किये सूरज चला आता है, तुमको ब्रह्मा, रुद्र, इंद्रादि सब देवता ध्यावते है औ पाठ पर ध्यान धर तुम्हारा जस गावते हैं। तुम हो आदिपुरुष अविनासी, तुम्हे नित सेवती है कमला मई दासी। तुम हो सब देवो के देव, कोई नहीं जानता तुम्हारा भेव। तुम्हारे गुन श्री चरित्र हैं अपार, क्यौ प्रभु छिपोगे आय संसार। महाराज, जब सत्राजीत को आता देख सब यदुबंसी यो कहने लगे, तब हरि बोले कि यह सूरज नहीं सत्राजीत यादव है। इसने सूरज की तपस्या कर एक मनि पाई है, उसका प्रकाश सूरज के समान है, वही मनि बाँधे वह चला आता है।

महाराज, इतनी बात जब तक श्रीकृष्णजी कहैं तब तक वह आय सभा मे बैठा, जहाँ यादव सारे पासे खेल रहे थे। मनि की कांति देख सबका मन मोहित हुआ औ श्रीकृष्णचंद भी देख रहे, तद सत्राजीत कुछ मनहीं मन समझ उस समय बिदा हो अपने घर गया। आगे वह मनि गले में बाँध*[१] नित आवे। एक दिन सब यदुबंसियो ने हरि से कहा कि महाराज, सत्राजीत से मनि ले राजा उग्रसेन को दीजै औ जग मे जस लीजै, यह मनि इसे नहीं फबती, रा के जोग है।

इस बात के सुनते ही श्रीकृष्णजी ने हँसते हँसते सत्राजीत से


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कहा कि यह मनि राजाजी को दो और संसार में जस बड़ाई लो। देने का नाम सुनतेही वह प्रनाम कर चुपचाप वहाँ से उठ सोच विचार करता अपने भाई के पास जो बोला कि आज श्रीकृष्णजी ने सुझसे मनि माँगी और मैने न दी। इतनी बात को सत्राजीत के मुँह से निकली तो क्रोध कर उसके भाई प्रसेन ने वह अनि ते अपने गले में डाली औ शस्त्र लगाय घोड़े पर चढ़ अहेर को निकला। महावन में जाय धनुष चढ़ाय लगा साजर, चीतल, पाढे, रीछ औ मृग मारने। इसमें एक हिरन जो उसके आगे से झपटा, तो इसने भी खिलायके विसके पीछे घोड़ा दुपटा औ चला चला अकेला कहाँ पहुँचा कि जहाँ जुगानजुग की एक बड़ी औड़ी गुफा थी।

मृग औ घोड़े के पाँव की आहट पाय उसमें से एक सिह निकला। वह इन तीनों को मार मनि ले फिर उस गुफा में बढ़ गया। मनि के जातेही उस महाअंधेरी गुफा में ऐसा प्रकाश हुआ कि पाताल तक चाँदनी हो गया। वहाँ जामवत *[२] नाम रीछ जो श्रीरामचंद्र के साथ रामावतार में था, सो त्रेतायुग से तहाँ कुटुंब समेत रहा था, वह गुफा में उजाला देख उठ धाया औं चला चला सिह के पास आया। फिर वह सिह को मार मनि ले अपनी स्त्री के निकट गया। विसने मनि ले अपनी पुत्री के पालने में बाँधी। वह विसे देख नित हँस हँस खेला करै औं सारे स्थान में आठ पहर प्रकास रहै। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, मनि यो गई औ असेन की यह गति भई। तब प्रसेन के साथ जो लोग गये थे तिन्होने आ सत्राजीत से कहा कि महाराज,


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हमकौं त्याग अकलौ धायौ। जहाँ गयौ तहाँ खोज न पायौ॥
कहत न बने ढूँढ़ फिर आए। कहूँ प्रसेन न बन मे पाए॥

इतनी बात के सुनतेही सत्राजीत खाना पीना छोड़ अति उदास हो चिता कर मनहीं मन कहने लगा कि यह काम श्रीकृष्ण का है जो मेरे भाई को मनि के लिए मार, मनि ले घर मे आय बैठा है। पहले मुझसे माँगता था मैने न दी, अब उसने यो ली। ऐसे वह मनही मन कहै और रात दिन महा चिंता मे रहै। एक दिन वह रात्रि समै स्त्री के पास सेज पर तन छीन, मन मलीन, मष्ट मारे बैठा मनही मन कुछ सोच विचार करता था कि उसकी नारी ने कहा-

कहा कंत मन सोचत रहौ। मोसो भेद आपनो कहौ॥

सत्राजीत बोला कि स्त्री से कठिन बात का भेद कहना उचित नहीं, क्यौकि इसके पेट मे बात नहीं रहती। जो घर मे सुनती है सो बाहर प्रकाश कर देती है। यह अज्ञान, इसे किसी बात का ज्ञान नहीं, भला हो कै बुरा। इतनी बात के सुनतेही सनाजीत की स्त्री खिजलाकर बोली कि मैने कब कोई बात घर में सुन बाहर कही है जो तुम कहते हो, क्या सब नारी समान होती है। यो सुनाय फिर उसने कहा कि जब तक तुम अपने मन की बात मेरे आगे न कहोगे, तब तक मैं अन्न पानी भी न खाऊँगी। यह बचन नारी से सुन सत्राजीत बोला कि झूठ सच्च की तो भगवान जाने पर मेरे मन में एक बात आई है, सो मै तेरे आगे कहता हूँ परंतु तू किसूके सोही मत कहियो। उसकी स्त्री बोली-अच्छा में न कहूँगी।

सत्राजीत कहने लगा कि एक दिन श्रीकृष्णाजी ने मुझसे [ २३३ ] मनि मांगी और मैने न दी, इससे मेरे जी में आता है कि उसीने मेरे भाई को बन में जाय मारा औ मनि ली। यह उसी का काम है दूसरे की सामर्थ नहीं जो ऐसा काम करे।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बात के सुनतेही उसे रात भर नीद न आई और उसने सात पाँच कर रैन गँवाई। भोर होतेही उसने जा सखी सहेली और दासी से कहा अपने कंत के मुख सुनी है पर तुम किसी के आगे मत कहियो। वे वहाँ से तो भला कह चुपचाप चली आई, पर अचरजकर एकांत बैठ आपस मे चरचा करने लगी, निदान एक दासी ने यह बात श्रीकृष्णचद्र के रनवास मे जा सुनाई। सुनतही सबके जी में आया कि जो सत्राजीत की स्त्री ने यह बात कही है तो झूठ न होगी। ऐसे समझ, उदास हो सब रनवास श्रीकृष्ण को बुरा कहने लगा। इस बीच किसीने आय श्रीकृष्णजी से कहा कि महाराज, तुम्हें तो प्रसेन के मारने औ मनि के लेने का कलंक लग चुका, तुम क्या बैठ रहे हो, कुछ इसका उपाय करो।

इतनी बात के सुनते ही श्रीकृष्णजी पहले तो घबराए, पीछे कुछ सोच समझ वहाँ आए, जहाँ उग्रसेन, बासुदेव औ बलराम सभा मे बैठे थे और बोले कि महाराज, हमे सब लोग यह कलंक लगाते है कि कृष्ण ने प्रसेन को मार मनि ले ली। इससे आपकी याज्ञा ले प्रसेन और मनि के ढूँढ़ने को जाते है, जिससे यह अपजस छूटै। यो कह श्रीकृष्णाजी वहाँ से आय कितने एक यदुबंसियों और प्रसेन के साथियों को साथ ले बन को चले। कितनी एक दूर जाय देखे तो घोड़ो के चरन चिह्न दृष्ट पड़े, [ २३४ ] विन्हीं को देखते देखते वहाँ जाय पहुँचे जहाँ सिह ने तुरंग समेत प्रसेन को मार खाया था। दोनों की लोथ और सिंह के पाओ का चिह्न देख सबने जाना कि उसे सिंह ने मार खाया।

यह समझ मनि न पाय श्रीकृष्णचंद सबको साथ लिये लिये वहाँ गये, जहाँ वह औंड़ी अँवेरी महा भयावनी गुफा थी। उनके द्वार पर देखते क्या है कि सिह मरा पड़ा है पर मनि वहाँ भी नहीं। ऐसा अचरज देख सब श्रीकृष्णजी से कहने लगे कि महाराज, इस बन मे ऐसा बली जंतु कहाँ से आया जो सिंह को भार भनि ले गुफा*[३] में पैठा। अब इसका कुछ उपाय नहीं, जहाँ तक ढूँढ़ने का धर्म था तहाँ तक आपने ढूँढ़ा। तुम्हारा कलंक छूटा, अब नाहर के सिर अपजस पड़ा।

श्रीकृष्णजी बोले-चलो इस गुफा मे धसके देखे कि नाहर को मार मनि कौन ले गया। वे सब बोले कि महाराज, जिस गुफा का मुख देखे हमे डर लगता है विसमें धसेगे कैसे? बरन हम तुमसे भी विनती कर कहते है कि इस महाभयावनी गुफा मे आप भी न जाइये, अब घर को पधारिये। हम सब मिल नगर में कहैगे कि प्रसेन को मार सिंह ने मनि ली औ सिंह को मार मनि ले कोई जंतु एक अति डरावनी औंड़ी गुफा में गया, यह हम सब अपनी आँखों देख पाए। श्रीकृष्णचंद बोले मेरा मन मनि में लगा है, मै अकेला गुफा में जाता हूँ, दस दिन पीछे आऊँगा, तुम दस दिन तक यहाँ रहियो, इसमें हमे बिलंब होय तो घर जाय संदेसा कहियो। महाराज, इतनी बात कह हरि उस अँधेरी भयावनी गुफा में पैठे और चले चले वहाँ पहुँचे जहाँ


[ २३५ ]

जामवंत सोता था औ उसकी स्त्री अपनी लड़की को खड़ी पालने मे झुलाती थी।

वह प्रभु को देख भय खाय पुकारी औ जामवंत जागा, तो धाय हरि से आय लिपटा औ मल्लयुद्ध करने लगा। जब उसका कोई दाव औ बल हरि पर न चला तब मनही मन विचारकर कहने लगा कि मेरे बल के तो है लक्षमन राम और इस संसार मे ऐसा बली कौन है जो मुझसे करे संग्राम। महाराज, जामवंत मनही मन ज्ञान से यो बिचार प्रभु का ध्यान कर,

ठाढ़ौ उसरि जोरकै हाथ। बोल्यौ दरस देहु रघुनाथ॥
अंतरजामी, मै तुम जाने। लीला देखतही पहिचाने॥
भली करी लीनौ औतार। करिहौ दूर भूमि कौ भार॥
त्रेतायुग ते इहि ठां रह्यौ। नारद भेद तुम्हारी कह्यो॥
मनि के काजे प्रभु इत ऐहैं। तबही तोकौ दरसन देहैं॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि हे राजा, जिस समय जामवंत ने प्रभुको जान यो बखान किया, तिसी काल श्रीमुरारी भक्तहितकारी ने जामवंत की लगन देख मगन हो, राम का भेष कर, धनुष धान धर दरसन दिया। आगे जामवंत ने अष्टांग प्रनाम कर, खड़े हो, हाथ जोड़ अति दीनता से कहा कि हे कृपासिन्थु दीनबन्धु, जो आपकी आज्ञा पाऊँ तो अपना मनोरथ कह सुनाऊँ। प्रभु बोले-अच्छा कह। तब जामवंत ने कहा कि हे पतितपावन दीनानाथ, मेरे चित्त मे यो है कि यह कन्या जामवंती*[४] आप को ब्याह दूँ औ जगत मे जस बड़ाई लूँ। भगवान ने कहा-जो तेरी इच्छा में ऐसे आया तो हमे भी


[ २३६ ]

प्रमान है। इतना बचन प्रभु के मुख से निकलतेही जामवंत ने पहले तो श्रीकृष्णचंद को चंदन, अक्षत, पुष्प धूप, दीप, नैवेद्य ले पूजा की, पीछे वेद की विध से अपनी बेटी ब्याह दी और उसके यौतुक में वह मनि भी धर दी।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि हे राजा, श्रीकृष्णचंद आनंदकंद तो मनि समेत जामवंती को ले यो गुफा से चले और जो यादव गुफा के मुँह पर प्रसेन औ श्रीकृष्ण के साथी खड़े थे, अब तिनको कथा सुनिये। गुफा के बाहर उन्हें जब अट्ठाइस दिन बीते श्री हरि न आए, तब वे वहाँ से निरास हो अनेक प्रकार की चिन्ता करते और रोते पीटते द्वारका में आए। ये समाचार पाय सब यदुबंसी निपट घबराए औ श्रीकृष्ण का नाम ले ले महाशोक कर कर रोने पीटने लगे औ सारे रनवास मे कुहराम पड़ गया। निदान सब रानियाँ अति व्याकुल हो तन छीन मन मलीन राजमंदिर से निकल रोती पीटती वहाँ आई जहाँ नगर के बाहर एक कोस पर देवी का मंदिर था।

पूजा कर, गौर को मनाय, हाथ जोड़, सिर नाय कहने लगीं-हे देवी, तुझे सुर, नर, मुनि सब ध्यावते हैं औ तुझसे जो बर मांगते हैं सो पावते हैं। तू भूत, भविष्य, वर्तमान की सब बात जनती है, वह श्रीकृष्णचंद आनंदकंद कब आवेगे। महाराज, बस रानियों तो देवी के द्वार धरना दे यों मनाय रही थीं औ उग्रसेन, बासुदेव, बलदेव आदि सब यादव महाचिन्ता मे बैठे थे कि इस बीच श्रीकृण अविनासी द्वारकाबासी हँसते हँसते जामवंती को लिये आय राजसभा में खड़े हुए। प्रभु का चंदमुख देख सबको अनंद हुआ औ यह शुम समाचार पाय सब रानियाँ [ २३७ ] भी देवी पूज घर आईं और मंगलाचार करने लगीं। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, श्रीकृष्णजी ने सभा में बैठते ही सत्राजीत को बुला भेजा औ वह मनि देकर कहा कि यह मनि हमने न ली थी, तुमने झूठमूठ हमें कलंक दिया था।

यह मनि जामवंत ही लीनी। सुता समेत मोहि तिन दीनी॥
मनि लै तबहि चल्यो सिरनाय। सत्राजित मन सोचतु जाय॥
हरि अपराध कियो मै भारी। अनजाने दीनी कुलगारी॥
जादौपति को कलंक लगायौ। मनि के काजे बैर बढ़ायो॥
अब यह दोष कटे सो कीजै। सतिभामा मनि कृष्णहि दीजै॥

महाराज, ऐसे मनही मन सोच विचार करता, मनि लिये, मन मारे सत्राजीत अपने घर गया और उसने सब अपने जी का विचर स्त्री से कह सुनाया। विसकी स्त्री बोली-स्वामी, यह बात तुमने अच्छी बिचारी। सतिभामा श्रीकृष्ण को दीजे औ जगत में जस लीजे। इतनी बात के सुनतेही सत्राजीत ने एक ब्राह्मन को बुलाय, शुभलग्न मुहूर्त्त ठहराय, रोली, अक्षत, रुपया, नारियल एक थाली में धर पुरोहित के हाथ श्रीकृष्णचंद के यहाँ टीका भेज दिया। श्रीकृष्णजी बड़ी धूमधाम से मौड़ बाँध व्याहन आए। तब सत्राजीत ने सत्र रीति भॉति कर वेद की विधि से कन्यादान किया और बहुत सा धन दे यौतुक में विस मनि को भी धर दिया।

मनि को देखतेही श्रीकृष्णजी ने उसमें से निकाल बाहर किया और कहा कि यह मनि हमारे किसी काम की नही क्योकि तुमने सूरज की तपस्या कर पाई। हमारे कुल मे श्रीभगवान छुड़ाय और देवता को दी वस्तु नहीं लेते। यह तुम अपने घर मे रक्खौ। महाराज, श्रीकृष्णचंदजी के मुख से इतनी बात [ २३८ ] निकलतेही, सत्राजीत मनि ले लजाय रहा औ श्रीकृष्णजी सतिभामा को ले बाजे गाजे से निज धाम पधारे श्री आनंद से सतिभामा समेत राजमंदिर में जा बिराजे।

इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी पूछा कि कृपानिधान, श्रीकृष्णजी को कलंक क्यों लगा सो कृपा कर कहो। शुकदेवजी बोले-राजा,

चाँद चौथ को देखियौ, मोहन भादो मास।
तासे लग्यौ कलंक यह, अति मन भयो उदास॥
और सुनौ
जो भादौ की चौथ कौ, चाँद निहारे कोय।
यह प्रसंग अवननि सुने, ताहि कलंक न होथ॥

  1. *(क) मे 'बाँध' दो बार आया है।
  2. *(ख) 'जाबुवान'
  3. *(ख) में 'गुहा'
  4. *(क)में 'जामवती', (ख में 'जाम्बुवती'